नई दिल्ली.मीराँबाई की संघर्ष-यात्रा को केन्द्र में रखकर लिखे गए उपन्यास ‘रंग राची’ का लोकार्पण 27 जुलाई, सोमवार को शाम पांच बजे साहित्य अकादमी सभागार में किया जाएगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह करेंगे। मुख्य अतिथि विश्वनाथ त्रिपाठी तथा विशिष्ट अतिथि सत्य नारायण समदानी के साथ-साथ सुप्रसिद्ध कथाकार चंद्रकांता व सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका, मीराँबाई की संघर्ष यात्रा पर अपने विचार श्रोताओं से साझा करेंगीं ।
लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित, मीराबाई के संघर्षपूर्ण जीवन को उद्घटित करती यह पुस्तक 'रंग-राची' को लेकर साहित्य जगत में खूब चर्चा है। उपन्यास में मीरा के जीवन को अपनी लेखकीय दृष्टि से देखते हुए सुधाकर अदीब लिखते हैं , "मीराँ को साधु-संतों, भक्तों और जनसाधारण में नारायण का वास दिखता था। वह एक ऐसी स्त्री थीं जो कि एक राजकुल में जन्मीं और दूसरे राजकुल में ब्याही गयीं। उन्होंने सामंती व्यवस्था का वैभव व तिरस्कार दोनों भोगा, सहा और उसे तृण सम त्याग दिया। कृष्ण तो स्वयं मीराँ के भीतर समाये हुए थे। वे क्या उनमें समातीं ? हाँ, कृष्ण का कीर्त्तन करती वह जन-जन में जीवनपर्यंत बिचरीं।"
दरअसल मीराँ का चरित्र स्त्री स्वतंत्रता और मुक्ति का सजीव उदाहरण है। उन्होने जीवनपरयन्त तात्कालिन सामन्ती प्रथा को खुली चुनौती दी। वह अपने अपूर्व धैर्य के साथ उन तमाम कुप्रथाओं का सामना करती रहीं जो स्त्रियों को लौह कपाटों के पीछे ढ़केलने और उसे पत्थर की दीवारों की बन्दिनी बनाकर रखने, पति के अवसान के बाद जीते जी जलाकर सती कर देने, न मानने पर स्त्री का मानसिक और दैहिक शोषण करने की पाशविक प्रवृत्तियों थीं। मीराँ का सत्याग्रह अपने युग का अनूठा एकाकी आंदोलन था जिसकी वही अवधारक थीं, वही जनक थीं और वहीं संचालक। मीराँ ने स्त्रियों के संघर्ष के लिए जो सिद्धांत निर्मित किये उन पर सबसे पहले वे ही चलीं।
लेखक सुधाकर अदीब का कहना है कि आज के समय में 'रंग-राची' उपन्यास की प्रासंगिकता कहीं अधिक है। आज हमारे सामने यह प्रश्न फिर से खड़ा होता है कि कब तक समाज में हर एक मीराँ को यूँ ही कुप्रथाओं औऱ सामंती बेड़ियों में जकड़ा जाएगा?कब तक उसे समाज की खातिर, कूल की रक्षा की खातिर जहर पीना पड़ेगा। और भी प्रश्नों का जबाव देता यह उपन्यास पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
आशुतोष कुमार सिंह
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(स्टार न्यूज़ एजेंसी)