रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, सुभाषचंद्र बोस और रविन्द्र नाथ ठाकुर की जन्मभूमि पश्चिम बंगाल आज सांप्रदायिकता की आग में जल रही है। वहाँ हिंदू समुदाय का जीना मुहाल हो गया है। यह स्थितियाँ अचानक नहीं बनी हैं। बल्कि सुनियोजित तरीके से पश्चिम बंगाल में हिंदू समाज को हाशिए पर धकेला गया है। यह काम पहले कम्युनिस्ट सरकार की सरपरस्ती में संचालित हुआ और अब ममता बनर्जी की सरकार चार कदम आगे निकल गई है। आज परिणाम यह है कि पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में हिंदू अल्पसंख्यक ही नहीं हुआ है, अपितु कई क्षेत्र हिंदू विहीन हो चुके हैं। राजनीतिक दलों की देखरेख में बांग्लादेशी मुस्लिमों ने सीमावर्ती हिस्सों में जो घुसपैठ की जा रही है, उसके भयावह परिणामों की आहट अब सुनाई देने लगी है। मालदा, उत्तरी परगना, मुर्शिदाबाद और दिनाजपुर जैसे इलाकों में जब चाहे समुदाय विशेष हंगामा खड़ा कर देता है। घर-दुकानें जला दी जाती हैं। थाना फूंकने में भी उग्रवादी भीड़ को हिचक नहीं होती है। दुर्गा पूजा की शोभायात्राओं को रोक दिया जाता है। पश्चिम बंगाल की यह स्थिति बताती है कि सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से समृद्ध यह राज्य सांप्रदायिकता एवं तुष्टीकरण की आग में जल रहा है। सांप्रदायिकता की इस आग से अब पश्चिम बंगाल का हिंदू झुलस रहा है। अपने उदारवादी स्वभाव के कारण इस प्रकार के षड्यंत्रों को अनदेखा करने वाले हिंदू समाज का मानस अब बदल रहा है। भविष्य में पश्चिम बंगाल में इस बदलाव के परिणाम दिखाई दे सकते हैं। आप इस संस्मरण से भी समझ सकते हैं कि कैसे पश्चिम बंगाल का हिंदू जाग रहा है। उसे अपने हित-अहित दिखाई देने लगे हैं।
अमरकंटक में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित ‘कबीर चबूतरा’ दर्शनीय स्थल है। सामाजिक कुरीतियों पर बिना किसी भेदभाव के चोट कर समाज को बेहतर बनाने का प्रयास जिन्होंने किया, ऐसे संत कबीर के कारण इस स्थान का अपना महत्त्व है। कबीर साहेब सबको एक नजर से देखते हैं। प्रत्येक पंथ और धर्म की विसंगतियों पर एक समान चोट करते हैं। कबीर निराकार के उपासक और भगवान राम के भक्त थे। कबीर अपनी वाणी और व्यवहार से मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड का यथासंभव विरोध करते थे। मूर्तिपूजा को खारिज करती एक साखी बहुत प्रसिद्ध है- ‘पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार। ताते यह चाकी भली, पीस खाए संसार॥’ भारत में जिस प्रकार मस्जिद पर ध्वनि विस्तारक यंत्र (लाउड स्पीकर) लगाकर एक दिन में पाँच समय अजान पढ़ी जाती है, उस पर भी कबीर साहेब ने पूरी कठोरता से चोट की है। गायक सोनू निगम आज जब अजान पर सवाल उठाते हैं, तब हमारा समाज किस तरह प्रतिक्रियाएं देता है, यह हम सबने देखा। लेकिन, अपने समय में कबीर ने कितनी दृढ़ता से अजान के औचित्य को संदेह के घेर में रखा था, इसे उनके एक दोहे में देखा जा सकता है- ‘कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥’ बहरहाल, कबीर के दर्शन पर कभी और बात की जा सकती है। अभी यह बताता हूँ कि कबीर चबूतरा और पश्चिम बंगाल में धधक रही सांप्रदायिक आग में क्या संबंध है?
सुबह सात बजे का समय होगा, जब हम कबीर चबूतरा पहुँचे थे। प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध यह स्थान मन को भा गया। मैं यहाँ एक कुण्ड के किनारे खड़े होकर हम इस प्राकृतिक वातावरण में विद्यमान कबीर तत्व को आत्मसात करने का प्रयास कर रहा था। थोड़ी देर बाद यहाँ चहल-पहल होने लगी। एक के बाद एक, कई परिवार और धार्मिक पर्यटक समूह यहाँ आए। यहीं एक ऐसे परिवार से मिलना हुआ, जिसने बहुत पीड़ा के साथ पश्चिम बंगाल के हालात बयान किए। जब उस परिवार के लोग कबीर कुण्ड के पास खड़े होकर इस स्थान की अनुपम छटा के संदर्भ में बातचीत कर रहे थे, तभी समझ आ गया कि यह लोग पश्चिम बंगाल से आए हैं। पवित्र नगरी अमरकंटक के सौंदर्य का रसपान करने के लिए यूँ तो देशभर से प्रकृति प्रेमी और धार्मिक पर्यटक आते हैं, परंतु इनमें मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडीसा और पश्चिम बंगाल से आने वाले पर्यटकों की संख्या अधिक रहती है।
‘आप बंगाल से हैं? ‘ बातचीत शुरू करने के लिए मैंने उनसे पूछ लिया।
‘हाँ।’ उन्होंने बहुत ही संक्षिप्त उत्तर दिया। लेकिन, चेहरे पर भाव प्रसन्नता के थे।
‘बंगाल में कहाँ से हैं? ‘ मैंने आगे पूछा।
‘मालदा से।’ उन्होंने फिर से संक्षिप्त उत्तर दिया।
‘मालदा तो पिछले बरस बहुत चर्चा में रहा। मुस्लिम दंगे के कारण। बहुत उत्पात किया था। थाना-वाने में भी मारपीट कर दी थी। लोगों के दुकान-मकान जला दिए थे।’ मालदा का इस तरह जिक्र करके मैंने उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। मालदा के दंगे को उन्होंने नजदीक से देखा था। इसलिए सच बताने के लिए वह मेरे समीप आ गए।
‘आपने सही कहा। आज भी हालात बहुत खराब हैं। ममता की तुष्टीकरण की नीति का परिणाम है यह। पश्चिम बंगाल में कई इलाकों में हिंदुओं के हालात बहुत खराब हैं।’
मैं कुछ और कहता उससे पहले ही उन्होंने आगे बताया।
‘मालदा में बहुत दंगा हुआ था। हिंदुओं के दुकान जला दिए थे। कालियाचक थाने पर कब्जा कर वहाँ बम फोड़े गए थे। दरअसल, पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार वोटों की खातिर मुस्लिम समाज के तुष्टीकरण में लगी है। स्थिति यह है कि अब लोग ममता को भी मुस्लिम मानने लगे हैं।’ यह सब बताते हुए उस व्यक्ति के चेहरे पर पीड़ा के भाव स्पष्टतौर पर पढ़े जा सकते थे।
‘ऐसा कहा जाने लगा है कि पश्चिम बंगाल देश का दूसरा कश्मीर बनने की राह पर है। यह बात कितनी सही है? ‘ मैंने उनसे यह सवाल इसलिए पूछा, क्योंकि आज ही सुबह इस प्रकार की एक व्हाट्सअप पोस्ट मेरे पास आई थी। जिसमें कई घटनाओं और तथ्यों के प्रकाश में बताया गया था कि कैसे पश्चिम बंगाल की हालात कश्मीर जैसी होती जा रही है।
‘हाँ। यदि ऐसा ही चलता रहा तो पश्चिम बंगाल को कश्मीर बनने से कोई नहीं रोक सकता। वहाँ हिंदुओं को कोई आजादी नहीं है। बंगाल का सबसे बड़ा उत्सव है-दुर्गा पूजा। अब हिंदू वहाँ पूरी स्वतंत्रता से दुर्गा पूजा भी नहीं कर सकता। पिछले साल विसर्जन के लिए दुर्गा पूजा की यात्रा रोक दी गई थी, क्योंकि मुहर्रम का जुलूस उसी सड़क से निकलना था। बंगाल के कई जिले आज मुस्लिम बाहुल्य हो गए हैं। जनसंख्या में यह असंतुलन ही बंगाल की फिजा को खराब कर रहा है।’ उन्होंने आगे बताया कि ‘तृणमूल कांग्रेस और ममता की सरकार की नीतियों से नाराज होकर अब वहाँ की जनता भारतीय जनता पार्टी को पसंद करने लगी है। पिछले विधानसभा चुनाव में कई जगह भाजपा दूसरे स्थान पर रही है।’
‘आपने भाजपा को वोट दिया था क्या? आप भाजपा से जुड़े हैं क्या? ‘ जब उन्होंने भाजपा का जिक्र किया, तब उनसे यह सीधा सवाल मैंने किया।
‘नहीं। मैं तो पहले कम्युनिस्ट था। तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सरकार आई है, तब से टीएमसी का कार्यकर्ता हूँ। वैसे अब मैं भी भाजपा को पसंद करने लगा हूँ। मेरे बेटे ने तो अपना पहला वोट भाजपा को ही दिया था।’ मुस्कुराते हुए यह कहने के साथ ही उन्होंने अपने बेटे को आवाज लगाई। जब उनका बेटा हमारे नजदीक आया, तब उन्होंने उससे पूछा- ‘तुमने अपना पहला वोट किसे दिया था? ‘
‘भाजपा को।’ उसके बेटे ने कहा।
‘कम्युनिस्ट पार्टी और फिर टीएमसी को समर्थन देकर हमने जो गलती की है, अब हमारे बच्चे वह गलती नहीं करने वाले। पश्चिम बंगाल में अधिकतर युवा भाजपा को पसंद कर रहे हैं। इसलिए संभव है कि अगली बार बंगाल में भी कमल खिल जाए। मैं तो चूँकि सरकारी नौकरी करता हूँ, इसलिए खुलकर भाजपा का समर्थन नहीं कर सकता, वरना ममता दीदी मेरा ट्रांसफर कर देंगी।’ उन्होंने बड़ी साफगोई से यह सब बताया और यह भी बताया कि वह दिखते जरूर टीएमसी के साथ हैं, लेकिन अगली बार वोट भाजपा को ही देंगे।
‘आप कम्युनिस्ट थे या अभी भी हैं? कम्युनिस्ट होकर आपने यह ‘राम नाम’ लिखा हुआ पीत वस्त्र क्यों गले में डाल रखा है? ‘ जब उन्होंने स्वयं के कम्युनिस्ट होने की बात कही तब मैंने यह सवाल उनसे किया।
‘मैं अब कम्युनिस्ट नहीं हूँ। पहले था। जब बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार थी। अध्यात्म में रुचि है। यहाँ पास ही में रामकृष्ण मिशन का आश्रम है। वहाँ कथा चल रही है। उसी के निमित्त हम मालदा से यहाँ आए हैं।’ एक छोटी से हँसी से जन्मी खूबसूरत मुस्कुराहट के साथ उन्होंने यह जवाब दिया। इसी जवाब में उन्होंने आगे कहा- ‘धर्म और अध्यात्म को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। धर्म-अध्यात्म मार्क्स के कहे अनुसार अफीम तो कदापि नहीं है। भारत में अध्यात्म मनुष्य को सत्य पर चलने के लिए प्रेरित करता है। पश्चिम और कम्युनिज्म जिस चश्मे से धर्म को देखता है, भारत में धर्म को उस चश्मे से देखेंगे तब आप पूरी और स्पष्ट तस्वीर नहीं देख सकते। यहाँ वह चश्मा आपको भ्रम में डाल देगा। अध्यात्म को लेकर भारत का दृष्टिकोण अलग है। भारत में धर्म शोषण का नहीं, बल्कि कर्तव्यों का प्रतीक है। यहाँ अध्यात्म मनुष्यता का संरक्षक है। धर्म-अध्यात्म हमें मानवता के पथ पर आगे बढऩे को प्रेरित करता है।’ धर्म-अध्यात्म के संबंध में वह और भी कुछ कहना चाहते थे, लेकिन उनके परिवार के बाकि साथी अब उन्हें चलने के लिए आवाज देने लगे थे।
‘यानी आप कम्युनिज्म छोड़ कर अध्यात्म की यात्रा पर निकल पड़े हैं।’ मेरा इतना कहते ही वह हँस दिए। ‘आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा और पश्चिम बंगाल के हालात को भी समझने का अवसर मिला। बात करने के लिए बहुत धन्यवाद।’ इतना कह कर हम भी अपने रास्ते आगे बढ़ गए।
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भवदीय
लोकेन्द्र सिंह
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