Sunday, November 24, 2024
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स्व. विष्णु खरेः जीवन भर खरे ही रहे

हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष, हिंदी के प्रख्यात कवि, वरिष्ठ साहित्यकारऔर पत्रकार विष्णु खरे का बुधवार को निधन हो गया। वह 78 वर्ष के थे। 12 सिंतबर की सुबह उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ था। इसके बाद उनका इलाज दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में चल रहा था। वह आइसीयू में भर्ती थे। ब्रेन स्ट्रोक होने के चलते उनके शरीर के अंगों ने कार्य करना बंद कर दिया था।

हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने के बाद कुछ दिन से वह दिल्ली में रह रहे थे। कवि व पत्रकार विष्णु खरे नाइट ऑफ द व्हाइट रोज सम्मान, हिंदी अकादमी साहित्य सम्मान, शिखर सम्मान आदि से सम्मानित किए जा चुके हैं। मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में जन्मे विष्णु खरे कवि के साथ ही अनुवादक, फिल्म आलोचक, पटकथा लेखक भी रहे हैं। वह अंग्रेजी के प्रोफेसर रह चुके थे और जर्मन भाषा के जानकार थे। एक तरह से वह हिंदी और जर्मन के बीच एक पुल की तरह भी थे। जर्मन विद्वान लोठार लुत्से से उनकी काफी अच्छी मित्रता थी और उनके साथ मिलकर उन्होंने कुछ कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया था।

क हफ्ते पहले जब उन्हें ब्रेन हैम्रेज हुआ, तब वे घर पर अकेले ही थे। ब्रेन हेमरेज की वजह से उनके शरीर का एक भाग पैरालेसिस से ग्रस्त था और वे कोमा में भी थे। अस्पताल प्रबंधन के मुताबिक, विष्णु खरे के ट्रीटमेंट में कई सीनियर डॉक्टर तैनात थे और न्यूरो सर्जरी डिपार्टमेंट के दो सीनियर ऑफिसर उनकी हालत पर नजर बनाए हुए थे।

मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में जन्मे विष्णु खरे कवि के साथ ही अनुवादक, फिल्म आलोचक, पटकथा लेखक और पत्रकार भी रहे हैं। विष्णु खरे के निधन की खबर आने के बाद साहित्य जगत के लोग सोशल मीडिया पर उन्हें याद करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

युवावस्था के दौरान उच्चशिक्षा प्राप्त करने के लिए वे छिंदवाड़ा से इंदौर आ गए थे। इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एमए किया और इसके बाद उन्होंने हिंदी पत्रकारिता से अपने करियर की शुरुआत की। वे 1962 से 1963 तक इंदौर से प्रकाशित दैनिक इंदौर समाचार में बतौर उप-संपादक कार्यरत रहे। इसके बाद वे 1963 से 1975 तक मध्यप्रदेश और दिल्ली के कॉलेजों में बतौर प्राध्यापक अध्यापन का कार्य भी किया।

मध्य प्रदेश से दिल्ली आने के बाद विष्णु खरे केंद्रीय साहित्य अकादमी में उपसचिव के पद पर भी आसीन रहे। इसी बीच वे कवि, समीक्षक और पत्रकार के रूप में भी प्रतिष्ठित होते गए।इसी दौरान खरे दिल्ली से प्रकाशित हिंदी के अखबार नवभारत टाइम्स भी जुड़े रहे। नवभारत टाइम्स में उन्होंने प्रभारी कार्यकारी संपादक और विचार प्रमुख के अलावा इसी पत्र के लखनऊ और जयपुर संस्करणों के संपादक का भी उत्तरदायित्व संभाला। वे टाइम्स ऑफ इंडिया में वरिष्ठ सहायक संपादक भी कार्यरत रहे। इसके अलावा उन्होंने जवाहरलाल नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय में दो साल तक वरिष्ठ अध्येता के रूप में भी काम किया। उन्होंने नवभारत टाईम्स में 9 सितंबर को अपना अंतिम ब्लॉग लिखा जिसमें उन्होंने अमेजान द्एवारा बनाई गई फिल्म ‘ए रेनी डे इन न्यूयॉर्क’ फिल्म की समीक्षा लिखी है।

वे हिंदी साहित्य की प्रतिनिधि कविताओं की सबसे अलग और प्रखर आवाज थे। उन्हें हिंदी साहित्य के नाइट ऑफ द व्हाइट रोज सम्मान, हिंदी अकादमी साहित्य सम्मान, शिखर सम्मान, रघुवीर सहाय सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से सम्मानित किया गया था।

विष्णु खरे को हिंदी साहित्य में विश्व प्रसिद्ध रचनाओं के अनुवादक के रूप में भी याद किया जाता है। उन्होंने मशहूर ब्रिटिश कवि टीएस इलियट का अनुवाद किया और उस पुस्तक का नाम ‘मरु प्रदेश और अन्य कविताएं’है। उनकी रचनाओं में काल और अवधि के दरमियान, खुद अपनी आंख से, पिछला बाकी, लालटेन जलाना, सब की आवाज के पर्दे में, आलोचना की पहली किताब आदि शामिल है।

विष्णु खरे समकालीन कविता के सबसे जटिल, विलक्षण और शक्तिशाली कवि थे, जिन्होंने कविताएँ सिर्फ लिखी ही नहीं, बल्कि अपने बाद में आने वाले कवियों की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया है। एक तरह से विष्णु खरे की कविताएँ समकालीन हिन्दुस्तानी समाज का आईना ही नहीं, ‘इतिहास’ भी हैं। मुक्तिबोध की तरह ही विष्णु खरे सिर्फ सच का ईमानदार से पीछा करती कविताओं के कारण ही नहीं, बल्कि अपने विचारों, आलोचनात्मक लेखों तथा साहित्य, समाज और राजनीति पर अपनी एकदम मौलिक किस्म की टिप्पणियों के लिए भी जाने जाते हैं।

यहाँ उनसे प्रेरणा या कहें ‘रोशनी’ पाने वाले कवियों, लेखकों, पाठकों की एक लम्बी कतार है।

बरसों से विष्णु खरे के निकट रहे प्रकाश मनु की पुस्तक ‘एक दुर्जेय मेधा विष्णु खरे’ इस विलक्षण कवि को नजदीक से देखने-जानने के लिए ‘एक अति संवेदी आईने’ सरीखी है, जिसे पढ़ लेने का मतलब विष्णु जी के भीतर-बाहर की तमाम हलचलों का गवाह होने के साथ-साथ, अपने जाने हुए कवि को फिर से एक नये रूप में जानना है। इसलिए कि यह पुस्तक जाने हुए विष्णु खरे के साथ-साथ, अभी तक न जाने गये विष्णु खरे की खोज की बेचैनी से ही उपजी है। विष्णु खरे का लम्बा बहुचर्चित आत्कथ्य ‘मैं और मेरा समय’ भी इस पुस्तक में है जो विष्णु जी की आत्मकथा के पन्नों को कविता की-सी हार्दिकता में खोलता है। विष्णु खरे को समग्रता से देखने-जानने के उत्सुक लेखकों-पाठकों को यह पुस्तक ज़रुर पढ़ना चाहिए, ये पुस्तक नहीं समय की गति पर एक हस्ताक्षर है जिसमें पाठक रचनाकार के माध्यम से एक नए युगबोध में प्रवेश करता है।

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