Saturday, November 23, 2024
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स्वतंत्रता दिवस पर श्रीनगर में रहकर पता चला आज़ादी क्या होती है

जब पूरा देश फेसबुक और व्हाट्सएप पर आज़ादी की बातें कर रहा था, तिरंगे वाली डिस्प्ले पिक्चर लगाकर देश के प्रति अपना प्यार जता रहा था, मैं यहां कश्मीर के एक प्राइवेट हॉस्टल के अपने कमरे में बैठकर आज़ादी के बारे में सोच रही थी. सिर्फ सोच ही सकती थी. आज़ादी क्या होती है, इसे अभी तक समझ नहीं पाई हूं. मेरी तरह कश्मीर भी तो नहीं समझ पाया है कि उसके लिए आज़ादी के सही मायने क्या हैं.

शायद इसीलिए मैं भी कश्मीर में हूं कि क्या पता कश्मीर की आज़ादी के मायने समझते हुए मैं भी अपने लिए आज़ादी के अर्थ चुन सकूं. पिछले साल तक मीडिया की नौकरी करते वक्त खुद को आज़ाद कभी नहीं माना था मैंने. इसका मतलब ये बिलकुल नहीं कि नौकरी करने वाले आज़ाद नहीं. बस इतना है कि सब के लिए आज़ादी का मतलब अलग होता है. जैसे दिल्ली के लिए कुछ और श्रीनगर के लिए कुछ और.

स्कूल के दिनों में बाकियों की तरह मेरे लिए भी स्वतंत्रता दिवस का अर्थ था चुनमुन चौक पर तिरंगे का फहराना, मार्च पास्ट, देशभक्ति के गाने, भाषण और अगर हो रहा हो तो क्रिकेट मैच. तिरंगे को देखकर एक अलग ही तरह का जोश खून में दौड़ जाया करता था. मुझे याद है दिल्ली में जब सिलेक्ट सिटीवॉक और फिर कनॉट प्लेस में बड़ा सा तिरंगा लगाया गया तो उसे देखकर अलग ही खुशी होती थी.

लेकिन फिर चीज़ें बदलीं. आज के समय में ये कहते हुए मुझे डरना चाहिए, लेकिन पिछले साल कर्फ्यूड नाइट को पढ़ने और जश्ने आज़ादी को देखने के बाद जब मैं पिछली बार कश्मीर आई तो श्रीनगर के कैंटोनमेंट इलाके में किसी पहाड़ी के ऊपर फहराते हुए तिरंगे को देखकर वैसा नहीं लगा. अपने देश को एक महान देश के तौर पर देखते हुए बड़ी हुई थी, उसे एक अपराधी के रूप में देखना अच्छा नहीं लगा. कश्मीर की बड़ी आबादी उस तिरंगे को प्यार और इज़्ज़त से नहीं, नफरत से देख रही थी. और इस हकीकत को जज़्ब कर पाना, मेरे लिए दम घोंटने वाला अहसास था.

इस बार ठीक 15 अगस्त से एक दिन पहले श्रीनगर आई, दुबारा यहां रहने के लिए. 15 अगस्त को सुबह नौ बजे यहां मोबाइल इंटरनेट और फोन दोनों ही बंद कर दिए गए. इसके बाद कोई कैसे खुद को आजाद महसूस कर सकता था. मैं अपने दोस्तों से, परिवार से बात करने के लिए ही आज़ाद नहीं थी. दो बजे मोबाइल सर्विसेज़ वापस चालू कर दी गईं. देखा तो दिल्ली के दोस्तों के उलट श्रीनगर के दोस्तों की फेसबुक टाइमलाइन आज़ादी की बजाय गुलामी की बात कर रही थीं, जश्न के बजाय कर्फ्यू की बात हो रही थी.

यूं भी कश्मीर की हवा में आज़ादी कभी महसूस नहीं हुई मुझे. बाकी कश्मीरियों की तरह मुझे भी लगता है कि मैं यहां गुलाम हूं. लेकिन मेरे ऐसा लगने के कारण उनसे अलग हैं. यहां की ज़मीन पर पैर रखते ही मेरा दिल एक अजीब सी दहशत से भर जाता है. एक डर, कि यहां कभी भी कुछ भी हो सकता है. डर कि, यहां कभी भी मेरी पहचान और इरादों पर सवाल खड़े किये जा सकते हैं.

कश्मीर में कोई भी किसी पर भरोसा नहीं करता, या फिर बहुत मुश्किल से करता है. यहां आना देश के दूसरे हिस्सों में जाने से हमेशा अलग रहा है. लोग बहुत प्यार और खुलूस से मिलते हैं यहां, लेकिन फिर भी इस जगह ने हर बार मुझे महसूस कराया है कि मैं उनमें से एक नहीं हूं, नहीं हो सकती हूं.

आजादी के दिन कई कश्मीरी दोस्तों ने आज़ादी की मुबारकबाद दी. लेकिन हर एक मुबारकबाद में एक तंज़ था – ‘तुम्हें यौमे आज़ादी मुबारक.’ यानी ये आज़ादी का दिन सिर्फ मेरा है, उनका नहीं. अजीब है न, आज़ादी का दिन, जो पूरे मुल्क को एक साथ ला खड़ा करने की ताकत रखता है, वो मेरे और मेरे कश्मीरी दोस्तों के बीच एक दीवार की तरह खड़ा हो जाता है. ये आज़ादी का दिन मेरे लिए गर्व और जश्न की बात हो सकती है, उनके लिए ये ग़म और ग़ुस्से का सबब है. क्यों? इस क्यों का जवाब सब को पता होकर भी किसी को नहीं पता. दिल्ली से मीलों दूर, जहां हर कोई इस आज़ादी पर तंज़ कर रहा हो, मैं आज़ाद क्योंकर महसूस कर सकती हूं?

सुबह से हॉस्टल के कमरे में बैठी थी. मैं बाहर निकलना चाहती थी, दोस्तों से मिलना चाहती थी. बचपन की आदत है, बिना देशभक्ति के गीतों, तिरंगे और बूंदी के लड्डू के बिना कैसी आज़ादी? पर यहां इनमें से कुछ भी नहीं है. बाहर कर्फ्यू है. एक आज़ाद मुल्क के एक खास हिस्से में आज़ादी के दिन कर्फ्यू लगाना सालों पुरानी रवायत बन चुकी है. ये विडंबना ही है.

साभार- https://satyagrah.scroll.in से

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