युवा नायक स्वामी विवेकानंद ऐसे संन्यासी थे, जो निरंतर समाज के उत्थान के लिए चिंतित रहते थे। दरअसल, स्वामीजी संन्यास की उस भारतीय दृष्टि एवं व्यवस्था के प्रतिनिधि थे, जिसके अनुसार संन्यास आश्रम एकांत में ईश्वर की खोज के लिए नहीं अपितु जो कुछ समाज से प्राप्त किया है, उसमें बढ़ोतरी कर समाज को लौटाने की अवस्था है। उस समय स्वामी विवेकानंद ने देखा कि समाज में शिक्षा की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। शिक्षा के अभाव में जीवन के सभी क्षेत्रों में भी अंधकार पसर गया था। इसलिए स्वामीजी ने शिक्षा का उजियारा फैलान के लिए निरंतर प्रयास किए। किंतु, वह शिक्षा को भारतीय दृष्टि से देखते थे। वह ‘मनी मेकिंग’ शिक्षा की बात नहीं करते, बल्कि ‘मैन मेकिंग’ शिक्षा को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध दिखते रहे। वह शिक्षा को व्यक्ति निर्माण का साधन मानते थे।
स्वामी विवेकानंद का स्पष्ट मानना था कि भारत का सबसे अधिक नुकसान किसी ने किया है तो वह अशिक्षा ने किया। मुट्ठीभर लोगों के मस्तिष्क तक शिक्षा के सीमित रह जाने से भी भारत का अनिष्ट हुआ है। इस संबंध में 24 अप्रैल १1897 को ‘भारती’ की सम्पादक सरला घोषाल को दार्जिलिंग से लिखे उनके पत्र को देखना होगा। स्वामीजी लिखते हैं- ‘भारत के सत्यानाश का मूल कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या-बुद्धि राजशासन और दम्भ के बल से केवल मुट्ठीभर लोगों के अधिकार में रखी गई है। यदि हमें फिर से उन्नति करनी है, तो हमको उसी मार्ग पर चलना होगा अर्थात् जनता में विद्या का प्रचार करना होगा।’ सम्पूर्ण भारत को शिक्षित करने का चिंतन जब स्वामी विवेकानंद करते हैं तो वे प्रत्येक उपाय पर विचार करते हैं। गांव-गांव, नगर-नगर घूम रहे साधु और संन्यासियों को भी वे उनका मूल काम याद दिलाने का प्रयास करते हैं। भारत को शिक्षित करने के अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे इन्हें शिक्षा अभियान से जोडऩे की बात करते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने 23 जून 1894 को शिकागो से मैसूर के महाराजा को पत्र लिखा कि मान लीजिए महाराज आपने हरएक गांव में एक नि:शुल्क पाठशाला खोल दी, तो भी इससे कुछ काम न होगा। क्योंकि, भारत में इतनी अधिक गरीबी है कि गरीब लड़के पाठशाला आने की बजाय खेतों में अपने माता-पिता को मदद देना या दूसरे किसी उपाय से रोटी कमाने का प्रयत्न करना अधिक पसंद करेंगे। यदि पहाड़ मुहम्मद के पास न आये, तो मुहम्मद ही पहाड़ के पास क्यों न जाय? यदि गरीब लड़का शिक्षा के मन्दिर तक न आ सके, तो शिक्षा को ही उसके पास जाना चाहिए। हमारे देश में हजारों एकनिष्ठ और त्यागी साधु हैं, जो गांव-गांव धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं। यदि उनमें से कुछ लोग सुनियन्त्रित रूप से ऐहिक विषयों के भी शिक्षक बनाये जाएं तो गांव-गांव, दर-दर जाकर वे केवल धर्मशिक्षा ही नहीं देंगे, बल्कि ऐहिक शिक्षा भी दिया करेंगे।
ऐहिक शिक्षा के साथ ही धर्मशिक्षा पर भी स्वामी जी का जोर था। वे विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ अध्यात्म की शिक्षा को भी अनिवार्य मानते थे। शिक्षा के विषय में समय-समय पर दिए गए उनके विचारों से यह परिलक्षित होता था। तीन जनवरी 1895 को शिकागो से सर एस. सुब्रह्मण्य अय्यर को पत्र में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं- ‘बहुत सोच-विचार के बाद मेरे मन ने तय किया है कि पहले मद्रास में धर्मशिक्षा के लिए एक विद्यालय खोलना ठीक होगा, फिर इसका कार्यक्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ाया जाएगा। नवयुवकों को वेदों, विभिन्न भाष्यों और दर्शनों की पूरी शिक्षा देनी होगी, जगत् के अन्य धर्मों का ज्ञान भी इसमें शामिल होगा।’ लेकिन, हमने क्या किया? शिक्षा को धर्मविहीन कर दिया। सेकुलरिज्म के चक्कर में फंस कर हमने स्वामी विवेकानंद के विचारों को खूंटी पर टांग दिया। शिक्षा को नैसर्गिक नहीं रहने दिया। यही कारण है कि आज अभिभावक, शिक्षक, राजनेता और प्रबुद्ध वर्ग मूल्य आधारित शिक्षा की जरूरत महसूस कर रहे हैं। समाज की ‘गति’ देखकर धर्मविहीन, मूल्यहीन, असंवेदनशील शिक्षा में परिवर्तन की बात हर कोई कर रहा है।
स्वामी विवेकानंद के लिए धर्म अंग्रेजी का शब्द ‘रिलीजन’ नहीं था। स्वामीजी ने धर्म की व्याख्या उन नियमों और संहिताओं के रूप में की, जो प्रकृति में करोंड़ों वर्षों से प्रचलित हैं। इसलिए देश की तथाकथित सेकुलर बिरादरी को धर्मशिक्षा की बात से बिदकने की जरूरत नहीं है। स्वामी विवेकानंद ने बार-बार बल दिया है कि धर्म ही भारत की आत्मा है। उन्होंने कहा है -‘मैं धर्म को शिक्षा का सबसे आंतरिक सारतत्व मानता हूं।’ धर्मविहीन वर्तमान शिक्षा मनुष्य को डॉक्टर, इंजीनियर, टेक्नोक्रेट, ब्यूरोक्रेट आदि बनने के लिए प्रेरित करती है। जबकि वास्तव में मनुष्य की शिक्षा का उद्देश्य स्वयं को पहचानने का होना चाहिए। यूनेस्को ने भी शिक्षा पर प्रकाशित अपनी रिपोर्ट का शीर्षक दिया था- ‘कुछ होने के लिए सीखना, न कि कुछ बनने के लिए सीखना।’ स्वामीजी भी बार-बार कहते रहे कि विद्यार्थी को कुछ बनाने की जरूरत नहीं है। उसके भीतर सबकुछ है, बस उसे बाहर आने दो।
यह बात जग जाहिर है कि एक समय में भारत शिक्षा के क्षेत्र में सबसे आगे था। भारत में विश्वविद्यालय जैसे संस्थाएं थीं, जिनमें शिक्षा प्राप्त करने के लिए दुनियाभर से विद्यार्थी आते थे। नगरों में ही नहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी पाठशालाएं थीं, यह बात प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक धर्मपाल ने भी अपने शोध से प्रमाणित की है। धर्मपाल ने अपनी पुस्तक ‘अ ब्यूटीफुल ट्री’ में बताया है कि अंग्रेजों के सर्वे के मुताबिक 18वीं सदी में भारत में लाखों की संख्या में स्कूल थे। भारतीयों ने चिंतन, अध्यात्म, सामाजिक विज्ञान, अर्थशास्त्र, कला ही नहीं परंतु विज्ञान के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व उपलब्धियां अर्जित की थीं। मैकाले की शिक्षा नीति के प्रभाव में आकर भारत ने शिक्षा के क्षेत्र में अपना नेतृत्व तो खोया ही, स्वाभिमान भी खो दिया।
स्वामी विवेकानंद लगातार भारतीयों से आग्रह करते रहे कि अपने तईं भेड़-बकरी होने का भ्रम दूर करो। खुद को पहचानो, तुम सिंह हो, अमृत के पुत्र हो। अत्यंत अल्पायु में बहुत कुछ मार्गदर्शन देकर स्वामीजी चले गए। अब उनके मार्गदर्शन पर आगे बढऩे का काम हमारा होना चाहिए। अब यह भी जान लेना चाहिए कि स्वामी विवेकानंद असल में शिक्षा किसे मानते थे? स्वामी विवेकानंद देवघर (वैद्यनाथ) से 23 दिसम्बर 1900 को एक बंगाली महिला को पत्र में लिखते हैं कि आखिर शिक्षा क्या है? क्या वह केवल कुछ पुस्तकों का पठन-पाठन ही है? नहीं। फिर क्या विविध विषयों का ज्ञान? वह भी नहीं है। शिक्षा तो वह है, जिसके सहारे इच्छाशक्ति का प्रवाह एवं उसकी अभिव्यक्ति संयत की जाती है। अब यह विचार कीजिए कि क्या वह शिक्षा कहलाने के योग्य है, जिसके फलस्वरूप इच्छाशक्ति पीढिय़ों से बलपूर्वक अनवरत अवरुद्ध होकर आज मृतप्राय हो रही है। जिसके प्रभाव से नवीन विचारों की कौन कहे, पुराने तक एक-एक करके विलुप्त होते जा रहे हैं? क्या वह शिक्षा है, जो धीरे-धीरे मनुष्य को मशीन बना दे रही है? मेरे विचार से यंत्रवत् अच्छे होने की अपेक्षा स्वतन्त्र इच्छा और बुद्धि द्वारा प्रेरित होकर एक बार गलती भी कर लेना अधिक श्रेयस्कर है।
स्वामी विवेकानंद के विचार-दर्शन से होकर गुजरते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि उनके विचारों का प्रमुख केन्द्र जीविकोपार्जन की शिक्षा, तकनीकी ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा नहीं था, वे सबसे पहले व्यक्ति के अंदर निहित क्षमताओं को उजागर करने की शिक्षा देना चाहते थे। वे तकनीकी ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ चरित्र निर्माण की शिक्षा पर अधिक बल देते थे। शिक्षा के संबंध में उनका महत्वपूर्ण कथन है – ‘शिक्षा मनुष्य में निहित सम्पूर्णता की अभिव्यक्ति है।’
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)
लोकेन्द्र
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