Monday, November 25, 2024
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मनोहर श्याम जोशी : जिन्होंने हिंदी धारावाहिकों का चेहरा बदल दिया था

(जन्म ः 9 अगस्त 1933- निधन 30 मार्च 2006)

मनोहर श्याम जोशी एक ऐसी विलक्षण शख्सियत थे जिसकी प्रतिभा साहित्य से लेकर पत्रकारिता, टेलीविजन और सिनेमा तक एक सी सहजता से पसरी हुई थी

लेखन की दुनिया में मनोहर श्याम जोशी के कई रूप हैं और कई चेहरे भी. वे ऐसी विलक्षण शख़्सियत थे जिसकी प्रतिभा साहित्य से लेकर पत्रकारिता, टेलीविजन और सिनेमा तक सहजता से पसरी हुई थी. प्रसिद्ध गद्यकार, उपन्यासकार, व्यंग्यकार, पत्रकार, धारावाहिक लेखक, विचारक, फ़िल्म पटकथा लेखक, संपादक, कुशल प्रवक्ता और स्तंभ-लेखक उनके भीतर मौजूद लेखक के भिन्न-भिन्न चेहरे हैं. अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम उनके किस रूप से परिचित हैं और किससे नहीं. हालांकि हमारे नहीं जानने से उनका कोई रूप धुंधला नहीं पड़ता.

मनोहर श्याम जोशी टीवी धारावाहिकों के भीष्म पितामह कहे जा सकते हैं. हमारे देश में सोप ऑपरा लिखने वाले वे पहले लेखक थे. उन्होंने दूरदर्शन की शैशवावस्था में उसके लिए दैनिक धारावाहिक लिखना शुरू किया. ‘बुनियाद’ और ‘हम लोग’ जैसे इन धारावाहिकों का जो क्रेज रहा है, उसे याद किया जाए तो आज के सास-बहू और तरह-तरह के मसाला धारावाहिकों का कद उनके आगे बहुत बौना जान पड़ता है.

यह ठीक वही दौर था जब संयुक्त परिवारों के टूटने का चलन कस्बों और छोटे शहरों में भी शुरू हो चुका था. टेलीविजन लेकिन अब तक आम लोगों के लिए विलासिता की तरह था. लेकिन अपने धारवाहिकों से मनोहर श्याम जोशी ने उसे ठीक हमारे मध्यमवर्गीय समाज और संस्कारों से ला जोड़ा. हम लोग के जरिये उन्होंने हमारे जैसे ही एक मध्यवर्गीय परिवार को ऐन हमारे घर के सामने वाले परिवार की तरह हमारे बीच ला खड़ा किया. इसमें रोज रोज घटती नयी-नयी घटनाओं के लोग इतने ज्यादा आदी हो रहे थे कि उन्हें यह अपने जीवन के लिए जरूरी और रोजमर्रा की जरूरतों के सामान सा लगने लगा. तब टीवी दूसरों के यहां जाकर देखने वाला दौर था. इसी दौर में लाजो जी, मास्टर जी (बुनियाद) के साथ मंझली, बड़की, छुटकी, नन्हें और बसेसर राम (हम लोग) का नाम जन-जन की ज़ुबान पर इस तरह चढ़ गया था, जैसे कि वे उनके घर के सदस्यों में से ही कोई एक हो.

 

 

‘बुनियाद’ में बंटवारे की पीड़ा का दर्द और ‘हम लोग’ का सामाजिक सरोकार हमें इसलिए आज भी अपना सा जान पड़ता है क्योंकि उसके पात्रों और कथा को मनोहर श्याम जोशी की जादुई कलम ने जीवंत किया था. अपने अन्य प्रसिद्ध और लोकप्रिय धारावाहिकों ‘कक्काजी कहिन’, ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ आदि के जरिये उन्होंने धारावाहिक लेखन को कुछ अन्य रंग और अंदाज दिए जिसमें हास्य और व्यंग्य को प्रमुख कहा जा सकता है.

यह दिलचस्प है कि जहां उपन्यासों में मनोहर श्याम जोशी समाज और परिवार की पतनशील प्रवृत्तियों पर भरपूर वार करते हैं, वहीं अपने धारावाहिकों में इससे बचते हुए वे लगातार परिवार के महत्व पर जोर देते दिखते हैं. दरअसल वे अच्छे से जानते थे कि समाज के किस वर्ग में उन्हें किस तरह का और कैसा संदेश देना है. किसे किस तरह से कहने और समझाने से बात समझ आएगी. इसीलिए प्रबुद्ध पाठक वर्ग और आम मध्य जन से एक ही बात को कहने के लिए उनके तरीके बहुत भिन्न रहे. पर मुख्य बात यह है कि इस सब के माध्यम से उन्होंने जो भी कहा, जो भी लिखा उसमें हमारे समाज, देश और व्यक्ति की चिंता और उसके लिए निष्ठा ही मुख्य थी.

ठीक यही कारण रहा कि ‘दिनमान’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ जैसी बहुप्रतिष्ठित पत्रिकाओं के बहुत ख्यात संपादक रहने के बावजूद उन्होंने एक दिन पत्रकारिता को क्षण भर में अलविदा कह दिया था. तब एक दूसरे माध्यम (दूरदर्शन) द्वारा जन-जन तक पहुंचने और अपनी बात कहने का एक सुनहरा मौका उनके सामने था. हालांकि यह बहुत जोखिम का काम भी था. अच्छी खासी और बंधी बंधाई नौकरी को छोड़कर एक अन्य माहौल और एक नए माध्यम के लिए काम करना.

ठीक इसी तरह एक समय के बाद दूरदर्शन के लेखक होने की अपनी भूमिका को भी उन्होंने बेख़ौफ़ अलविदा कह दिया क्योंकि उन्हें लगने लगा था ‘अब धारावाहिक लेखकों की कोई इज्जत नहीं रह गई …टीवी पर दिहाड़ी लेखकों की बाढ़ आ गई है. मैं इसमें अपना समय क्यों बर्बाद करूं!’ वे धारावाहिकों के भीष्म पितामह तो थे, पर भीष्म पितामह की तरह बदलते हुए दूरदर्शन के माहौल में रहकर उन्हें रोज-रोज शर-शैय्या पर जीना पसंद नहीं था.

 

‘हम लोग’ हिंदी का पहला धारावाहिक था

और इस तरह एक बार फिर उनका अपनी पुरानी भूमिका यानी स्वतंत्र लेखन की तरफ लौटना हो सका था. इसके बाद उन्होंने अपनी कुछ आधी-अधूरी किताबें पूरी कीं. हिंदी साहित्य में किस्सागोईनुमा लेखन के मामले में भी मनोहरजी का कोई सानी नहीं रहा. इसका एक उदाहरण उनके उपन्यास ‘हरिया हरक्यूलिस की हैरानी’ के इस हिस्से को पढ़कर लगाया जा सकता है. ‘पहले बिरादरी को हैरानी हुआ करती थी कि हरिया को को किसी बात पर हैरानी क्यूं नहीं हुआ करती. लेकिन अचानक हरिया के सामने हैरानी का दरवाजा जब खुला तो वह हैरानी के तिलस्म में उतरता ही चला गया. यहां तक कि बिरादरी की हैरानियों पर उसकी हैरानियां भारी पड़ने लगीं. हैरानी को लेकर जितनी भी व्याख्याएं लोगों के पास थी, वे कहानियों की शक्ल में बहने लगीं… बुजुर्गों को चिंता हुयी कहीं ये हैरानियां आपस में टकराकर ही खत्म न हो जायें.लेकिन बिरादरी के एक मेधावी युवक ने उन्हें यह भरोसा दिलाया कि हरिया की हैरानी हमेशा रहेगी.क्योंकि हैरानी के बिना कहानी नहीं होती.और कहानी के बिना बिरादरी नहीं.’

1981 में जब मनोहर श्याम जोशी का पहला उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ छपकर आया था तो पाठक उनकी खिलंदड़ भाषा, जबर्दस्त किस्सागोई और ट्रैजिक-कॉमिक के मेल से चमत्कृत हो गये थे. वे मानने को विवश हो गए थे कि लेखन में किस्सागोई की कला उन्हें घुट्टी में मिली है. यह कुछ गलत भी न था. उनका ननिहाल कुमाऊंनी ब्राह्मणों के एक विशिष्ट परिवार में जाना जाता था जिसके खून में किस्सागोई और अभिजात्यता समाई थी. कहते हैं कि उनकी माताजी को भी नकलें उतारने और लतीफे गढ़ने में महारथ हासिल थी.

‘कुरु-कुरु स्वाहा’ को पढने वालों को यह हैरानी थी कि भाषा और शिल्प के लिहाज से कोई अपने पहले ही उपन्यास में इतना परिपक्व कैसे हो सकता है. और वे सही ही सोच रहे थे. 18 की उम्र में अपनी पहली कहानी लिखने और छपने के बाद 47 की उम्र में उनक पहले उपन्यास का छपना भी कम अजूबे जैसा नहीं था. दरअसल अपने विद्यार्थी काल में ही जोशीजी ने दो उपन्यास लिखे थे पर बाद में उन्होंने उन्हें नष्ट कर दिया. असाधारण लेखकों की तरह साहित्य का उनका पैमाना बहुत ऊंचा था और लेखकों वाली वह उदासीनता और निष्क्रियता भी उनमें बेहद थी जो उनके साथ तमाम उम्र सफ़र करती.

‘कुरु-कुरु स्वाहा’ के लिखे जाने की कथा कुछ यूं है कि ‘धर्मयुग’ के तब के संपादक धर्मवीर भारती ने उनसे ‘लहरें और सीपियां’ नाम का एक स्तंभ के लिए लिखने को कहा था. यह मुंबई के उस सेक्स बिजनेस पर आधारित होना था जो जुहू चौपाटी में चलता था. मामला कुछ-कुछ इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म का था. लड़कियां इस पेशे में कैसे आती हैं, उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्या-क्या है, बिजनेस कैसे चलता है जैसी बातें खोज निकालनी थीं. इस खोज के दौरान मनोहर श्याम जोशी की मुलाकात बाबू से हुई थी जो इस उपन्यास का मुख्य पात्र है. बाबू ने ही उनकी मुलाकात ‘पहुंचेली’ से कराई थी जो ‘कुरु कुरू स्वाहा’ की प्रमुख महिला किरदार है. इसमें लेखक भी खुद को पात्र के रूप में विकसित करते हुए अपने व्यक्तित्व को तीन भागों में बांटता है- मनोहर, श्याम और जोशीजी के रूप में. यहां पहुंचेली जैसी एक अबूझ नायिका भी है. वैसे ‘कुरु कुरु स्वाहा’ में भाषा और शिल्प के अभिनव प्रयोग के बावजूद जिंदगी ही इसका मुख्य किरदार है जो इसके तमाम किरदारों पर अक्सर भारी पड़ती दिखती है.

अपने शिल्प, भाषा और कथा में उनके पहले और तमाम उपन्यासों से बिलकुल अलग ‘कसप’ ( कुमाऊंनी भाषा में अर्थ ‘क्या जाने’ या फिर ‘राम जाने’) के लिखे जाने की एक अलग कथा है. जोशीजी तब एक साइंस फिक्शन लिख रहे थे. पत्नी ने एक दिन उनसे उकताकर कहा था, ‘यह सब भारी, बोझिल, उबाऊ और बौद्धिक क्या लिखते रहते हो, कुछ ऐसा लिखो जिसमें सबका मन रमे, जिसे हमारे जैसे साधारण लोग भी दिल से पढ़ सकें. गुनाहों के देवता जैसी कोई कहानी लिख सको तो लिखो…’ तब पत्नी भी शायद नहीं जानती थी कि उनकी यह इच्छा इतनी जल्दी पूरी हो जायेगी. अगले 40 दिन में ‘कसप’ का पहला ड्राफ्ट पूरा था. कहानी में बहाव इतना जबरदस्त कि लोग एक सांस में इसे पढ़कर ख़त्म कर लें. इस बहाव का श्रेय जोशीजी ने इसे 40 दिन में धाराप्रवाह लिखे जाने को ही दिया. यह भी जिक्र करना जरूरी है कि इसकी तुलना हमेशा गुनाहों के देवता से ही की गई और ऐसा करने वाले ज्यादातर लोगों ने इसे धर्मवीर भारती के इस उपन्यास से बहुत श्रेष्ठ कहा.

‘कसप’ लिखते हुए मनोहर श्याम जोशी आंचलिक कथाकारों की शैली का इस्तेमाल करते हुए कुमाऊंनी भाषा और वहां के जीवन को बहुत मन और मनोयोग से रचते हैं. पर इसे रचते हुए वे वह भूल नहीं करते जो रेणु कर गए थे. प्रादेशिक भाषा और शब्दों के इस्तेमाल के क्रम में वे कुमाऊंनी शब्दों के ठीक बगल में उनके हिंदी अर्थ देते चलते हैं. इस तरह भाषा के फैलाव का काम वे अपने उपन्यास में संग-संग करते चलते हैं. जेडी और बेबी की प्रेम कथा के रूप में कुमाऊं अंचल की यह प्रेम कथा इसलिए भी अविस्मरणीय है.

उनकी कहानी ‘हमजाद’ हम सबके भीतर बसे उस कमीनगी की कथा है जो सबसे पहली चोट हमारे भीतर बसे उन भ्रमों पर ही करती है जो हम अपनी आशावादिता में अपने इर्द-गिर्द बसाए रहते हैं. इसे पढ़ते हुए हम खुद को निरुपाय और असहाय से दिख पड़ते हैं. हमें यह दिखने लगता है कि हम जितना समझते और जानते हैं हमारे समय और समाज की वास्तविकता उससे कहीं अधिक क्रूर, घृणास्पद और लिजलिजी है. इसके बारे में मनोहर श्याम जोशी ने कहा था, ‘हमजाद को लिखते समय मेरे मस्तिष्क में कई बातें थी, मैं उसके अंधेरे पक्षों की ओर गया. आदमी के व्यक्तित्व में जो दुष्टता स्वयंमेव होती है, घटियापन होता है, मैंने उसी पर केंद्रित होकर यह उपन्यास लिखा.’

हालांकि मनुष्य के भीतर की इन्हीं बुराइयों, जटिलताओं और समय की विद्रूपता पर लिखने के कारण बहुतेरे लोग उन्हें दुरुहताओं और जटिलताओं पर लिखने वाला लेखक मानने लगे थे. इस क्रम में सेक्स और देह भी उनके लेखन में खूब आया, जिसके कारण उनके अन्य समकालीन लेखकऔर वरिष्ठ यह मानने लगे थे कि मनोहर श्याम जोशी उन अमेरिकी लेखकों की तरह है जो पोर्न लिखकर नाम और पैसा कमाते हैं’. मुद्राराक्षस का कहना था कि भांग की पकौड़ी और हमजाद में कोई अंतर नहीं. पर विद्यानिवास मिश्र ने उन्हें और उनके लेखन को कुछ-कुछ समझते हुए और उन्हें बहुत हद तक समझाते हुए कहा था, ‘ये (उनके उपन्यास) हिंदी साहित्य समाज की मानसिकता से मेल नहीं खाते.’

मनोहर श्याम जोशी ने उस समय उनकी बातों को भले ही बेकार समझा हो, पर बाद में उन्हें यह बात बिलकुल सत्य जान पड़ी थी. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘दरअसल हमारे समाज से व्यंग्य की जगह खत्म खत्म हो गयी है क्योंकि वास्तविकताएं आज व्यंग्य से बड़ी हो चली हैं .व्यंग्य दरअसल उस समाज के लिए होते हैं जहां के लोग छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर भी संवेदनशील हों.’

पर इस सबकी वजह से मनोहर श्याम जोशी ने लिखना बिलकुल भी नहीं छोड़ा, न ही अपनी शैली में वे कोई तब्दीली लाए. हां, पुरस्कार, पुरस्कार समारोहों और लेखक समुदाय से दिल्ली में रहते हुए भी वे बहुत दूर हो चले थे. अपने आखिरी इंटरव्यू में खुद को साहित्य अकादमी मिलने के लिए हैरत जताते हुए उन्होंने कहा था, ‘मेरे मित्र सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कहा करते थ कि जो लाख समझाने पर भी लिखता चला जाए, उसे उसकी इस ढिठाई के लिए भी कभी कभी पुरस्कार दे दिया जाता है.’

अगर आज मनोहर श्याम जोशी ज़िंदा होते और उनसे उनके लेखन की विविधता पर सवाल करते हुए यह पूछा जाता कि इसमें से कौन से असली वाले मनोहर श्याम जोशी हैं तो शायद उनका जवाब उनके एक बहुत मशहूर उपन्यास के लोकप्रिय पात्र की तरह ही होता कि ‘क्याप’. यानी अनबूझा. ऐसा इसलिए भी कि उन्होंने ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ के नायक-कथावाचक की तरह अपने को भी हमेशा खुद से अलग करके और टुकड़ों-टुकड़ों में ही देखा था – मनोहर, श्याम और जोशी की तरह.

साभार- https://satyagrah.scroll.in से

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