(लोगों ने पकौड़े बेचने पर तो चर्चा की परन्तु इस विषय पर मौन हैं)
21 जनवरी 2018 रविवार को टाइम्स नाउ पर भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी का इण्टरव्यु देखने को मिला और जैसा कि अपेक्षित था बहुत से लोगों ने इस साक्षात्कार पर अपनी-अपनी सोच के अनुसार नुक्ताचीनी भी की। ख़ैर, हम लोग दुनिया के वयस्क लोकतंत्रों में शुमार होते हैं इसलिए उस नुक्ताचीनी का स्वागत करना ही श्रेयस्कर है। इस साक्षात्कार ने हमारे सामने कई उदाहरण प्रस्तुत किये हैं यथा ट्विटर पर सवाल-जवाब के बजाय इस तरह भी शिष्ट रहते हुये, विषय पर केन्द्रित रहते हुये, एक साथ बहुत से लोगों तक शालीनता से अपने विचार पहुँचा सकते हैं। हम सब देख रहे हैं अमूमन हर चेनल पर किस तरह नेता लोग तू-तू मैं-मैं करने लगे हैं और टी वी चेनल वाले उन को बाक़ायदा ‘लताड़ने’ लगे हैं। इस तरह से तो हम अशिष्टताओं की समस्त सीमाओं का उल्लंघन करते हुये किसी अनपेक्षित काल के गर्त में ही समा पायेंगे।
सोचना भूलने लगे हैं हम।
वक़्त रहते उपाय सोचा जाय॥
हम सब की प्रययक्ष-अप्रयक्ष सहमति से ही ऐसा अवांछित वातावरण बना है इसलिये हम सब पर फर्ज़ है कि समय रहते बेहतरी की पैरोकारी की जाये।
इस साक्षात्कार को कुछ लोग प्रायोजित साक्षात्कार भी कह रहे हैं, मगर मैं ने उस बिन्दु को दरकिनार कर मोदी जी द्वारा प्रस्तावित ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के विचार पर मनन-चिंतन किया।
पिछले अनेक वर्षों से हम सब चुनावों के प्रभावों में जी रहे हैं। ईमानदारी से कहा जाय तो हर चुनाव से पहले और बाद में राष्ट्रीय -उत्पादिकता पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अनेक प्रभाव पड़ते हैं जो कि ऊपर से नीचे की दिशा में गतिशील होते हुये सर्व-सामान्य मानवी के जीवन व्यवहार तक पहुँच कर उसको प्रभावित करते हैं। हमें मान लेना चाहिए कि हर चुनाव, भारतीय-मनीषा की धुरी मानी जाने वाली सहिष्णुता को निरन्तर कमजोर करता जा रहा है। हमारे बच्चे चाहे वे किसी भी क़ौम के हों, किसी भी आयु-वर्ग के हों; दिन-ब-दिन अ-संस्कारित होते जा रहे हैं। जब राजनीति दूकान बन ही चुकी है तो उस का बाज़ार के नियमों के अनुसार चलना-चलाना भी अपरिहार्य होता जा रहा है। बात राजनीति की आती है तो राजनीति से जुड़े लोग अराजनीतिक कैसे बने रह सकते हैं? घोडा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या? चुनाव में अगर कोई व्यक्ति साम-दाम-दण्ड-भेद पर काम न करे तो उस की प्रासंगिकता खतरे में पड़ जाती है। यह हमारे समय का सत्य है और बेहतर है कि हम इस सत्य को ईमानदारी के साथ स्वीकार कर लें।
स्वयं मोदी जी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ को अमल में लाना न ख़ुद अकेले उन के, न ही अकेले भारतीय जनता पार्टी के बूते में है बल्कि अगर इस विचार को वास्तविकता का अमली जामा पहनाना है तो समग्र राष्ट्र ही को इस विषय पर मिल कर दिशा तय करना होगी। वार्तालाप होना चाहिये। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में आलेख आने चाहिये। टी वी चेनल्स पर स्वस्थ बहसें चलाना चाहिये। सोशल साइट्स पर सीमोल्लंघन से बचते हुये विचारों का परस्पर आदान-प्रदान होना चाहिये। विचारों का समुद्र-मंथन होगा तो समाधान रूपी अमृत अवश्य मिलेगा।
वर्तमान में हम लोग तक़रीबन आधा राष्ट्रीय-समय चुनावों के हवन-कुण्ड में आहुति बना कर झोंक रहे हैं। अगर इस समय-गणना में सर्वज्ञात छुट्टियाँ एवं टाइम-पास आदि भी जोड़ लिये जायेँ तो शायद हम लोग तीन चौथाई यानि पचहत्तर फीसदी राष्ट्रीय-समय बर्बाद कर रहे हैं। आइये एक पल के लिये सोचा जाये – यदि सर्व-सम्मति से पाँच साल में एक बार ही चुनाव कराये जाएँ और भले ही वह प्रक्रिया कुल जमा छह महीने के राष्ट्रीय-समय का उपभोग कर भी ले तो भी हमारे हाथ में पूरा-पूरा साढ़े चार साल का राष्ट्रीय-समय बचता है जो कि निश्चित ही बेहतरी के कामों में उपयोग हो सकेगा। संसाधनों का इस से बेहतर उपयोग और क्या हो सकता है! मुझे भी लगता है कि मोदी जी के इस प्रस्ताव पर राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार से चर्चाएँ की जानी चाहिये। मैं मोदी जी के ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के प्रस्ताव से सहमत हूँ! क्या आप भी सहमत हैं?
नवीन सी. चतुर्वेदी
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