किसी भी शब्द को समझने के लिए पीछे इतिहास में क्या हुआ है और क्यो हुआ है इसको समझना अति आवश्यक हैं । अब सती के रूप में तीन स्त्रियों को नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है । सती , पार्वती का पूर्व स्वरूप जब वह दक्ष प्रजापति की पुत्री थीं । सती अनूसूइया, वह भी दक्ष प्रजापति की पुत्री और ऋषि अत्रि की पत्नी थी जिनसे स्वंयम जगदंबा सीता ने पतिव्रता का धर्म सीखा । और तीसरी सत्यवान की पत्नी को सती सावित्री कहा जाता है । अब मैं नीचे से चलता हूँ । सती का अर्थ पति की मृत्यु के बाद उसका पति की चिता में जलने का खंडन करता हूँ और सती शब्द का वास्तविक अर्थ बताता हूँ । हाँ यह ध्यान रखिए कि पति के मृत्यु के बाद कुछ स्त्रियों ने शोकग्रस्त होकर प्राण त्यागे थे पर ऐसा करने की कोई विवशता कभी नहीं थी और एक कुप्रथा के रूप में अरबों के भारत आने पर इसका प्रसार अधिक हुआ । अब आप ध्यान दीजिए । सति अनूसुइया के पति जीवित थे और भगवती सीता ने पतिव्रता धर्म की शिक्षा ऋषि अत्रि के आश्रम में ली थी । अनूसूइया को सति की उपाधि के लिए, ऋषि अत्रि के मरने की कोई आवश्यकता नहीं थी । सावित्री का पति सत्यवान की जब मृत्यु हो जाती है तो सावित्री अपने को चिता में नहीं डालती है बल्कि वह यमराज के मुख से अपने पति को वापस जीवित करवा लेती है । और आजतक सती सावित्री के रूप में जानी जाती है । सावित्री को सति बनने के लिए उसे जान देने की कोई आवश्यकता नहीं थी । अब आते हैं सती पर । और केवल सती का ही उदाहरण मिलता है , प्राण त्यागने का । पर क्या जब सती ने प्राण त्यागे थे तब क्या उनके पति की मृत्यु हो गई थी ? नही । अत: पति के मृत्यु से सती शब्द का कोई लेना देना नहीं है । अब चौथा उदाहरण देखिए । जब दशरथ जी का अंतिम संस्कार हो रहा था तब तीनों माताओं ने कौशल्या , कैकेयी और सुमित्रा ने गुरू वशिष्ठ से सति होने की अनुमति माँगी । गुरू वशिष्ठ चुप रहे पर धर्म के स्वरूप भरत जी ने तीनों माताओं को रोक दिया । हालाँकि भरत जी ने माता कौशल्या और सुमित्रा को अलग ढंग से रोका और कैकेयी को अलग ढंग से पर बाद में गुरू वशिष्ठ ने कहा कि हे भरत, मैं अपने को धर्म का ज्ञानी समझता था पर वास्तव धर्म तो तुम ही हो । भरत ने माता कौशल्या और माता सुमित्रा को सती शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि सती वही होता है जो जीवित अवस्था में पति के प्रति पतिव्रता रहे और पति के मृत्यु के पश्चात, जीवन पर्यन्त विरह और वियोग की अग्नि में जले । हालाँकि कैकेयी को चिता में रोकते हुए कहते है कि महारानी कैकेयी, तुम पश्चात्ताप की अग्नि में जीवन पर्यन्त जलो । अत: पति के मृत्यु के पश्चात विरह और वियोग की अग्नि में जलने वाली स्त्री ही सच्चे शब्दों में सती कही गई है । सती शब्द पर एक और अत्यंत अनुपम कथा है ।,,,,,, तीन महानतम सतियों में सती अनुसूइया, सती सावित्री और सती जब वह शिव की पत्नी थी दक्ष की बेटी के रूप में , तीनों के पति जीवित थे जब उन्हें सती कहा गया था । सती बनने की एक प्रक्रिया है और वह जब दाम्पत्य में पति और पत्नी के विचारों में एकाकार होने लगता है । मैने नीचे कुछ चौपाई रामचरितमानस से उद्धृत करी है और मिलती जुलते श्लोक शास्त्रों में सैकड़ों स्थानो पर हैं । इन चौपाइयों की पूरी व्याख्या मैं अभी न करके केवल एक दृष्टांत दूँगा और आपके उपर छोड़ दूँगा कि आप आसमानी किताब वालों की मानसिकता से बाहर निकले की नहीं । नोट: आप बहुत व्यस्त हों तो चौपाई न भी पढ़ें । चौपाई:
यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा।। तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी।। गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।। तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई।। कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा।। गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई।। धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी।। सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा।। उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।। दृष्टांत : उपर जो चौपाई है वह उमा और शिव का पहला संवाद है, विवाह के उपरांत। मैं शिव विवाह की पूरा विस्तार कथा का क्रम आने पर लिखूगा अभी संक्षेप में संकेत देखिए । सती के पिता , दक्ष थे । दक्ष का अर्थ होता है “ निपुण” । और सती में पिता के दक्ष प्रजापति की बेटी होने का गर्व भी था । वह, शिव में सत्यनिष्ठ थी पर शिव के अलावा वह अपने पिता को समझती थी । उनको लगता था कि सभी ऋषि मुनि ज्ञानी इत्यादि तो उनके पिता के सामने सर झुकाते हैं । अत: जब भी शिव, भगवत चर्चा करते थे तब उन्हें संशय होता था । ऐसा ही संशय उन्हें राम के लिए हुआ, वे सीता का रूप धारण करके, राम के सम्मुख गई, राम ने उन्हें प्रणाम किया, और शिव ने कहा कि यह तन सती भेंट अब नाहीं । उसके बाद पिता दक्ष के यज्ञ में जाकर देखती हैं और अपने पिता के अभिमान को देखकर उन्हें भान हो जाता है कि उनके पास का सारा अभिमान उनके पिता के संस्कारों के कारण ही है । अग्नि में सती अपने देह का विलोप करती है और पार्वती के रूप में “ हिमालय “ के घर जन्म लेती हैं । अब ध्यान दीजिए, हिमालय का अर्थ होता है पत्थर अर्थात जड़ । भगवती ने सोचा कि , एक “दक्ष” पिता से अच्छा है एक “ पत्थर बुद्धि “ पिता, जो उचित संस्कार दे । तत्पश्चात शिव पार्वती के विवाह का पूरा दृष्टांत है । पार्वती ने विवाह के पश्चात, शिव से राम कथा कहने को कहा । और भगवान शंकर ने, पार्वती को सबसे पहले किस नाम से संबोधित किया : “धन्य सती पावन मति तोरी “ सती के नाम से । क्यों? क्योंकि, पार्वती का मन अब पावन हो गया है । वह भी शिव के जैसे ही राम भक्ति में डूब गई हैं । निष्कर्ष : जब पत्नी और पति के विचार एकाकार होते हैं तब वह सती होती हैं । अर्थात, सती, एक प्रकिया है । आप दाम्पत्य जीवन में , एकाकार लाएँ । सती, अपने को अग्नि में डालकर सती नहीं हुई, पर पार्वती के रूप में भगवान शिव ने उन्हें “ सती” कहा क्योकि शिव के मन से पार्वती का मन जुड़ गया ।