फरवरी, 2003 में पहली बार संसद के सेंट्रल हॉल में स्वातंत्र्य वीर सावरकर का चित्र लगाया गया। उस समय एनडीए सरकार थी श्री वाजपेयी प्रधाननमंत्री और श्री मनोहर जोशी लोक सभा के अध्यक्ष, राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने तैलचित्र का अनावरण किया। संसदीय इतिहास में, पहली बार कांग्रेस पार्टी ने राष्ट™पति के कार्यÿम का बहिष्कार किया। तबसे प्रत्येक 28 मई को वीर सावरकर की जन्मतिथि पर जब सांसद सेंट™ल हॉल में इस महान स्वतंत्रता सेनानी को अपनी श्रध्दांजलि देने आते हैं तो कांग्रेसी सांसद इस कार्यÿम का बहिष्कार करते हैं। कांग्रेस पार्टी ने कभी भी अपने इस व्यवहार पर सार्वजनिक रूप से स्पष्टीकरण नहीं दिया है। परन्तु अघोषित कारण यह है कि वह गाँधीजी हत्या केस में एक आरोपी थे। पार्टी इस तथ्य की अनदेखी करती है कि न्यायालय ने इस केस में दो को मृत्युदण्ड और अन्यों को विभिन्न कारावासों की सजा दी थी परन्तु वीर सावरकर को flदोषी नहीं पाया’’ और उन्हें बरी किया।
महात्मा गाँधीजी की हत्या के दो दशक बाद, साहित्यिक और गैर-साहित्यिक पुस्तकों के एक प्रसिध्द लेखक मनोहर मालगांवकर ने भारतीय इतिहास की इस दुःखद त्रासदी पर आधारित एक पुस्तक लिखी। सजा काटकर बाहर निकले आरोपियों तथा सरकारी गवाह बने बडगे जिसे माफी दे दी गई से पुस्तक लेखक के साक्षात्कारों पर आधारित है। लेकिन इस पुस्तक के प्रकाशित होने से काफी पहले ही मालगांवकर ने यह रिपोर्ट उस समय की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘लाइफ इंटरनेशनल’ को दे दी।
इस पत्रिका ने फरवरी, 1968 के अपने अंक में मालगांवकर द्वारा दिए गए तथ्यों को उपरोक्त वर्णित व्यक्तियों के घरों पर खींचे गए फोटोग्राफ के साथ प्रकाशित किया। गाँधीजी की हत्या जिसने दुनिया को धक्का पहुंचाया, के लगभग तीस वर्ष पश्चात सन् 1977 में लंदन के प्रकाशक मैक्मिलन ने मालगांवकर द्वारा किए गए शोध को ‘दि मैन हू किल्ड गाँधीजी’ ; शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित की। उसके कुछ समय पश्चात् मैंने इसे पढ़ा था। वर्तमान में मेरे सम्मुख इस पुस्तक का 13वां संस्करण है जिसे दिल्ली स्थित रोली बुक्स ने उसी शीर्षक के साथ प्रकाशित किया है परन्तु एक अतिरिक्त उल्लेख के साथः अप्रकाशित दस्तावेजों और फोटोग्रास के साथ’’।
इस संस्करण में, लेखक मालगांवकर अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं- 1960 के दशक के मध्य में, इस अपराध में शामिल कुछ लोगों द्वारा किए गए रहस्योद्घाटनों से लगातार यह आरोप उठ रहे थे कि सावरकर के बारे में डॉ. अम्बेडकर का ऐतिहासिक रहस्योद्घाटन रु लालड्डष्ण आडवाणी फमुंबई में जिम्मेदार पदों पर बैठे अनेक लोगों को इस हत्या की साजिश की पूर्व जानकारी थी, परन्तु वे पुलिस को बताने में असफल रहे। इन आरोपों के पीछे के सत्य को जानने के उद्देश्य से सरकार ने न्यायमूर्ति के.एल. कपूर की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग गठित किया। इस आयोग की खोजों की रिपोर्ट को मेरे दोस्त ने मुझे भेजा। अब मेरे पास आयोग की वृहत और तीक्ष्ण रिपोर्ट थी और मुझे अपनी खोज से न्यायमूर्ति कपूर के निष्कर्षों की प्रमाणिकता सिह् करनी थी। निस्संदेह मैं अभी भी अपनी पुस्तक लिख सकता था। लेकिन मुझे इसमें संदेह था कि कपूर आयोग की रिपोर्ट की सहायता के बगैर ‘दि मैन हू किल्ड गांधीजी एक मजबूत बन पाती या इतनी चिरकालिक।
पुस्तक पहली बार तब सामने आई जब देश ‘आपातकाल’ के शिकंजे में था, और पुस्तकों पर सेंसरशिप अत्यन्त निदर्यतापूर्वक लागू थी। इससे मुझ पर यह कर्तव्य आ गया कि जिन कुछ चीजों को मैंने छोड़ दिया था, जैसे डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा श्री एल0बी0 भोपतकर को दिया गया गुप्त आश्वासन कि उनके मुवक्किल श्री वी0डी0सावरकर को संदिग्ध्ा हत्यारों में कमजोर आध्ाारों पर फंसाया गया। तब फिर अन्य महत्वपूर्ण जानकारी जैसेकि एक मजिस्ट™ेट द्वारा एक गवाही को ‘तोड़मरोड़कर’ प्रस्तुत करना, जिसकी डयूटी सिर्फ यह रिकार्ड करना थी जो उसे कहा गया है, भी बाद के वर्षों में सामने आई।
इन तथ्यों और अन्य अंशों को उनके सही स्थान पर रखने के बाद मैं महसूस करता हूं कि अब नई पुस्तक महात्मा गाँधीजी की हत्या की साजिश का एक सम्पूर्ण लेखा-जोखा है। जो भी इस प्रस्तावना को पढ़ेगा तो इसकी प्रशंसा किए बगैर नहीं रह सकेगा कि समूचे राष्ट™ को यह जानना कितना महत्वपूर्ण है कि डा0 अम्बेडकर ने सावरकर के वकील भोपतकर को क्या कहा। इस संदर्भ में मैं पुस्तक के इस संस्करण के सम्बह् अंशों को उह्ृत कर रहा हूंः पुलिस सावरकर को फांसने को क्यों इतनी चिंतित थी? क्या मात्र इसलिए कि गांधीजी को मारने से पहले वह नाथूराम गोडसे को गिर∂तार करने का काम नहीं कर पाए थे, इसके चलते अपनी असफलता छुपाने के लिए वह यह बहाना बना रहे थे कि इसके पीछे एक बड़े नेता का हाथ है जो संयोग से उस समय की सरकार की नजरों में खटकता था? या स्वयं वह सरकार या इसमें के कुछ शक्तिशाली समूह, पुलिस एजेंसी का उपयोग कर एक विरोध्ाी राजनीतिक संगठन को नष्ट करना चाहती थी या कम से कम एक प्रखर और निर्भीक विपक्षी हस्ती को नष्ट करना चाहती थी? या फिर से यह सब भारत, ध्ाार्मिकता, वंश, भाषायी या क्षेत्रीयता के विरुह् एक अजीब किस्म के फोबिया का प्रकटीकरण था जो समाज के कुछ वर्गों के विष हेतु सावरकर को एक स्वाभाविक निशाना बनाता था?
यह चाहें जो हो, सावरकर स्वयं इसके प्रति सतर्क थे, इतने सावध्ाान भी कि सरकारी तंत्र उन्हें नाथूराम के सहयोगी के रूप में अदालत ले जाएगा कि जब गाँधीजीकी हत्या के पांच दिन बाद एक पुलिस दल उनके घर में प्रविष्ट हुआ तो वह उससे मिलने सामने आए और पूछाः-तो आप गांधीजी हत्या के लिए मुझे गिरतार करने आ गए?’’ सावरकर को गाँधी हत्या केस में एक आरोपी बनाया जाना भले ही राजनीतिक प्रतिशोध का पुस्तक पहली बार तब सामने आई जब देश ‘आपातकाल’ के शिकंजे में था, और पुस्तकों पर सेंसरशिप अत्यन्त निदर्यतापूर्वक लागू थी। इससे मुझ पर यह कर्तव्य आ गया कि जिन कुछ चीजों को मैंने छोड़ दिया था, जैसे डा0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा श्री एल. बी. भोपतकर को दिया गया गुप्त आश्वासन कि उनके मुवक्किल श्री वी. डी. सावरकर को संदिग्ध हत्यारों में कमजोर आधारों पर फंसाया गया। पुलिस सावरकर को फांसने को क्यों इतनी चिंतित थी? क्या मात्र इसलिए कि गाँधीजी को मारने से पहले वह नाथूराम गोडसे को गिर∂तार करने का काम नहीं कर पाए थे, इसके चलते अपनी असफलता छुपाने के लिए वह यह बहाना बना रहे थे कि इसके पीछे एक बड़े नेता का हाथ है जो संयोग से उस समय की सरकार की नजरों में खटकता था? या स्वयं वह सरकार या इसमें के कुछ श७िशाली समूह, पुलिस एजेंसी का उपयोग कर एक विरोध राजनीतिक संगठन को नष्ट करना चाहती थी या कम से कम एक प्रखर और निर्भीक विपक्षी हस्ती को नष्ट करना चाहती थी?
हालांकि बडगे का रिकार्ड भी अस्थिर चरित्र वाला और भरोसे करने लायक नहीं था लेकिन वह मुझसे लगातार यह कह रहा था कि उस पर दबाव डालकर झूठ बुलवाया गया और बम्बई के पुलिस विभाग द्वारा उसको माफी तथा भविष्य का खर्चा इस पर निर्भर था कि वह केस में सरकारी दावे का समर्थन करे और विशेषरूप से उसने सावरकर को कभी आपटे से बात करते नहीं देखा, और न ही कभी उन्हें यह कहते सुनाः ‘यशस्वी हा≈न या।’ केस के सिलसिले में जब भोपतकर दिल्ली में थे तो उन्हें हिन्दू महासभा कार्यालय में ठहराया गया। भोपतकर को यह बात दुविध्ाा में डाल रही थी कि जबकि सभी अन्य आरोपियों के विरुह् विशेष आरोप लगाए गए थे परन्तु उनके मुवक्किल के खिलाफ कोई निश्चित आरोप नहीं थे। वह अपने बचाव पक्ष की तैयारी कर रहे थे कि एक सुबह उन्हें बताया गया कि उनके लिए टेलीफोन आया है, अतः वह सुनने के लिए उस कक्ष में गए जहां टेलीफोन रखा था, उन्होंने रिसीवर उठाया और अपना परिचय दिया।
उन्हें फोन करने वाले थे डा. भीमराव अम्बेडकर जिन्होंने सिर्फ इतना कहाः flकृपया आज शाम को मुझे मथुरा रोड पर छठे मील पर मिलो,’’ लेकिन भोपतकर कुछ और कहते कि उध्ार से रिसीवर रख दिया गया। उस शाम को जब भोपतकर स्वयं कार चलाकर निर्धारित स्थान पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि अम्बेडकर पहले से ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्होंने भोपतकर को अपनी कार में बैठने को कहा जिसे वह स्वयं चला रहे थे। कुछ मिनटों के बाद, उन्होंने कार को रोका और भोपतकर को बतायाः तुम्हारे मुवक्किल के विरूह् कोई असली आरोप नहीं हैं, बेकार के सबूत बनाये गये हैं। केबिनेट के अनेक सदस्य इसके विरूह् थे लेकिन कोई फायदा नहीं। यहां तक कि सरदार पटेल भी इन आदेशों के विरुह् नहीं जा सके। परन्तु मैं तुम्हें बता रहा हूं कि कोई केस नहीं है। तुम जीतोगे। कौन जवाहरलाल नेहरू? लेकिन क्यों?
मुझे खुशी है कि कांग्रेस पार्टी के फैसले के बावजूद लोकसभा की अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार अपने कार्यकाल के दौरान इस महान क्रांतिकारी को श्रध्दांजलि देने कई बार आईं। पहले के अपने एक ब्लॉग में मैंने कांग्रेस संसदीय दल से इस निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया है। आजकल श्री शिंदे न केवल गृहमंत्री हैं अपितु लोकसभा में सत्ता पक्ष के नेता भी हैं। मैं चाहता हूं कि सम्माननीय लोकसभाध्यक्ष और श्री शिंदे एक साफ परन्तु गंभीर भूल पर नई पहल करें।
यह पुस्तक पढ़ने से पूर्व मुझे मालूम नहीं था कि कब सावरकर को पुलिस ने 30 जनवरी, 1948 को गाँधीजी की हत्या के एकदम बाद बंदी निरोधक कानून के तहत बंदी बनाया था जो flकानून का एक सर्वाधिक विद्वेषपूर्ण अंग है जिसके सहारे ब्रिटिशों ने भारत पर शासन किया।’’ बम्बई पुलिस ने शिवाजी पार्क के समीप सावरकर के घर पर छापा मारकर 143 फाइलों और कम से कम 10,000 पत्रों सहित उनके सारे निजी पत्रों को अपने कब्जे में ले लिया। मालगांवकर लिखते है- कहीं भी कोई सबूत नहीं था। जो पता लगा ;इन कागजों सेद्ध वह था षडयंत्रकारियों का हिन्दू महासभा से सम्बन्ध और सावरकर के प्रति उनकी निजी श्रह्ा। लेखक निष्कर्ष रूप में लिखते हैं वह चैंसठ वर्ष के थे और एक वर्ष या उससे ज्यादा समय से बीमार थे। उन्हें 6 फरवरी, 1948 को गिर∂तार किया गया और पूरे वर्ष जेल में रहे जिसमें जांच और मुकदमा जारी रहे। 10 फरवरी, 1949 को उन्हें ‘दोषी नहीं’ ठहराया गया। जो व्यक्ति भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में ब्रिटिश राज में 26 वर्ष जेलों में रहा वह फिर से एक वर्ष के लिए जेल में था वह भी स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद।’’ „
साभार- भाजपा के मुखपत्र कमल संदेश से