यक़ीनन दहेज़ एक बुरी प्रथा है, जिसके कारण समाज में कई बेटियों को अपना जीवन होम करना पड़ा, इसकी जद में कई परिवार, कई घर आ गए और स्वाह हो गए किन्तु इस व्याप्त बुराई में भी एक अच्छी की किरण किसी को नज़र आई तो वो है पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर की प्रियंका बेज के परिवार और सूर्यकांत को। आधा भरा ग्लास देखने की प्रवृत्ति किसी बुराई में भी अच्छी खोज ही लेती है। सोनारपुर के सूर्यकांत बरीक, जो पेशे से एक शिक्षक हैं। उन्होंने विवाह से पहले अपने सुसराल वालों के समक्ष दहेज न लेने की शर्त रखी थी, उस समय उनकी मांग को मान भी लिया गया था, किन्तु शादी वाले दिन सूर्यकांत के ससुरालवालों ने मंडप पर 1000 किताबें रखकर हैरान कर दिया। सूर्यकांत का कहना है कि जब वह विवाह के लिए मंडप पहुंचे, तो किताबों की दुनिया देखकर बेहद उत्सुक हो गए। सूर्यकांत का कहना है कि उन्हें और उनकी पत्नी को किताबें पढ़ने का बेहद शौक है और वह यह उपहार पाकर काफी खुश हुए हैं।
वहीं, सूर्यकांत की पत्नी का कहना है कि उनके परिवारवाले पहले से ही दहेज के विरोधी थे, जब सूर्यकांत ने ऐसी शर्त रखी तो वह सब प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा है कि, पति की तरह मैं भी किताबों को पढ़ने का शौक रखती हूं, इसलिए घरवालों ने किताबों का उपहार दिया है. इसमें रबींद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद्र चटर्जी और शरत चंद्र चटोपाध्याय जैसे देश के विख्यात बंगाली लेखकों के साथ ही हैरी पॉटर जैसी किताबें हैं। दुल्हन के परिवारजनों ने तो शादी में शामिल होने वाले मेहमानों से भी गिफ्ट न लाने की अपील की थी. उन्हें फूल या किताब को ही बतौर गिफ्ट देने को कहा गया था। सूर्यकांत का कहना है गिफ्ट में इतनी किताबें मिल चुकी हैं कि मैं एक लाइब्रेरी भी खोल सकता हूं।
कभी तो धर्म की आग में सुलगता बंगाल दिखाई देता है, कभी राजनैतिक लड़ाई में अस्तित्व से झुझता बंगाल नज़र आता है और कभी-कभी इस तरह के उदाहरण पेश कर शिक्षित और समझदार होने के प्रमाण को भी देने में बंगाल पीछे नहीं हटता।
वैसे भी बंगाल के वर्तमान हालातों पर नज़र डाली जाए तो विगत दिनों हुए चुनावों से जो तस्वीर निकल कर बहार आई उसने देश को हिलाया भी है, जहाँ राम के नारे लगने पर उन्माद, विपक्षी प्रतिद्वंदी के खड़े रह जाने पर भी खून-खराबा, धर्म के नाम पर नफरत का जहर लगता बोया जाना, कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों की आड़ लेकर बंगाल अपनी छवि खुद ही बिगाड़ने पर आमादा है, देश और दुनिया की नज़र में भी जगह बनाने में कामयाब नहीं हो पा रहा है। ऐसे में प्रियंका के परिवार का यह पुस्तक क्रांति का सन्देश देना, एक कुरीति में भी अच्छी ढूंढ कर समाज को जागरूक करने, परिवार को शिक्षित और समझदार बनाने की जद्दोजहद करना काबिल-ए-तारीफ है।
पुस्तकें किसी भी समाज का चित्रण करती है, सर्वश्रेष्ठ मित्र होती है, और जागरूकता की परिचायक भी होती है। जो जितना पुस्तकों के समीप रहता है बुराई से वो उतना दूर होता है यह भी एक तथ्य है। इसी के साथ बंगाल में घटित कहानी जिसने एक लाख रुपये की 1000 किताबों को कोलकाता कॉलेज स्ट्रीट और उद्बोधन कार्यालय से खरीदा गया, जो रामकृष्ण मठ की प्रकाशन कंपनी है और इसके माध्यम से जो कन्या पक्ष ने सम्पूर्ण देश को सन्देश दिया है वह निश्चित तौर पर अनुसरणीय है।
यह पुस्तक क्रांति का आगाज़ भी है और देश के लिए एक सुझाव भी कि उपहार में सदैव पुस्तकें ही देवे। समाज का आधार स्तम्भ उसमें व्याप्त शिक्षा का प्रसार है। जितने लोग शिक्षित होंगे वही उस समाज का आधार बन पाएंगे और विकासशील समाज की तरफ कदम बढ़ा पाएंगे। आज निश्चित तौर पर सम्पूर्ण राष्ट्र को पुस्तक क्रांति की आवश्यकता है।
इन पुस्तकों में ज्ञान है, विचार है, विश्वास है, तालीम है जो एक जागरूक, शिक्षित, चरित्रवान और सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रनिर्माण के लिए आवश्यक तत्व भी है और उन पुस्तकों की उपब्धता यदि ऐसे एक कुरीति का समूल नाश करके प्राप्त होने लगेगी तो निश्चित तौर पर इसे सकारात्मक प्रभावक ही माना जाएगा।
पुस्तकें और साहित्य ही किसी किरदार को गढ़ती है और प्रासंगिक भी करते है, और ऐसे समय में जब राष्ट्र से संस्कार अपने अस्ताचल की तरफ बढ़ने लगे है तब तो इस तरह के कार्यों से पुनः इस देश को बचाया जा सकता है। नवीन भारत के निर्माण के लिए यहाँ के संस्कारों को बचाना आवश्यक है। और संस्कारों के संरक्षण हेतु विचार क्रांति का सूत्रपात करना अत्यधिक आवश्यक है। क्योंकि आज का भारत धर्म का मूल तत्व न समझ कर हिन्दू-मुस्लिम बैर में उलझ रहा है, यहाँ दुधमुही बच्चियों की अस्मत भी असुरक्षित है, स्त्री को भोग्या और पुरुष को मजदुर समझा जाने लगा है, घर के बुजुर्गों को वृद्धाश्रम के मार्ग पर भेजा जा रहा है। ऐसे काल में भारत को संस्कारशालाओं की परम आवश्यकता है जो भारत के खोये सौंदर्य को वापस लौटाने के लिए आवश्यक भी है और अनिवार्य भी।
वैसे मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम द्वारा ‘हर मंदिर बनें ज्ञानमंदिर और मस्जिद में हो कुतुबखाना’ जैसी मुहीम का सूत्रपात करके धार्मिक स्थलों तक तो पुस्तक क्रांति या विचार क्रांति पहुँचाने का कार्य किया जा रहा है , किन्तु इस तरह की सामाजिक बुराइयों पर एक सकारात्मक नजरिया अपना कर परिणामों को भी बदला जा सकता है। जो कार्य सूर्यकांत के ससुराल पक्ष ने किया ऐसी ही अवधारणों को समस्त राष्ट्र में अपनाना चाहिए, जिससे परिणाम उन्नत और शिक्षित राष्ट्र के रूप में सामने आए।
डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं स्तंभकार
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[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान,भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]