Tuesday, November 26, 2024
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Homeधर्म-दर्शनअथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में राष्ट्रभक्ति

अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में राष्ट्रभक्ति

सृष्टि की उत्पति से पूर्व कहीं भूमि दिखाई नहीं देती थी | सब और जल ही जल दिखाई देता था और यह भूमि जल में समाई हुई थी | यह भूमि ही सेवा के योग्य है | इसकी रक्षा करना हमारे लिए आवश्यक है | कुछ यह ही इस वेद मन्त्र का विषय है | आओ मन्त्र और उसके भावों का अवलोकन करें :-

यार्णवेSSSƧधिसलिलमग्न आसीद्या मायाभिरन्वचरन् मनीषिण: |
यस्यां हृदयं परमे व्योमन्त्सत्येनावृतममृतं पृथिव्या: |
सा नो भूमिस्त्विषिं बल राष्ट्रे दधातूत्तमे || अथर्ववेद १२.१.८ ||

मन्त्र ने बड़ा सुन्दर उपदेश दिया है कि जो मातृभूमि प्रलय की अवस्था में जल में डूबी हुई थी , बुद्धिमान् लोग इसकी सेवा में रहते हैं | यह हमें यश और कीर्ति देती है , राष्ट्र मे उत्तम गुणों को बढ़ाती है | सदा सत्य से आवृत रहती है | इसमें परमात्मा का निवास है | यह सांस्कृतिक परम्पराएं ही राष्ट्र की धरोहर हैं | इससे ही सब बाधाएं दूर होती हैं | आओ अब मन्त्र को विस्तार से समझने का प्रयास करें |

भूमि जल के गर्भ में थी

हमारी यह मातृभूमि प्रलय की अवस्था में कहीं भी दिखाई नहीं देती थी क्योंकि उस समय यह भूमि जल के गर्भ में थी अर्थात् जल में डूबी हुई थी | जब परमपिता परमात्मा ने नई सृष्टि का निर्माण आरम्भ किया तो इस भूमि को जल से बाहर निकाला | इस भूमि का जो भाग सब से पूर्व जल से बाहर दिखाई दिया , इस भाग पर ही प्रभु ने सृष्टि का निर्माण किया |
बुद्धिमान लोग सेवा करते हैं।

ऐसी मातृभूमि , जो जल से निकाली गई और जिस पर सृष्टि का निर्माण किया गया , की सेवा के लिए भी अनेक लोग आगे आते हैं | इन लोगों को हम बुद्धिमान् लोगों के रूप में जानते हैं | यह बुद्धिमान् अपनी अनेक प्रकार के कौशल से युक्त , अनेक प्रकार की विशेषताओं से युक्त बुद्धियों से इस मातृभूमि की सेवा करते हैं |
मातृभूमि तेजस्विता अदि को बढ़ावे

यह मातृभूमि हमारा विस्तार करने वाली हो अर्थात् हमारे कार्यों को आगे बढ़ाने वाली हो , इस मातृभूमि का हृदय अमरता को संजोए रहता हो और हमारा परम रक्षक हो | परमपिता परमात्मा आकाश की भाँति अत्यधिक व्यापक है | उस प्रभु का न तो आदि का कोई छोर दिखाई देता है और न ही अंत का कोई छोर दिखाई देता है जैसा की आकाश की अवस्था होती है , वैसे ही प्रभु भी असीमित है | इतना ही नहीं वह प्रभु सत्य स्वरूप होने के कारण सदा सत्य से ढाका रहता है | इन सब गुणों से युक्त हमारी मातृभूमि हमारे उत्तम राष्ट्र में भी यह सब उत्तम गुण धारण करे यथा :-
तेजस्विता —- राष्ट्र में तेजस्विता का गुण लावे , जिस से राष्ट्र तेजस्वी बने |
विद्वत्ता —-हमारे राष्ट्र में विद्वत्ता का प्रसार करे अर्थात् हमारे राष्ट्र के लोग विद्वान् हों वेदादि शास्त्रों का स्वाध्याय करने वाले हों |
शूरता —– शूरता प्रत्येक देश की शान होती है | मातृभूमि हमें शूरता का गुण भी दे |
शक्तिमत्ता — शक्ति के बिना तो कोई देश सुरक्षित ही नहीं रह सकता |

जब मातृभूमि ही सुरक्षित नहीं होगी तो हम, कैसे सुरक्षित रह सकते हैं ? इसलिए मातृभूमि हमें शक्तिमत्ता भी दे | इसके अतिरिक्त भी जो कुछ और गुण किसी भी मातृभूमि और उसके निवासियों के लिए आवश्यक होते हैं ,वह सब गुण हमें प्रचुर मात्रा में दे | भाव यह कि हमें सब प्रकार के गुणों का स्वामी बना दे |

इस सब का भाव यह है कि हे मातृभूमि ! तेरा हृदय सदा सत्य के आवरण से आवृत रहता है | इतना ही नहीं तेरी संस्कृति का आधार भी सत्य ही होता है | जो सदा सत्य से आवृत हो तथा जिसकी संस्कृति का आधार भी सत्य हो तो सत्य स्वरूप होने के कारण परमपिता परमात्मा का निवास भी वहां ही होता है | इस से स्पष्ट है कि सत्य संस्कृति की पौषक और सत्य से आवृत हमारी मातृभूमि में ही प्रभु निवास करते हैं |

जब – जब नई सृष्टि का जन्म होता है , तब से ही इस भूमि पर संस्कृति का प्रवाह आरम्भ होने लगता है | अत: हमारी मातृभूमि या यूँ कहें कि हमारे राष्ट्र में प्राचीन काल से ही एक सांस्कृतिक परम्परा निरंतर प्रवाहित होती चली आ रही है | यह पवित्र सांस्कृतिक परम्परा रूपी जीवन को अमृत्व देने के लिए हमारे राष्ट्र में कुछ गुणों की आवश्यकता होती है यथा :-

संस्कृति —- संस्कृति वास्तव में एक जीवन पद्धति का नाम है | हम ने कहाँ और कैसे रहना है , क्या धारण करना है | एक दुसरे से तथा अपने विभिन्न सम्बन्धियों से कैसा व्यवहार करना है | इस सब को ही संस्कृति कहते हैं | सादा जीवन उच्च विचार ही संकृति है | मातापिता की अगया का पालन और गुरु का आदर ही संस्कृति है | आगंतुक का अभिवादन ही संस्कृति है और हमारी संस्कृति का आधार हैं चार वेद | चार वेदों का निरंतर स्वाध्याय करना और इस के उपदेशों को अपने जीवन में उतारना ही वास्तव में मुख्य रूप में संकृति कही जाती है |
आस्तिकता —- प्रभु में विशवास का नाम ही आस्तिकता है | जब हम प्रभु में पूर्ण विश्वास रखते हुए , उसकी निकटता पाने का यतन करते हैं , उसकी गोदी में बैठने के अधिकारी बनने का प्रयास करते हैं , तो हम आस्तिकता की और बढ़ रहे होते हैं |
आध्यात्मिकता —- जो आस्तिकता से लबालब प्राणी है , वह ही आध्यात्मिक होता है | प्रभु में पूर्ण विश्वास , सत्य में आचरण करने वाला व्यक्ति पूर्ण रूप से आध्यात्मिक कहा जा सकता है |

अत: हम अपने सांस्कृतिक जीवन को अमर बनाने के लिए इन सब गुणों को धारण करें अथवा हमारी मातृभूमि यह सब गुण हमें दे |
बाधाओं को दूर करने की शक्ति

जब हमारी मातृभूमि हमारे पुरुषार्थ के परिणाम स्वरूप हमारे सांस्कृतिक जीवन को अमर बनाने के लिए संस्कृति , जब हमारी मातृभूमि हमारे सांस्कृतिक जीवन को अमर बनाने के लिए राष्ट्र की संस्कृति , सत्यता , आस्तिकता और आध्यात्मिकता से हमें प्रेरित करती है तो हम में सब प्रकार के विघ्नों को , सब प्रकार की बाधाओं को दूर करने के लिए प्रतिरोधक तत्व यथा प्रतिरोधक शक्ति , तेजस्विता तथा बल पैदा होता है | जिस के पास यह शक्तियां आ जाती हैं वह निश्च्य ही उच्च संस्कृति का स्वामी होता है |

डा. अशोक आर्य
पाकेत १/६१ प्रथम तल रामप्रस्थ ग्रीन
से. ७ वैशाली २०१०१२ गाजियाबाद , उ.प्र.भारत
चलभाष ९३५४८४५४२६
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