राजनांदगांव। दिग्विजय कालेज के प्राध्यापक और प्रखर वक्ता डॉ. चंद्रकुमार जैन ने राष्ट्रसंत तुकड़ो जी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर में आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में विशिष्ट अतिथि वक्ता के रूप में प्रभावी भागीदारी की। अकादमिक हिंदी के बहुआयामी पहलुओं पर एकाग्र यह संगोष्ठी विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिंदी विभाग की ऐतिहासिक उपलब्धि सिद्ध हुई। डॉ. जैन ने कुलपति प्रोफ़ेसर डॉ. सिद्धार्थ विनायक काणे सहित हिंदी साहित्य और भाषा के धुरंधर विद्वानों के साथ मंच साझा करते हुए हिंदी में अनुसंधान और उसकी चुनौतियों पर विचारोत्तेजक व प्रेरक चर्चा की।
संगोष्ठी के प्रथम तकनीकी सत्र के दौरान डॉ. चन्द्रकुमार जैन विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के प्रोफ़ेसर एवं हिंदी विभाग अध्यक्ष डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा और उस्मानियायूनिवर्सिटी हैदराबाद के प्रोफ़ेसर डॉ. एम. वेंकटेश्वर के साथ मंचस्थ थे। प्रारम्भ में संगोष्ठी के संयोजक डॉ. मनोज पांडेय ने डॉ. जैन सहित अतिथि वक्ताओं का शाल, श्रीफल और पुष्प गुच्छ भेंट कर आत्मीय स्वागत और सम्मान किया।
राष्ट्रीय संगोष्ठी में हिंदी अनुसन्धान पर बोलते हुए डॉ. जैन ने कहा कि जिज्ञासा की शांति और नए ज्ञान के प्रसार में शोध की बड़ी भूमिका है। अज्ञात और कम ज्ञात तथ्यों की खोज शोध का आधार है। अन्धविश्वास और गलत धारणाओं से मुक्ति शोध का उद्देश्य होना चाहिए। उपलब्ध ज्ञान की बार बार परीक्षा करना और उससे जुड़े संदेहों को दूर करना भी अनुसंधान का अहम पहलू है। लेकिन, डॉ. जैन ने कहा कि शोध कार्य में शोधार्थी के साथ शोध मार्गदर्शक की योग्यता, कुशलता और ज्ञानपिपासा का भी अलग महत्त्व है। इसलिए अनुसन्धान की यह चुनौती है कि निदेशक के माध्यम से शोध विषय और उनके अध्ययन की दिशा, पथ और उसकी बाधाएँ स्पष्ट रहें। समस्या समाधान के लिए उपयोगी सामग्री की कोई कमी न रहे। शोधार्थी में एकाग्रता के अतिरिक्त धीरज हो, मेहनत के साथ मंजिल तक पहुँचने की तड़प भी हो तो शोध की राह आसान होती जाती है।
डॉ. जैन ने आगे कहा कि शोध कार्य में समय सीमा का पालन भी एक चुनौती है। शोध का स्तर बनाये रखना एक बड़ी जिम्मेदारी है। समस्या की समझ, सही परिकल्पना, विस्तृत रूपरेखा, उचित और पर्याप्त सामग्री, सामग्री का उपयोगी चयन, गहन अध्ययन, सटीक लेखन और अंत में अपने शोध कार्य की प्रभावशाली प्रस्तुति शोधार्थी के गुण हैं। शोध निर्देशक को भी मूल विषय के साथ साथ अन्य विषयों की जानकारी रहे और अभिव्यक्ति में भी वह निपुण हो सोने में सुहागा जैसी बात है। शोध करने वाले की दृष्टि पैनी हो। उसमें उत्साह हो, अनुशासन और कार्य के प्रति पूर्ण समर्पण भी तो बात बनते देर नहीं लगती है। डॉ. जैन ने शोध कार्य में आई गिरावट के कारणों की पड़ताल करते हुए दोटूक उदाहरण भी पेश किए जिसे सुनकर यूनिवर्सिटी का भव्य सभागृह करतल ध्वनि से देर तक गूंजता रहा। व्याख्यान के दौरान अपनी काव्यमय शैली से डॉ. जैन ने युवाओं का मन जीत लिया।