बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व विजयदशमी का जश्र मना रहे देशवासियों को एक बार फिर उस समय गहरा सदमा पहुंचा जबकि देश में चारों ओर से रावण दहन के समाचार आने के साथ-साथ अमृतसर के उस हादसे की दर्दनाक खबर सुनाई दी जिसमें कि रावण दहन देखने आए अनेक लोग तेज़ रफ़्तार से आती हुई ट्रेन की चपेट में आ गए।निश्चित रूप से हादसे के शिकार लोगों या उस आयोजन से जुड़े लोगों को ही नहीं बल्कि पूरे देश को इस समाचार से बहुत सदमा पहुंचा। खुशियों व जश्र के माहौल के बीच इस प्रकार की कोई भी घटना अथवा दुर्घटना नि:संदेह रंग में भंग घोलने का ही काम करती है। बहरहाल ईश्वर की मंजूरी को कोई टाल ही नहीं सकता। इस दुर्घटना के बाद भी वही हुआ जो हमारे देश में हमेशा होता आया है। यानी घटना की ज़िम्मेदारी किसकी है, इसे लेकर आरोपों व प्रत्यारोपों का दौर शुरु हो गया। चूंकि पंजाब में कांग्रेस की सरकार है और हादसे के समय होने वाले रावण दहन आयोजन में मुख्य अतिथि पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की विधायक पत्नी नवजोत कौर थीं तथा कांग्रेस के एक स्थानीय पार्षद आयोजन समिति के प्रमुख थे
इसलिए भारतीय जनता पार्टी व अकाली दल के नेताओं ने आयोजन कर्ताओं, आयोजन की अनुमति, श्रीमती सिद्धू के कथित रूप से हादसे के बाद कार्यक्रम छोड़कर चले जाने, रेलवे लाईन के किनारे आयोजन करने के औचित्य जैसे सवाल खड़े करने शुरु कर दिए तो दूसरी ओर कांग्रेस के लोग रेल विभाग को हादसे का ज़िम्मेदार बताते हुए केंद्र सरकार पर निशाना साधने लगे। जबकि रेल विभाग ने इस हादसे की ज़िम्मेदारी लेने से यह कहकर इंकार किया कि दुर्घटना के शिकार लोगों द्वारा रेल की ज़मीन पर अनधिकृत रूप से घुसपैठ की गई थी जिसके परिणामस्वरूप यह हादसा पेश आया। रेल विभाग द्वारा यह भी कहा गया कि चूंकि हादसे में मरने वाले लोग रेल यात्री नहीं थे इसलिए रेलवे द्वारा उन्हें मुआवज़ा दिए जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। जबकि पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेंद्र सिंह ने मृतकों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपये दिए जाने की घोषणा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर डाली।
परंतु इस हादसे के बाद एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि क्या हमारे देश में मानव जीवन का मूल्य इतना सस्ता है कि जिस समय कोई दुर्घटना घटती है उस समय पक्ष-विपक्ष के लोग एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराएं, मुआवज़े घोषित किए जाएं और दुर्घटना के वर्तमान अध्याय को बंद कर किसी अगले हादसे का इंतज़ार किया जाए? अमृतसर में 19 अक्तूबर की शाम को हुई दुर्घटना हमारे देश की कोई पहली दुर्घटना नहीं है।भारतवर्ष में अब तक सैकड़ों ऐसे हादसे हो चुके हैं जिसमें सामूहिक रूप से बड़ी संख्या में लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी हैं। हरिद्वार व इलाहाबाद में कुंभ के मेलों के दौरान रेलवे स्टेशन पर,पटना में 2014 में इसी विजयदशमी के दिन भगदड़ में और इसी प्रकार 2014-15 में झारखंड में, जनवरी 2011 में केरल के सबरीमाला मंदिर में तथा अनेक बड़े आयोजनों में भगदड़ अथवा किसी अन्य हादसे के कारण आम लोगों की मौतों के समाचार आते रहते हैं। और ऐसे हादसों के बाद हमारा देश फिर किसी नए हादसे की ख़बर से रूबरू हो जाता है। इन हादसों के बाद प्रशासन को ज़िम्मेदार ठहराना,आयोजन की अनुमति पर सवाल खड़ा करना या प्रशासनिक लापरवाही को ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश करना जैसी बातें इस प्रकार की दुर्घटनाओं से निजात दिलाने का स्थायी हल नहीं हैं।
सौभाग्य से मैं भी देश के उस श्री रामलीला क्लब बराड़ा का संयोजक हूं जो विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले का निर्माण गत् पंद्रह वर्षों से करता आ रहा है। पिछले सात वर्षों तक लगातार मेरे क्लब का यह आयोजन भी बराड़ा रेलवे स्टेशन के बिल्कुल समीप ही हुआ करता था। प्रशासन द्वारा अपनी शर्तों के अनुसार मुझे अनुमति भी प्रत्येक वर्ष दी जाती थी। लाखों लोगों की शिरकत रावण दहन के दिन होने के वजह से हज़ारों दर्शक रेलवे लाईन पर खड़े होकर ही रावण दहन का दृश्य देखते थे। परंतु ईश्वर की कृपा से आज तक कोई मामूली सा हादसा भी दरपेश नहीं आया। अमृतसर की घटना ने मुझे यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि ख़ुदा न ख़्वास्ता यदि बराड़ा में रावण दहन के दौरान कोई हादसा हो गया होता तो उस समय भी यही सवाल किए जाते कि आयोजन की अनुमति किसने दी,रेलवे लाईन के किनारे आयोजन क्यों किया गया? हादसे के लिए आयोजक ज़िम्मेदार या प्रशासन? आदि-आदि। पंरतु कोई भी यह कहने का साहस नहीं करता है कि जनता स्वयं खुद को सुरक्षित रखने के उपाय आख़िर क्यों नहीं करती? हमारे देश में हज़ारों बार ऐसी घटनाएं हुई हैं जबकि नदी को पार करती हुई कोई नाव केवल इसलिए डूब गई कि उसमें अत्यधिक यात्री सवार थे। अब इस घटना में नदी ज़िम्मेदार है या नाव चालक? या फिर डृबने वाले वे लोग जो बेसब्री और जल्दबाज़ी के चलते अपनी जान गंवा बैठे? रेल गाडिय़ां हमेशा अपनी ही पटरियों पर दौड़ती हैं और रेल की पटरियां रेलवे की ज़मीन पर ही बिछाई जाती हैं। यदि कोई दूसरा व्यक्ति या वाहन रेल की पटरी पर घुसपैठ करता है और किसी दुर्घटना का शिकार होता है तो वह उसकी ज़िम्मेदारी है न कि रेल विभाग की। परंतु हमारे देश के तथाकथित सजग व जागरूक नागरिक भी अक्सर रेल फाटक बंद होने के बावजूद अपनी मोटरसाईकल, स्कूटर, साईकल-रिक्शा व रेहड़ी आदि ग़ैर कानूनी रूप से निकाल का रेल फाटक पार करते हैं और अनेक हादसे होते रहते हैं।
स्वतंत्र भारत में अब तक हज़ारों ऐेसे हादसे हुए होंगे जिनमें ट्रेन से टकरा कर बसें, स्कूली बच्चों की बसें, ट्रैक्टर, कारें यहां तक कि बारात से भरी बसें व ट्रैक्टर-ट्रालियां तहस-नहस हो गईं। परंतु इन हादसों से भी शायद अभी तक सबक नहीं लिया गया। यही वजह है कि अभी भी इस प्रकार के दु:खदायी समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। कुंभ के मेलों में भगदड़ मचती है। तमाम लोग मारे जाते हैं। इन हालात में आप यह सवाल नहीं पूछ सकते कि मेले की अनुमति किसने दी थी। हां इतना ज़रूर है कि भीड़-भाड़ वाले स्थान पर पूर्व सूचना मिलने के बाद तथा आयोजन की अनुमति होने की स्थिति में क़ानून व्यवस्था सुनिश्चित करना पुलिस व प्रशासन की ज़िम्मेदारी है। परंतु इसके साथ-साथ जनता को भी यह सोचना होगा कि उसके द्वारा उठाया जाने वाला कोई भी क़दम उसके लिए ख़ुद कितना हितकारी अथवा प्रलयकारी है?
ऐसी दुर्घटनाओं से देश के लेागों को सबक़ लेना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सुरक्षा स्वयं सुनिश्चित करनी चाहिए। यदि आप सड़क के बीचो-बीच चल रहे हैं तो दुर्घटना का पूरा ख़तरा मोल ले रहे हैं। यदि आप रेलवे लाईन पर खड़े होकर कोई नज़ारा देख रहे हैं तो तेज़ रफ़्तार रेल गाड़ी आपको देखकर रुकने वाली नहीं क्योंकि तकनीकी दृष्टि से भी यदि तेज़ रफ्तार गाड़ी रोकने की कोशिश रेल ड्राईवर द्वारा की जाए तो कोई और भी बड़ी दुर्घटना हो सकती है जिससे रेल यात्रियों की जान भी ख़तरे में पड़ सकती है।
सरकारें इस प्रकार के हादसों में मुआवज़े तो ज़रूर दे देती हैं परंतु मुआवज़ों से उस मृतक व्यक्ति की वापसी नहीं हो सकती और प्रभावित परिवार अपने एक सदस्य से वंचित हो जाता है। लिहाज़ा देश को अब दुर्घटनाओं, मुआवज़ों व आरोपो-प्रत्यारोपों के पारंपरिक दौर से उबरने की ज़रूरत है तथा एक वास्तविक जागरूक नागरिक बनकर अपनी रक्षा स्वयं करने के उपाय सोचने की ज़रूरत है।
Tanveer Jafri ( columnist),
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