रावण को जन सामान्य में राक्षस माना जाता है। जबकि कुल,जाति और वंश से रावण राक्षस नहीं था। रावण केवल सुरों (देवताओं) के विरुद्ध और असुरों के पक्ष में था । रावण ने आर्यों की भोग-विलास वाली ‘यक्ष’ संस्कृति से अलग सभी की रक्षा करने के लिए ‘रक्ष’ संस्कृति की स्थापना की थी। इस संस्कृति के अनुगामी असुरों को ही राक्षस कहा गया। वाल्मीकि रामायण के अलावा पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, कूर्मपुराण, महाभारत, आनंद रामायण, दशावतारचरित आदि हिन्दू ग्रंथों के साथ जैन ग्रंथों में भी रावण का उल्लेख मिलता है। जैन ग्रंथों में रावण को प्रतिवासुदेव माना गया है।
रावण शिव का परम भक्त था। यम और सूर्य तक को अपना प्रताप झेलने के लिए विवश कर देने वाला था। प्रकांड विद्वान, सभी जातियों को समान मानते हुए भेद भाव रहित समाज की स्थापना करने वाला था। लेकिन एक बुराई ने रावण की सारी अच्छाइयों पर पानी फेर दिया। विद्वान और प्रकांड पंडित होने से बावजूद समाज में रावण अच्छा साबित नहीं हो सका। वह राम का विरोधी और शत्रु माना जाता रहा है। पर वह बुरा बना तो सचमुच में ही प्रभु श्रीराम की इच्छा से। रामचरित मानस में एक अर्दाली में कहा भी है- होइए वही जो राम रचि राखा…। शायद इसलिए उसने पर स्त्री का हरण किया था। लेकिन रावण की अच्छाइयों पर हम जाए तो बहुत ही अच्छी सीख समाज को मिल सकती है।
रावण ने असंगठित राक्षस समाज को एकत्रित कर उनके कल्याण के लिए कई कार्य किए। रावण के शासनकाल में जनता सुखी और समृद्ध थी। सभी नियमों से चलते थे और किसी में भी किसी भी प्रकार का अपराध करने की हिम्मत नहीं होती थी। रावण ने सुंबा और बाली द्वीप को जीतकर अपने शासन का विस्तार करते हुए अंगद्वीप, मलय द्वीप, वराह द्वीप, शंख द्वीप, कुश द्वीप, यव द्वीप और आंध्रालय पर विजय प्राप्त की थी। इसके बाद रावण ने लंका को अपना लक्ष्य बनाया। आज के युग के अनुसार रावण का राज्य विस्तार इंडोनेशिया, मलेशिया, बर्मा, दक्षिण भारत के कुछ राज्य और संपूर्ण श्रीलंका तक था।
जब राम वानरों की सेना लेकर समुद्र तट पर पहुंचे, तब राम रामेश्वरम के पास गए और वहां उन्होंने विजय यज्ञ की तैयारी की। उसकी पूर्णाहुति के लिए देवताओं के गुरु बृहस्पति को बुलावा भेजा गया, मगर उन्होंने आने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। अब सोच-विचार होने लगा कि किस पंडित को बुलाया जाए ताकि विजय यज्ञ पूर्ण हो सके। तब प्रभु राम ने सुग्रीव से कहा- ‘तुम लंकापति रावण के पास जाओ।’ सभी आश्चर्यचकित थे किंतु सुग्रीव प्रभु राम के आदेश से लंकापति रावण के पास गए। रावण यज्ञ पूर्ण करने लिए आने के लिए तैयार हो गया और कहा- ‘तुम तैयारी करो, मैं समय पर आ जाऊंगा।’रावण पुष्पक विमान में माता सीता को साथ लेकर आया और सीता को राम के पास बैठने को कहा, फिर रावण ने यज्ञ पूर्ण किया और राम को विजय का आशीर्वाद दिया। फिर रावण सीता को लेकर लंका चला गया। लोगों ने रावण से पूछा- ‘आपने राम को विजय होने का आशीर्वाद क्यों दिया?’ तब रावण ने कहा- ‘महापंडित रावण ने यह आशीर्वाद दिया है, राजा रावण ने नहीं।’
जब रावण मृत्युशैया पर पड़ा था, तब राम ने लक्ष्मण को राजनीति का ज्ञान लेने रावण के पास भेजा। जब लक्ष्मण रावण के सिर की ओर बैठ गए, तब रावण ने कहा- ‘सीखने के लिए सिर की तरफ नहीं, पैरों की ओर बैठना चाहिए, यह पहली सीख है।’ रावण ने राजनीति के कई गूढ़ रहस्य बताए थे।
शक्तियां दो तरह की होती हैं- एक दिव्य और दूसरी मायावी। रावण मायावी शक्तियों का स्वामी था। रावण एक त्रिकालदर्शी था। उसे मालूम हुआ कि विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया है और वे पृथ्वी को दानव विहीन करना चाहते हैं, तब रावण ने राम से बैर लेने की सोची। भगवान राम की अर्धांगिनी सीता को पंचवटी के पास लंकाधिपति रावण ने अपहरण करके अपनी कैद में रखा था, लेकिन इस कैद के दौरान रावण ने माता सीता को छुआ तक नहीं था।
रावण अपने युग का प्रकांड पंडित ही नहीं, वैज्ञानिक भी था। आयुर्वेद, तंत्र और ज्योतिष के क्षेत्र में उसका योगदान महत्वपूर्ण है। इंद्रजाल जैसी अथर्ववेदमूलक विद्या का रावण ने ही अनुसंधान किया। उसके पास सुषेण जैसे वैद्य थे, जो देश-विदेश में पाई जाने वाली जीवनरक्षक औषधियों की जानकारी स्थान, गुण-धर्म आदि के अनुसार जानते थे। रावण की आज्ञा से ही सुषेण वैद्य ने मूर्छित लक्ष्मण की जान बचाई थी। चिकित्सा और तंत्र के क्षेत्र में रावण के ये ग्रंथ चर्चित हैं- दस शतकात्मक अर्कप्रकाश, दस पटलात्मक उड्डीशतंत्र, कुमारतंत्र और नाड़ी परीक्षा।और भी कई विशेषताएँ रावण में थी। लेकिन एक अंहकार उसके विनाश का कारण बना। ज्ञान सम्पन्न होते हुए भी वह अहंकार के वशीभूत सीता को उठा कर लाया और राम को युद्द का आमंत्रण दे बैठा।
-संदीप सृजन
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