भाषाई आधार पर हम दुनिया को दो हिस्सों में देख सकते हैं. एक तो वे देश हैं, जो अपनी ही भाषा को सबसे आगे रखते हैं– जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, अमेरिका आदि. वे ही आजकल के सबसे विकसित देश हैं. दूसरे वे देश हैं जिन्होंने अपनी भाषा के बदले किसी ऐसे देश की भाषा को अपना लिया, जिसके वे कभी गुलाम थे. वे ही आजकल के अविकसित या विकासशील देश कहलाते हैं.
भारत जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया का ऐसा सबसे बड़ा देश है, जिसने अपनी गुलामी वाली अंग्रेजी को ही सरकारी कामकाज की भाषा बना दिया. तब भी, सात दशक बाद, केवल तीन प्रतिशत लोग ठीक-ठाक अंग्रेज़ी जानते हैं.
भारत के भीतर और बाहर हिंदी बोलने-समझने वालों की सही संख्या बताना बहुत मुश्किल है. एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, 2015 में दुनिया में करीब एक अरब तीस करोड़ लोग हिंदी बोल रहे थे. यदि यह सही है, तो 2015 से हिंदी, चीन की मुख्य भाषा मंदारिन को पीछे छोड़ कर दुनिया में सबसे बड़ी भाषा बन गयी है.
चीनी समाचार एजेंसी सिन्हुआ के अनुसार, 70 प्रतिशत चीनी जनता मंदारिन बोलती है जबकि भारत में हिंदी बोलने वालों की संख्या करीब 78 प्रतिशत बतायी जाती है. भारत सहित दुनिया में 64 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिंदी है. भारत के अलावा मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी, गुयाना, ट्रिनिडाड और टोबैगो आदि देशों में हिंदी का काफ़ी प्रचलन है.
मार्क टली कहते हैं कि वे तो लोगों से बात हिंदी में शुरू करते हैं, पर लोग बार-बार अंग्रेज़ी में ही जवाब देते हैं. तंग आकर उन्होंने अब कहना शुरू कर दिया है कि बेहतर है कि भारतीय हिंदी भूल कर अंग्रेज़ी को ही अपना लें!
हिंदी सबसे बड़ी भाषा न भी हो, तब भी दुनिया की दूसरी या तीसरी सबसे बड़ी भाषा ज़रूर है. जिस रिपोर्ट का ऊपर जिक्र हुआ वह कहती है कि तेजी से हिंदी सीखने वाले देशों में चीन सबसे आगे है. वहां के 20 विश्र्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है. 2020 तक यह संख्या 50 भी हो सकती है.
मैं 1971 से जर्मनी में हूं. उसी समय से एक ईसाई मिशनरी फ़ादर बुल्के का लिखा 900 पेज का अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश इस्तेमाल कर रहा हूं. फादर कामिल बुल्के 26 साल की उम्र में, 1927 में, ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए बेल्जियम से भारत भेजे गये थे. हिंदी ने ऐसा मोहित किया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदी की सेवा में समर्पित दिया. 1950 में उन्होंने भारत की नागरिकता ले ली. 1974 में भारत का तीसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मभूषण भी पाया.
फादर कामिल बुल्के ने एक बार लिखा कि उन्हें यह देखकर बहुत दुख हुआ कि भारत के पढ़े-लिखे लोग अंग्रेजी बोलना गर्व की बात समझते हैं. उन्होंने निश्चय किया कि अब वे भारत के लिए हिंदी की महत्ता को सिद्ध करेंगे.
केवल पांच वर्षों में, वे न सिर्फ हिंदी और संस्कृत में ही पारंगत हो गए. अवधी, ब्रज, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश भी सीख ली. 1950 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी पीएचडी के लिए अपना शोध प्रबंध (थीसिस) ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ अंग्रेजी के बदले हिंदी में ही लिखा. फ़ादर बुल्के के कारण इलाहाबाद विश्वविद्यालय को अपने नियम बदलने पड़े. इसके बाद दूसरे विश्वविद्यालयों में भी भारतीय भाषाओं में थीसिस लिखने की अनुमति मिलने लगी.
कामिल बुल्के के अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश, और उससे 13 साल पहले के हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश को हिंदी भाषा की बेजोड़ सेवा माना जाता है. ठीक 35 साल पहले वे दुनिया से विदा हो गये. एक विदेशी ईसाई धर्म प्रचारक रहे फ़ादर कामिल बुल्के का जीवन दिखाता है कि दुनिया हिंदी को मान्यता देने को तैयार है. कमी हिंदी में नहीं, हमारे भीतर है.
भारत से बाहर हिंदी की पूछ अधिकतर उन्हीं देशों में है, जहां प्रवासी या निवासी भारतीयों की संख्या काफ़ी अधिक है. उदाहरण के लिए, लघु-भारत कहलाने वाले मॉरीशस के 13 लाख निवासियों में से 68 प्रतिशत भारतवंशी हैं. वहां के महात्मा गांधी संस्थान ने हिंदी की उच्च शिक्षा के लिए डिप्लोमा कोर्स, बीए ऑनर्स और एमए तक की व्यवस्था कर रखी है.
भारत के पड़ोसी देशों में नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में और श्रीलंका के कोलम्बो विश्वविद्यालय में हिंदी का अलग विभाग है. जापान में भी कम से कम आधे दर्जन विश्वविद्यालयों और संस्थानों में हिंदी के पाठ्यक्रम चलते हैं.
53 वर्षों तक हिंदी में रेडियो कार्यक्रम प्रसारित करने के बाद वॉयस ऑफ अमेरिका ने आज से नौ साल पहले हिंदी कार्यक्रम बंद कर दिया. बदले में उसने उर्दू का समय काफ़ी बढ़ा दिया
अमेरिका के 25 लाख भारतवंशी वहां का दूसरा सबसे बड़ा प्रवासी समूह हैं. वहां के 75 विश्वविद्यालयों में हिंदी की व्यवस्था है. तीन प्रमुख संस्थाएं– अर्न्तराष्ट्रीय हिंदी समिति, विश्व हिंदी समिति और हिंदी न्याय– अमेरिका में हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं. कम से कम चार प्रमुख हिंदी पत्रिकाएं भी प्रकाशित होती हैं– विश्व, सौरभ, क्षितिज और हिंदी जगत. हिंदी की कम से कम एक मासिक या त्रैमासिक पत्रिका आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, म्यांमार (बर्मा), गुयाना और सूरीनाम से भी प्रकाशित होती है.
यूरोप में क़रीब एक दर्जन देशों के तीन दर्जन विश्वविद्यालयों और संस्थानों में हिंदी की व्यवस्था है. लेकिन बर्लिन दीवार के गिरने और यूरोप में शीतयुद्ध का अंत होने के बाद से हिंदी के छात्र कम होते जा रहे हैं. जर्मनी इससे सबसे अधिक प्रभावित है. देश के एकीकरण के ठीक बाद लगभग दो दर्जन विश्वविद्यालयों में भारतविद्या के अंतर्गत हिंदी सीखी जा सकती थी. आज उनकी संख्या केवल एक दर्जन रह गयी है. ठीक इस समय, कोलोन और बॉन विश्वविद्यालयों के भारतविद्या संस्थान पर भी बंद होने का खतरा मंडरा रहा है.
हिंदी के प्रति घटती रुचि के अनेक कारण हैं. पर एक बड़ा कारण ऐसा है, जिसके लिए हम भारतीय स्वयं दोषी हैं. जर्मन विश्वविद्यालयों में हिंदी के छात्र व्यावहारिक अनुभव पाने के लिए अक्सर रेडियो डॉएचे वेले के हमारे हिंदी कार्यक्रम में आया करते थे. हिंदी की एक ऐसी ही छात्रा ने, कोई दो दशक पहले, मुझे बताया कि एक बार वह कोलोन के एक व्यापार मेले में होस्टेस व दुभाषिये का काम कर रही थी. उसे एक भारतीय स्टॉल पर भेजा गया. स्टॉल के मालिक दो भारतीय सज्जन थे. उसने हिंदी में जैसे ही अपना परिचय देना चाहा, दोनों एकदम भड़क गये. उसे डांटने लगे कि वह समझती क्या है कि उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती? वे अनपढ़ हैं कि वह उनसे हिंदी बोल रही है? उसे माफ़ी मांगनी पड़ी और कहना पड़ा कि वह अंग्रेज़ी में ही बात करेगी, हिंदी का नाम तक नहीं लेगी.
हिंदी के विपरीत, जर्मनी में पिछले 30 वर्षों में उन विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ कर 28 हो गयी है जहां चीनी भाषा की पढ़ाई होती है. चीन में चीनी भाषा नहीं जानने पर विदेशियों को नीचा देखना पड़ता है. और भारत में हिंदी जानने पर नीचा देखना पड़ सकता है.
भारत में लंबे समय तक बीबीसी के संवाददाता रहे मार्क टली भारत की नागरिकता ले कर वहीं बस गये हैं. उनका भी यही अनुभव है कि वहां अंग्रेजी को तो पढ़े-लिखे लोगों और हिंदी को अनपढ़ गंवारों की भाषा समझा जाता है. मार्क टली कहते हैं कि वे तो लोगों से बात हिंदी में शुरू करते हैं, पर लोग बार-बार अंग्रेज़ी में ही जवाब देते हैं. तंग आकर उन्होंने अब कहना शुरू कर दिया है कि बेहतर है कि भारतीय हिंदी भूल कर अंग्रेज़ी को ही अपना लें!
53 वर्षों तक हिंदी में रेडियो कार्यक्रम प्रसारित करने के बाद वॉयस ऑफ अमेरिका ने आज से नौ साल पहले हिंदी कार्यक्रम बंद कर दिया. बदले में उसने उर्दू का समय काफ़ी बढ़ा दिया. उसकी देखादेखी कुछ समय बाद जर्मनी के डॉयचे वेले ने भी 1964 से चल रही हिंदी सेवा बंद कर दी. पर उर्दू कार्यक्रम आज भी चल रहा है.
लेकिन रूस, चीन जापान, उज़बेकिस्तान, मिस्र और वेटिकन से भारत के लिए हिंदी कार्यक्रम आज भी प्रसारित हो रहे हैं. इस सूची में तीन नए देश भी हैं– ऑस्ट्रेलिया, ईरान और ताजिकिस्तान. तीन ईसाई धर्मप्रचारक रेडियो स्टेशन भी भारत के लिए हिंदी में प्रसारण कर रहे हैं– मोल्दाविया से ट्रांसवर्ल्ड रेडियो, और जर्मनी से गॉस्पल फॉर एशिया और क्रिश्चियन विजन.
अंग्रेज़ी वास्तव में हमारी प्रगति की राह का सबसे बड़ा रोड़ा सिद्ध हुई है. उसके कारण देश की वह 97 प्रतिशत जनता, जो अंग्रेज़ी लिख-पढ़ नहीं सकती, बाक़ी तीन प्रतिशत से पीछे रह जाती है ।
मैं नहीं मानता कि अंग्रेज़ी के बिना भारत विज्ञान और तकनीक में तेज़ी से प्रगति नहीं कर सकता. चीन, जापान, ताइवान और दक्षिण कोरिया ने हमारे देखते ही देखते, पिछले केवल 30, 40 साल में ही यूरोप-अमेरिका को जिस तरह पीछे छोड़ दिया, उसके लिये क्या उन्होंने सबसे पहले सारे देश को अंग्रेज़ी सिखाई? और क्या वहां भी, भारत की तरह, सारा घरेलू और सरकारी कामकाज अंग्रेज़ी में होता है?
इन देशों के लोग हम से बेहतर अंग्रेज़ी नहीं जानते. वहां कभी किसी लॉर्ड मैकाले का राज नहीं था. हम तो लॉर्ड मैकाले की कृपा से दो सदियों से अंग्रेज़ी ही पढ़-लिख और इस्तेमाल कर रहे हैं. यदि अंग्रेज़ी का ज्ञान ही विज्ञान और तकनीक तक पहुंचने की बुलेट ट्रेन है तो हमें तो चीन-जापान-कोरिया से बहुत आगे होना चाहिये था!
अंग्रेज़ी वास्तव में हमारी प्रगति की राह का सबसे बड़ा रोड़ा सिद्ध हुई है. उसके कारण देश की वह 97 प्रतिशत जनता, जो अंग्रेज़ी लिख-पढ़ नहीं सकती, बाक़ी तीन प्रतिशत से पीछे रह जाती है, अपना पूरा योगदान नहीं दे पाती. छात्रों की 40 प्रतिशत ऊर्जा अकेले अंग्रेज़ी सीखने पर ख़र्च हो जाती है. बाक़ी सभी विषय पीछे रह जाते हैं.
अंग्रेज़ी जिसकी न तो मातृभाषा है और न रोमन जिसकी लिपि, उस चीन-जापान-कोरिया से आज ब्रिटेन और अमेरिका तक कांप रहे हैं. ये देश इसलिए आगे बढ़े, क्योंकि आपसी बातचीत और सरकारी कामकाज में वे अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा के महत्व पर अटल रहे. अंग्रेज़ी उनके लिए अंतरराष्ट्रीय महत्व वाली एक विदेशी भाषा है, न कि भारत की तरह स्वदेशी भाषा. अपनी भाषा न तो स्वाभाविक प्रतिभा के रास्ते में बाधक होती है, और न कोई विदेशी भाषा प्रतिभा की कमी को दूर कर सकती है.
क्या अंग्रेज़ी में तुलसी दास के रामचरितमानस या रसखान के गीत गोविंद से हमें वही आनंद मिल सकता है जो हिंदी में मिलता है? राष्ट्रगान जन मन गण… के अंगेज़ी अनुवाद से क्या हमारे मन में वही भाव पैदा हो सकता है, जो आज पैदा होता है? नहीं. हिंदी हमें भारतीयता से जो़ड़ती है. वह हमारी भावनात्मक ज़रूरत भी है.
(राम यादव अंतरराष्ट्रीय विषयों पर गंभीर लेखन करते हैं)
साभार- https://satyagrah.scroll.in/ से