सन् 1840 में काबुल में युद्ध में 8000 पठान मिलकर भी 1200 राजपूतो का मुकाबला 1 घंटे भी नही कर पाए थे।
वहीं इतिहासकारो का कहना था की चित्तौड़ की तीसरी लड़ाई जो 8000 राजपूतों और 60000 मुगलों के मध्य हुई थी वहाँ अगर 15000 राजपूत होते तो अकबर भी बचकर नहीं जा पाता। इस युद्ध में 48000 सैनिक मारे गए थे जिसमे 8000 राजपूत और 40000 मुग़ल थे, वहीं 10000 के करीब घायल थे। र दूसरी ोर गिररी सुमेल की लड़ाई में 15000 राजपूत 80000 तुर्को से लडे थे, इस पर घबराकर शेर शाह सूरी ने कहा था “मुट्टी भर बाजरे (मारवाड़) की खातिर हिन्दुस्तान की सल्लनत खो बैठता।”
उस युद्ध से पहले जोधपुर महाराजा मालदेव जी नहीं गए होते तो शेर शाह ये बोलने के लिए जीवित भी नही रहता। इस देश के इतिहासकारो ने और स्कूल कॉलेजो की
किताबो मे आजतक सिर्फ वो ही लडाई पढ़ाई जाती है जिसमे हम कमजोर रहे, वरना बप्पा रावल और राणा सांगा जैसे योद्धाओ का नाम तक सुनकर मुगल की औरतो के गर्भ गिर जाया करते थे, रावत रत्न सिंह चुंडावत की रानी हाडा का त्यागपढाया नही गया जिसने अपना सिर काटकर दे दिया था।
पाली के आउवा के ठाकुर खुशहाल सिंह को नही पढ़ाया जाता, जिन्होंने एक अंग्रेज के अफसर का सिर काटकर किले पर लटका दिया था। जिसकी याद मे आज भी वहां पर मेला लगता है। दिलीप सिंह जूदेव का नही पढ़ाया जाता जिन्होंने एक लाख आदिवासियों को फिर से हिन्दू बनाया था।
महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर, महाराणा प्रतापसिंह, महाराजा रामशाह सिंह तोमर, वीर राजे शिवाजी, राजा विक्रमादित्या, वीर पृथ्वीराजसिंह चौहान, हमीर देव चौहान, भंजिदल जडेजा, राव चंद्रसेन,वीरमदेव मेड़ता, बाप्पा रावल नागभट प्रतिहार(पढियार), मिहिरभोज प्रतिहार(पढियार), राणा सांगा, राणा कुम्भा, रानी दुर्गावती, रानी पद्मनी, रानी कर्मावती,
भक्तिमति मीरा मेड़तनी, वीर जयमल मेड़तिया, कुँवर शालिवाहन सिंह तोमर,वीर छत्रशाल बुंदेला, दुर्गादास राठौर, कुँवर बलभद्र सिंह तोमर,मालदेव राठौर, महाराणा राजसिंह,
विरमदेव सोनिगरा, राजा भोज, राजा हर्षवर्धन बैस, बन्दा सिंह बहादुर इन जैसे महान योद्धाओं को नही पढ़ाया/बताया जाता है, जिनके नाम के स्मरण मात्र से ही शत्रुओं के शरीर में आज भी कंपकंपी शुरू हो जाती है।