मछलीपट्टनम आंध्र प्रदेश के तट पर स्थित सबसे पुराने बंदरगाहों में से एक है। बहुत कम लोगों को पता होगा कि 150 साल पहले मछलीपट्टनम एक ऐतिहासिक वैज्ञानिक खोज का गवाह बना था, जिससे विज्ञान की खगोल भौतिकी नामक एक नई शाखा की शुरुआत हुई।
मछलीपट्टनम में ही पहली बार एक नए तत्व हीलियम से निकलने वाली रोशनी की झलक दुनिया को मिली थी। हीलियम से भरे हुए गुब्बारे आज आम हो गए हैं, लेकिन डेढ़ सौ साल पहले इस गैस के बारे में जानकारी नहीं थी। हीलियम की मौजूदगी से जुड़े संकेत किसी रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला के बजाय सूर्य ग्रहण के दौरान सूर्य कोरोना यानी सूरज की बाहरी परत को देखने के दौरान मिले थे।
खगोलविदों के बीच 18 अगस्त, 1868 में हुए पूर्ण सूर्य ग्रहण को लेकर बेहद उत्साह था क्योंकि इसकी वजह से उन्हें सूर्य के बाहरी हिस्से को देखने का मौका मिलने जा रहा था। इसके बाद ही वैज्ञानिकों के लिए सूर्य में हीलियम की मौजूदगी का पता लगाना संभव हो सका। यही कारण है कि इस तरह खोजे गए नए तत्व का नाम सूर्य के लिए उपयोग होने वाले ग्रीक भाषा के शब्द ‘हेलिऑस’ से जोड़कर रखा गया।
यह ग्रहण 6 मिनट 47 सेकंड के लिए भारत के दक्षिणी भूभाग से दिखाई पड़ा था। पूर्ण सौर ग्रहण के दौरान पृथ्वी और सूर्य के बीच चंद्रमा के आने से सूर्य का प्रमुख चमकीला हिस्सा छिप जाता है। सूर्य के प्रमुख हिस्से के छिप जाने पर ही कोरोना को आसमान में चमकते देखा जा सकता है। सौर कोरोना सूर्य की आभा को कहते हैं, जिसे सूर्य के तेज के कारण सामान्य स्थिति में देख पाना संभव नहीं होता। सूर्य ग्रहण के दौरान ही कोरोना को देखा जा सकता है।
खगोलविद वर्ष 1868 के इस पूर्ण सौर ग्रहण के दौरान कोरोना का अध्ययन करने की उम्मीद लगाकर बैठे थे। इसके पीछे कुछ विशेष कारण थे। हम जानते हैं कि प्रीज्म अलग-अलग रंगों में सूर्य की किरणों को बिखेर देता है। बारीकी से देखें तो पृष्ठभूमि के इंद्रधनुषी रंगों पर कई उभरी हुई गहरी रेखाएं दिखाई पड़ती हैं। उस समय तक यह स्पष्ट नहीं था कि ये गहरी रेखाएं कहां से पैदा हो रही हैं।
पॉग्सन द्वारा देखे गए स्पेक्ट्रम का हाथ से बनाया गया चित्र (बाएं) और वैज्ञानिक पॉग्सन (दाएं), चित्र : भारतीय ताराभौतिकी संस्थान
” मछलीपट्टनम में ही पहली बार एक नए तत्व हीलियम से निकलने वाली रोशनी की झलक दुनिया को मिली थी। हीलियम से भरे हुए गुब्बारे आज आम हो गए हैं, लेकिन डेढ़ सौ साल पहले इस गैस के बारे में जानकारी नहीं थी। ”
जिस भूभाग से पूर्ण सूर्य ग्रहण को देखा जा सकता था, उसका एक हिस्सा भारत के वर्तमान आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में स्थित था। इस घटना के इंतजार में रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी के खगोलविदों की एक टीम मेजर जेम्स फ्रांसिस टेनेंट के नेतृत्व में मछलीपट्टनम में शिविर लगाकर बैठ गई। पियरे जुल्स जैनसेन नामक एक अन्य फ्रांसीसी खगोलविद भी मछलीपट्टनम पहुंच गए, जिन्होंने उस समय सर्वश्रेष्ठ ‘स्पेक्ट्रोस्कोप’ डिजाइन किया था, जिसके उपयोग से स्पेक्ट्रम में आसन्न रंगों की रेखाओं में अंतर किया जा सकता था। उधर, मद्रास वेधशाला से जुड़े खगोलविद नॉर्मन रॉबर्ट पॉग्सन ने रेलवे और नव स्थापित टेलीग्राफ विभाग के इंजीनियर्स की टीम को इस अभियान के लिए एकत्रित कर लिया।
जर्मन वैज्ञानिकों गुस्ताव किरचॉफ और रॉबर्ट बन्सन द्वारा वर्ष 1859 में प्रस्तावित एक सिद्धांत ‘सभी पदार्थों को गर्म करने पर उनमें से विशेष रंगों का विकिरण होता है’ की पुष्टि के लिए वैज्ञानिकों का यह जमावड़ा मछलीपट्टनम में एकत्रित हुआ था। प्रिज्म से गर्म चमकती गैस को देखें तो सभी इंद्रधनुषी रंग नहीं दिखाई देते, बल्कि गहरे रंग की कुछ चमकदार ‘रेखाएं’ दिखाई देती हैं, जो उस तत्व के विशिष्ट रंगों की चमक होती है। गैस के ठंडा होने पर उसे सफेद रोशनी के पार्श्व मार्ग में रखें तो ठंडी गैस उन रंगों के प्रकाश को अवशोषित कर लेती है, जिनका गर्म होने पर विकिरण होता है। ऐसे में सफेद स्रोत की पृष्ठभूमि के स्पेक्ट्रम में गहरे रंग की रेखाएं देखी जा सकती हैं।
किरचॉफ और बन्सन के सिद्धांत के अनुसार, सौर स्पेक्ट्रम में गहरे रंग की रेखाएं सौर वातावरण में मौजूद शीतल परमाणुओं से उत्पन्न होती हैं, जो सूर्य के केंद्र से निकलने वाले सफेद प्रकाश को अवशोषित कर लेती हैं। इसका एक अर्थ यह भी था कि सौर वातावरण में मौजूद पदार्थों की पहचान इस प्रकार की जा सकती है। इस तरह खगोलविदों को सूर्य और अन्य तारों के भौतिक तथा रासायनिक गठन के बारे में पता लगाने के लिए एक दिशा मिल गई। तारों की स्थिति तथा उनकी गति से आगे बढ़कर वैज्ञानिक विज्ञान की एक ऐसी शाखा की ओर बढ़ रहे थे, जिसे भविष्य में खगोल भौतिकी कहा गया।
फिलहाल यह भी एक अप्रमाणित मॉडल था। सौभाग्य से, सभी अच्छे सिद्धांतों की तरह, इस सिद्धांत की उत्पत्ति परीक्षण योग्य भविष्यवाणी के साथ हुई थी। 18 अगस्त, 1868 को खगोलविद पूर्ण सौर ग्रहण के दिन इसी की पुष्टि करने की उम्मीद लगाए बैठे थे। अचानक उन्हें मानों खजाना मिल गया। उन्हें गहरे रंग की रेखाओं के बजाय चमकीली रेखाएं दिखाई पड़ीं। इसके अलावा उन्हें एक नई चमकदार रेखा भी देखने को मिली, जिसकी पहचान किसी स्थलीय तत्व के रूप में नहीं हुई थी। वैज्ञानिक उसे पहचान नहीं सके।
मानसून के कारण भारत में अगस्त के महीने को सूर्य ग्रहण देखने के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है। वह पूर्ण सूर्य ग्रहण सुबह नौ बजे से थोड़ा पहले शुरू होने वाला था और मछलीपट्टनम के आकाश में हल्के बादलों ने खगोलविदों की बेचैनी बढ़ा दी थी। सौभाग्य से आसमान साफ हो गया और जैनसेन एवं टेनेंट किरचॉफ के आइडिया के गवाह बन गए। गहरे रंग की रेखाएं सचमुच चमकीली रेखाओं में परिवर्तित हो गई। उनमें पीले रंग की चमकीली रेखा थी, जिसे वे सोडियम का संकेत मान रहे थे। लेकिन, पॉग्सन को संदेह था कि क्या यह वास्तव में सोडियम के प्रतीक तरंग दैर्ध्य से मेल खाता है!
दूसरी ओर इंग्लैंड के खगोलविद नॉर्मन लॉकियर का एक अलग विचार था। उन्होंने सोचा कि सूर्य की बाहरी परत की रोशनी को किसी तरह दूरबीन के दृश्य में सबकुछ अवरुद्ध करके सावधानी से तैनात छोटे स्लिट को छोड़कर अलग कर सकते हैं। जब लॉकियर को अक्तूबर में अपनी दूरबीन मिली, तो उन्होंने पॉग्सन के संदेह की पुष्टि की कि पीले रंग की रेखा सोडियम के कारण नहीं हो सकती है, और उन्होंने इसे ‘हीलियम’ नाम दिया। काफी समय वर्ष 1895 में, विलियम रामसे ने एक रेडियोधर्मी पदार्थ से एक तत्व अलग किया, जिसमें एक ही वर्णक्रमीय हस्ताक्षर था, और इसलिए हीलियम के रूप में उसे पहचाना जा सका। हीलियम एकमात्र ऐसा तत्व है, जिसे रसायन विज्ञानियों के बजाय खगोलविदों ने खोजा है।
( साभार- India Science Wire)