विश्व में अनेक धर्म-सम्प्रदाय प्रचलित हैं। सभी धर्मों ने मानव जीवन का जो अंतिम लक्ष्य स्वीकार किया है, वह है परम सत्ता या संपूर्ण चेतन सत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित करना। यही वह सार्वभौम तत्व है, जो मानव समुदाय को ही नहीं, समस्त प्राणी जगत् को एकता के सूत्र में बांधे हुए हैं। इसी सूत्र को अपने अनुयायियों में प्रभावी ढंग से सम्प्रेषित करते हुए ‘सिख’ समुदाय के प्रथम धर्मगुरु नानक देव ने मानवता का पाठ पढ़ाया। उनका धर्म और अध्यात्म लौकिक तथा पारलौकिक सुख-समृद्धि के लिए श्रम, शक्ति एवं मनोयोग के सम्यक नियोजन की प्रेरणा देता है।
दीपावली के पन्द्रह दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा को जन्में गुरु नानक देव सर्वधर्म सद्भाव की प्रेरक मिसाल है। वे अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्म-सुधारक, समाज सुधारक, कवि, देशभक्त एवं विश्वबंधु – सभी गुणों को समेटे हैं। उनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण बचपन से ही दिखाई देने लगे थे। वे किशोरावस्था में ही सांसारिक विषयों के प्रति उदासीन हो गये थे।
प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन नानक देव का जन्मोत्सव मनाया जाता हैं। इस वर्ष गुरु नानक जयंती 4 नवंबर को मनाई जा रही। गुरु नानक जयंती को सिख समुदाय बेहद हर्षोल्लास और श्रद्धा के साथ मनाता है। यह उनके लिए दीपावली जैसा ही पर्व होता है। इस दिन गुरुद्वारों में शबद-कीर्तन किए जाते हैं। जगह-जगह लंगरों का आयोजन होता है और गुरुवाणी का पाठ किया जाता है। उनके लिये यह दस सिक्ख गुरुओं के गुरु पर्वों या जयन्तियों में सर्वप्रथम है। नानक का जन्म 1469 में लाहौर के निकट तलवंडी में हुआ था। नानक जयन्ती पर अनेक उत्सव आयोजित होते हंै, त्यौहार के रूप में भव्य रूप में इसे मनाया जाता है, तीन दिन का अखण्ड पाठ, जिसमें सिक्खों की धर्म पुस्तक ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ का पूरा पाठ बिना रुके किया जाता है। मुख्य कार्यक्रम के दिन गुरु ग्रंथ साहिब को फूलों से सजाया जाता है और एक बेड़े (फ्लोट) पर रखकर जुलूस के रूप में पूरे गांव या नगर में घुमाया जाता है। शोभायात्रा में पांच सशस्त्र गार्डों, जो ‘पंज प्यारों’ का प्रतिनिधित्व करते हैं, अगुवाई करते हैं। निशान साहब, अथवा उनके तत्व को प्रस्तुत करने वाला सिक्ख ध्वज भी साथ में चलता है। पूरी शोभायात्रा के दौरान गुरुवाणी का पाठ किया जाता है, अवसर की विशेषता को दर्शाते हुए, धार्मिक भजन गाए जाते हैं।
गुरुनानक देव एक महापुरुष व महान धर्म प्रवर्तक थे जिन्होंने विश्व से सांसारिक अज्ञानता को दूर कर आध्यात्मिक शक्ति को आत्मसात् करने हेतु प्रेरित किया। उनका कथन है- रैन गवाई सोई कै, दिवसु गवाया खाय। हीरे जैसा जन्मु है, कौड़ी बदले जाय। उनकी दृष्टि में ईश्वर सर्वव्यापी है और यह मनुष्य जीवन उसकी अनमोल देन है, इसे व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। उन्हें हम धर्मक्रांति के साथ-साथ समाजक्रांति का प्रेरक कह सकते हैं। उन्होंने एक तरह से सनातन धर्म को ही अपने भीतरी अनुभवों से एक नयेे रूप में व्याख्यायित किया। उनका जोर इस बात पर रहा कि एक छोटी-सी चीज भी व्यक्ति के रूपांतरण का माध्यम बन सकती है। वे किसी ज्ञी शास्त्र को नहीं जानते थे, उनके अनुसार जीवन ही सबसे बड़ा शास्त्र है। जीवन के अनुभव ही सच्चे शास्त्र है। शास्त्र पुराने पड़ जाते हैं, लेकिन जीवन के अनुभव कभी पुराने नहीं पड़ते।
गुरुनानकजी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे । आपके स्वभाव में चिंतनशीलता थी तथा आप एकांतप्रिय थे। आपका मन स्कूली शिक्षा की अपेक्षा साधु-संतों व विद्वानों की संगति में अधिक रमता था । बालक नानक ने संस्कृत, अरबी व फारसी भाषा का ज्ञान घर पर रहकर ही अर्जित किया। इनके पिता ने जब पुत्र में सांसारिक विरक्ति का भाव देखा तो उन्हें पुनः भौतिकता की ओर आसक्त करने के उद्देश्य से पशुपालन का कार्य सौंपा। फिर भी नानकदेव का अधिकांश समय ईश्वर भक्ति और साधना में व्यतीत होता था।
नानक के बचपन में ही अनेक अद्भुत घटनाएँ घटित हुईं जिनसे लोगों ने समझ लिया कि नानक एक असाधरण बालक है। पुत्र को गृहस्थ जीवन में लगाने के उद्देश्य से पिता ने जब उन्हें व्यापार हेतु कुछ रुपए दिए तब उन्होंने समस्त रुपए साधु-संतों व महात्माओं की सेवा-सत्कार में खर्च कर दिए। उनकी दृष्टि में साधु-संतों की सेवा से बढ़कर लाभकारी सौदा और कुछ नहीं हो सकता था ।
एक और घटना है- नानक ग्रीष्म ऋतु की चिलचिलाती धूप में किसी ग्राम में गए। वहाँ वे गर्मी से बेहाल विश्राम करने के लिए बैठ गए। उन्हें कब नींद आ गई पता ही नहीं चला क्योंकि एक बड़े सर्प ने अपना फन फैलाकर उन्हें छाया प्रदान कर दी थी। गाँववाले यह दृश्य देखकर स्तब्ध रह गए। गाँव के मुखिया ने उन्हें देवस्वरूप समझकर प्रणाम किया। तभी से नानक के नाम के आगे ‘देव‘ शब्द जुड़ गया। वे कालांतर में ‘गुरु नानकदेव‘ के नाम से विख्यात हुए। एक अन्य रोचक घटना में उनके पिता ने उन्हें गृहस्थ आश्रम की ओर ध्यानाकर्षित करने के लिए तत्कालीन नबाव लोदी खाँ के यहाँ नौकरी दिलवा दी। वहाँ उन्हें भंडार निरीक्षक की नौकरी प्राप्त हुई। परंतु नानक वहाँ भी साधु-संतों पर बेहिसाब खर्च करते रहे। इसकी शिकायत नवाब तक पहुँची तब उसने नानक के खिलाफ जाँच के आदेश दे दिए। परंतु आश्चर्य की बात यह थी कि उस जाँच में कोई कमी नहीं पाई गई। एक बार नानकदेव भ्रमण के दौरान मक्का पहुँचे। वह थकान के कारण काबा की ओर पैर करके सो गए। जब वहाँ के मुसलमानों ने यह दृश्य देखा तो वे अत्यधिक क्रोधित हुए। चमत्कार उस समय घटित हुआ जब लोग उनका पैर जिस दिशा में करते उन्हें उसी दिशा में काबा के दर्शन होते। यह देखकर सभी ने उनसे श्रद्धापूर्वक क्षमा माँगी।
गुरु नानकदेव एक महान पवित्र आत्मा थे, वे ईश्वर के सच्चे प्रतिनिधि थेे। आपने ‘गुरुग्रंथ साहब’ नामक ग्रंथ की रचना की । यह ग्रंथ पंजाबी भाषा और गुरुमुखी लिपि में है । इसमें कबीर, रैदास व मलूकदास जैसे भक्त कवियों की वाणियाँ सम्मिलित हैं। 70 वर्षीय गुरुनानक सन् 1539 ई॰ में अमरत्व को प्राप्त कर गए। परन्तु उनकी मृत्यु के पश्चात् भी उनके उपदेश और उनकी शिक्षा अमरवाणी बनकर हमारे बीच उपलब्ध हैं जो आज भी हमें जीवन में उच्च आदर्शों हेतु प्रेरित करती रहती हैं। सतगुरु नानक प्रगटिया, मिटी धुन्ध जग चानण होया” सिख धर्म के महाकवि भाई गुरदासजी ने गुरु नानक के आगमन को अंधकार में ज्ञान के प्रकाश समान बताया।
गुरुनानक देवजी ने स्वयं किसी धर्म की स्थापना नहीं की। उनके बाद आये गुरुओं से अपने समय की स्थितियों को देखकर सिख पंथ की स्थापना की। उनका उद्देश्य भी भारतीय धर्म और संस्कृति की रक्षा करना ही था। श्री गुरुनानक देव जी का जीवन सदैव समाज के उत्थान में बीता। उस समय का समाज अंधविश्वासों और कर्मकांडों के मकड़जाल में फंसा हुआ था। कहने को लोग भले ही समाज की रीतियां निभा रहे थे पर अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिये उनके पास कोई ठोस योजना नहीं थी। इधर सामान्य लोग भी अपने कर्मकांडो में ऐसे लिप्त रहे कि उनके लिये ‘कोई नृप हो हमें का हानि’ की नीति ही सदाबहार थी। ऐसे जटिल दौर में गुरुनानक देवजी ने प्रकट होकर समाज में अध्यात्मिक चेतना जगाने का जो काम किया, वह अनुकरणीय है। वैसे महान संत कबीर भी इसी श्रेणी में आते हैं। हम इन दोनों महापुरुषों का जीवन देखें तो न वह केवल रोचक, प्रेरणादायक और समाज के लिये कल्याणकारी है बल्कि संन्यास के नाम पर समाज से बाहर रहने का ढोंग करते हुए उसकी भावनाओं का दोहन करने वाले ढोंगियों के लिये एक आईना भी है।
श्री गुरुनानक देवजी के सबसे निकटस्थ शिष्य मरदाना को माना जाता है जो कि जाति से मुसलमान थे। आप देखिये नानक देवजी के तप का प्रभाव कि मरदाना ने अपना पूरा जीवन गुरुनानकजी के सेवा में गुजारा। इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि मरदाना ने कभी अपना धर्म छोड़ने या पकड़ने का नाटक किया। सैकडों साल पुराने सामाजिक सच, आज के सच हों, यह जरूरी नहीं है। अतः सत्य की खोज के लिए गतिशीलता एवं विवेक की अपेक्षा है। कर्तव्य एवं प्रगति से मुंह मोड़ लेने का संबंध धर्म-दर्शन या अध्यात्म से जोड़ना भ्रम है, अज्ञान का परिचायक है। भेड़ें मिमियाती भर हैं, झूठ नहीं बोलतीं, खरगोश किसी की हिंसा नहीं करते, पर इतने मात्र से उन्हें सत्यवादी या अहिंसक नहीं कहा जा सकता। अंधे, बहरे और गूंगे न अशुभ देखते हैं, न अशुभ सुनते हैं और न अशुभ बोलते हैं फिर भी उन्हें धार्मिक या साधक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि धर्म स्वतंत्र चेतना से विवेक और वैराग्य के तटों के मध्य प्रवाहित होने वाला व पुरुषार्थ से प्रदीप्त ज्ञान ज्योति का निर्मल झरना है और इसी झरने को गुरुनानक देव ने प्रवाहित किया। उन्होंने परम चक्षु-अंतर्दृष्टि को जगा और श्रेष्ठताओं के संवर्धन हेतु विशिष्ट पराक्रम किया। इसका तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिक विकास हेतु विवेकयुक्त पुरुषार्थ की नितांत अपेक्षा रहती है।
गुरुनानकजी का धर्म जड़ नहीं, सतत जागृति और चैतन्य की अभिक्रिया है। जागृत चेतना का निर्मल प्रवाह है। उनकी शिक्षाएं एवं धार्मिक उपदेश अनंत ऊर्जा के स्रोत हैं। शोषण, अन्याय, अलगाव और संवेदनशून्यता पर टिकी आज की समाज व्यवस्था को बदलने वाला शक्तिस्रोत वही है। धर्म के धनात्मक एवं गतिशील तत्व ही सभी धर्म क्रांतियों के नाभि केन्द्र रहे हैं। वे ही व्यक्ति और समाज के समन्वित विकास की रीढ़ है। ये व्यक्ति के शरीर, मन, प्राण और चेतना को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति-व्यक्ति का स्वस्थ तन, स्वस्थ मन और स्वस्थ जीवन ही स्वस्थ समाज की आधारिशला है और ऐसी ही स्वस्थ जीवन पद्धति एवं धर्म का निरुपण गुरुनानक देव न किया है।
(ललित गर्ग)
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