अंग्रेजी का ‘एन्वायरन्मेंट’ शब्द, फ्रांसीसी शब्द ‘एन्वायरन्स’ से विकसित हुआ। पारिस्थितिकीय संदर्भों में ‘एन्वायरमेन्ट’ शब्द का प्रयोग पहली बार 1956 में हुआ। 20वीं सदी के छठे दशक से पूर्व के किसी संस्कृत-हिंदी ग्रंथ अथवा शब्दकोष में ‘पर्यावरण’ शब्द का उल्लेख नहीं मिलता। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी विश्व पर्यावरण दिवस हेतु 1972 में पहली बार निर्देशित किया। प्रथम विश्व पर्यावरण दिवस, वर्ष 1974 में मनाया गया। भारत की बात करें तो वर्ष 1985 से पहले भारत में पर्यावरण का अलग कोई मंत्रालय नहीं था; पर्यावरण के नाम पर अलग से कानून नहीं थे। पर्यावरण को एक विषय के रूप में पढ़ने की बाध्यता भी सत्र वर्ष 2004-05 से पहले नहीं थी। विरोधाभास देखिए कि पर्यावरण की पढ़ाई बढ़ी; बजट बढ़ा; क़ानून बढ़े; इंतज़ाम बढे़, किंतु पर्यावरण सुरक्षा की गारंटी लगातार घटती जा रही है। क्यों ? क्योंकि शायद हम ऐसा इलाज़ कर रहें; ताकि मर्ज बना रहे, इलाज़ चलता रहे। हम लक्षणों का इलाज कर रहे हैं। पर्यावरणीय क्षरण के मूल कारणों की रोकथाम, हमारी प्राथमिकता बन ही पा रही।
तापमान में बढोत्तरी का 90 प्रतिशत जिम्मेदार तो अकेले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को ही माना गया है। हमने वायुमण्डल में कार्बनडाईऑक्साइड की मात्रा इतनी तेजी से बढ़ाई है कि अगले 11 वर्षों के बाद वायुमण्डल भी ‘नो रूम’ का बोर्ड लटक जाने का अंदेशा पैदा हो गया है। ये नुकसानदेह गैसें, हमारे अतिवादी उपभोग की पूर्ति के लिए की जा रहे उपायों की तो उपज हैं या कुछ और ? हमने धरती से इतना पानी खींच लिया है कि आज भारत के 70 फीसदी भू-गर्भ क्षेत्र पानी की गुणवत्ता अथवा मात्रा के मानक पर संकटग्रस्त श्रेणी में है। हम मिट्टी का इतना दोहन कर चुके हैं कि पिछले कुछ सालों में भारत की 90 लाख, 45 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि बंजर हो चुकी है। हमने इतनी हरियाली हड़प कर चुके हैं कि हमारा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, रेगिस्तान में तब्दील हो रहा है। हमने उत्पाद और उपयोग की ऐसी शैली अपना ली है कि भारत में आज हर रोज करीब 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा पैदा करने वाला देश हो गया है। हमने हवा में इतना कचरा फेंक रहे हैं कि भारत के सौ से अधिक शहर वायु गुणवत्ता परीक्षा में फेल हो गए और श्वसन तंत्र की बीमारियों से मरने वालों के औसत में भारत, दुनिया का नबंर वन हो गया है। इन परिस्थितियों के मूल कारण क्या है?
मूल कारण हैं: अतिवादी उपभोग और कम पुर्नोपयोग। अधिक उपभोग यानी प्रकृति का अधिक दोहन, अधिक क्षरण; कम पुर्नोपयोग यानी प्रकृति में अधिक कचरा, अधिक प्रदूषण, अधिक रासायनिक असंतुलन। हमारी अतिवादिता ने प्रकृति से लेने और देने का संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। विषमता यह है कि प्राकृतिक संसाधनों की कुल सालाना खपत का 40 फीसदी वे देश कर रहे हैं, जो जनसंख्या में कुल का मात्र 15 प्रतिशत हैं। बेसमझी यह है कि हम भारतीय भी अधिक उपभोग करने वाले देशों को ही की जीवन-शैली को अपनाने को विकसित ज़िन्दगी और बढ़ावा देने को असली विकास मान रहे हैं। हम भूल गए हैं कि यदि सारी दुनिया, अमेरिकी लोगों जैसी जीवन शैली जीने लग जाये, तो 3.9 अतिरिक्त पृथ्वी के बगैर हमारा गुजारा चलने वाला नहीं।
गौर कीजिए कि सरकारी योजनाएं, लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने में लगी हैं; बाजार और तकनीक विशेषज्ञ, लोगों को सुविधाभोगी बनाने में। ऑफ सीजन मेगासेल ‘दो के साथ एक फ्री’ का ऑफर ले आ गए हैं। ऑनलाइन शाॅपिंग, बिना जरूरत की चीज का खुला आमंत्रण दे रही हैं। बापू बताते रहे कि एक धोती और एक लंगोटी में भी सम्मान संभव है, लेकिन भारत का नया समाज, सम्मान का नया पैमाना ले आ गया। ज्यादा सम्पत्ति, ज्यादा पैसा, ज्यादा सम्मान। हमने भी ‘थाली में आधा खाना, आधा छोड़ना’ को रईसी का लक्षण समझ लिया है। गांधी समझाते रहे कि गंगा पास में हो, तो भी उस पर उनका हक सिर्फ और सिर्फ एक लोटे भर का है। वह चेताते रहे कि प्रकृति सभी की जरूरत पूरी कर सकती है, लेकिन लालच एक का भी नहीं; बावजूद इसके शासन अपनी परियोजनाओं में ‘अधिकतम संभव दोहन’ का शब्दावली ले आया। भूख, पानी, ऊर्जा और रोजगार जैसे संकट के समाधान में भी शासन ने अधिकतम संभव दोहन के ही विकल्प पेश करता रहा है। इस तरह सदुपयोग की जगह अधिकतम उपभोग, हमारा लक्ष्य विचार बन गया है। प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ में नन्हे हामिद ने खिलौनों से ज्यादा, अम्मी की जरूरत के चिमटे की फिक्र कर बलैंया पाईं। लेकिन हम ऐसे स्वार्थी हो गए हैं कि हमने धरती मां की जरूरतों की चिंता करनी ही बंद कर दी है। हमने भूल गये कि प्राकृतिक संसाधन असीमित हैं। प्राकृतिक संसाधनों पर मानव अकेले का नहीं, हर जीव का हक़ है। उपभोग बढ़ा, तो संसाधनों पर संकट भी बढ़ेगा ही; सो बढ़ रहा है। पर्यावरण नष्ट हो रहा है।
ऐसे में आप प्रश्न उठा सकते हैं, ”तो हम क्या करें ? क्या हम आदिवासियों सा जीवन जीने लग जाएं ??” जवाब है कि सबसे पहले हम स्वयं से अपने से प्रश्न करें कि यह खोना है कि पाना ? हम, सभी के शुभ के लिए लाभ कमाने की अपनी महाजनी परंपरा को याद करे। हर समस्या में समाधान स्वतः निहित होता है। भारत ने वर्ष 2030 तक 280 मीट्रिक टन कार्बनडाईऑक्साइड उत्सर्जन की कटौती की घोषणा की है।
कार्बनडाईऑक्साइड की मात्रा तब घटेगी, जब हम कार्बन उत्पादों की खपत घटायेंगे, कार्बन अवशोषण करने वाली प्रणालियां बढ़ायेंगे। ऐसी प्रणालियां बढ़ाने के लिए कचरा घटाना होगा; हरियाली और नीलिमा बढ़ानी होगी। खपत घटाने के लिए उपभोग कम करना होगा। उत्पाद चाहे खेत में पैदा हो, चाहे फैक्टरी में; बिना पानी, कुछ नहीं बनता। जैसे ही फिजूलखर्ची घटायेंगे; कागज़, बिजली, कपड़ा, भोजन आदि की बर्बादी घटायेंगे; पानी-पर्यावरण दोनो ही बचने लगेंगे।
एक किलो चावल पैदा करने में 2,000 से 5000 लीटर तक पानी खर्च होता है। हरियाणा सरकार ने पानी की किल्लत से निबटने के लिए किसानों ने धान की खेती छोड़ने का आहृान किया है। उन्हे प्रोत्साहित करने के लिए आर्थिक लाभ और अरहर तथा मक्का के मुफ्त बीज की प्रोत्साहन योजना लाई है। पानी की सर्वाधिक ज़रूरत और खपत, सिंचाई हेतु ही है। यदि पानी कम है, तो वर्षाजल आधारित तथा कम पानी का उत्पादन करें। कम पानी अथवा प्रदूषित पानी होगा, तो औद्योगिक उत्पादन करना भी मुश्किल तथा मंहगा होता जाएगा। लाभ हमारा है, तो हमें खुद पहल करनी चाहिए कि नहीं ? इसके लिए भी हम, सरकार की ओर क्यों ताकें ??
कचरा न्यूनतम उत्पन्न हो, इसके लिए ‘यूज एण्ड थ्रो’ प्रवृति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करने चाहिए कि नहीं ? जितनी ज़रूरत उपभोग घटाने की है, उतनी ही प्राथमिकता पुर्नोपयोग बढ़ाने की भी है। गौर कीजिए कि यदि भारत में प्रतिदिन पैदा हो रहे 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरे का ठीक से निष्पादन किया जाये, तो इतने कचरे से प्रतिदिन 27 हजार करोङ रुपये की खाद बनाई जा सकती है। 45 लाख एकङ बंजर भूमि उपजाऊ बनाई जा सकती है। 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा किया जा सकता है और दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस हासिल की जा सकती है; यह करें।
जाहिर है कि जितनी फिजूलखर्ची घटायेंगे, पुर्नोपयोग बढ़ायेंगे; प्राकृतिक संसाधन उतने अधिक बचेंगे। अतः जितनी जरूरत उतना परोसें, उतना खायें, उतना खरीदें। बर्बाद, जरा सा भी न करें। सादगी को सम्मानित करें। कम उपभोग को अपनी शान बनायें और पुर्नोपयोग को अपनी आदत। ये चलन, अंततः पृथ्वी के आवरण के हर उस अंश को बचायेंगे, जिसे हम पर्यावरण कहते हैं। भूले नहीं कि पर्यावरण बचेगा, तो ही बचेगी हमारी समृद्धि, आर्थिकी, रोजगार, सेहत और सांसें ।
अरुण तिवारी
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