राजनांदगांव। शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय के हिंदी विभाग के राष्ट्रपति सम्मानित प्राध्यापक, सामाजिक सचेतक और अक्षर आदित्य अलंकरण से विभूषित सतत सृजनरत प्रखर वक्ता डॉ.चन्द्रकुमार जैन ने बिलासपुर के पंडित सुंदरलाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय में आयोजित शाश्वत भारत राष्ट्रीय संगोष्ठी में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानव दर्शन पर विशिष्ट व्याख्यान देकर श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। सत्र की अध्यक्षता दुर्ग विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.एन.पी. दीक्षित के की। आयोजन के संरक्षक तथा पंडित सुंदरलाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. बंश गोपाल सिंह ख़ास तौर पर उपस्थित रहे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के विजिटिंग प्रोफ़ेसर डॉ. डी.पी.कुइटी सहभागी अतिथि वक्ता थे।अनेक विश्वविद्यालयों कुलपति, प्राध्यापक, प्रमुख सम्पादक, संस्कृति चिंतक, दर्शनवेत्ता,सामाजिक क्षेत्र के विशिष्ट व्यक्तित्व, गणमान्य जन सहित उत्साही युवा पीढ़ी की शानदार मौजूदगी में यह भव्य आयोजन हुआ।
यह गरिमामय आयोजन मुक्त विश्विद्यालय और छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति विभाग के तत्वावधान में आईसीएसएसआर, नई दिल्ली के विशेष सहयोग से किया गया। आरम्भ में विश्वविद्यालय के कुलसचिव डॉ. राजकुमार सचदेव ने आयोजन समिति की तरफ से डॉ. जैन का पौध भेंट कर आत्मीय स्वागत किया। बाद में सर्वप्रथम विशिष्ट वक्ता डॉ. चंद्रकुमार जैन की अहम सेवाओं तथा उपलब्धियों की चर्चा करते हुए उन्हें व्याख्यान देने आमंत्रित गया। डॉ. जैन ने गीता के एक श्लोक का सस्वर पाठ करते हुए कहा कि राष्ट्रधर्म और संस्कृति की प्रतिष्ठा में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म चिंतन की भूमिका निराली है। भारतीय संस्कृति तथा राष्ट्र के वास्तविक स्वरूप को समझने और इनके बीच तालमेल बनाकर विश्व कल्याण और विश्व शांति की नयी दिशाओं की खोज के महान उद्देश्य में उनके विचारों की ज़रुरत आज पहले से कहीं ज्यादा है।
डॉ. चन्द्रकुमार जैन ने आचार्य विद्यासागर जी महाराज की मूकमाटी की पंक्तियों सहित मानस मर्मज्ञ डॉ. बलदेवप्रसाद मिश्र जी के उदगार का उल्लेख करते हुए कहा कि समाज के ट्रस्ट की समृद्धि के लिए ही मानव जीवन मिलता है। इसे पंडित दीनदयाल जी ने संघर्षपूर्ण जीवन में साकार कर दिखाया। उन्होंने कहा कि एकात्म मानववाद में संस्कृति के विराट रूप को मनुष्य और राज्य व्यवस्था में साकार होते देखा जा सकता है। वे सच्चे अर्थ में भारतीय संस्कृति के सच्चे अग्रदूत थे। भारतीयता के प्रतिमान थे। माँ भारती के अक्षर-वैभव की सीधी-सच्ची पहचान और अखंड भारत देश गौरव-गान थे।
डॉ. जैन ने आगे कहा कि पंडित दीनदयाल जी ने जब धर्म को संस्कृति से जोड़कर, मनुष्य की सोच को नई दिशा में मोड़कर, संकुचित राष्ट्रीयता से नाता तोड़कर, चिंतन और जीवन दर्शन को जीने की मानवतावादी कला का नया रूप देने की कोशिश की तब आश्चर्य नहीं कि उन्हें एकबारगी शक की निगाहों से देखा गया। किन्तु, वे जूझते रहे और लोग उनके साथ आते गए। दूसरी तरफ लोग ऐसे भी मिले जो उनके कार्यों की आलोचना करने से भी बाज नहीं आए। फिर क्या, तमाम सवालों के जवाब यकायक देने के बदले उन्होंने जो राह चुनी थी उस पर चलते जाने के संकल्प के साथ पंडित जी ने धीरज का दामन थामा और जैसे दुनिया वालों से कह दिया कि एकात्म मानवतावाद व्यक्ति के विभिन्न रूपों और समाज की अनेक संस्थाओं में स्थायी संघर्ष या हित विरोध नहीं मानता। पर याद रहे कि वह भारतीय संस्कृति में एकता को देखती है।
तीस मिनट के धाराप्रवाह सम्बोधन में डॉ. जैन ने स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, राष्ट्रकवि दिनकर जैसे मनीषियों के उदगारों का प्रसंग के अनुरूप सुन्दर उल्लेख किया। अंत में डॉ. जैन ने कहा पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है। वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है। इसकी रक्षा और प्रसार हम सबकी जिम्मेदारी है। डॉ. जैन ने अखंड मानवता के लिए पंडित दीनदयाल जी के योगदान को अत्यंत प्रभावी, तर्कपूर्ण और संतुलित शब्दों में वाणी दी और विश्वविद्यालय का विशाल सभागृह हर्ष ध्वनि से लगातार गूंजता रहा। आयोजन समिति ने डॉ. जैन को सम्मान प्रतीक चिन्ह भेंट किया।