इस संपादकीय के बाद शायद “प्रजातंत्र’ को सांप्रदायिक करार दे दिया जाए। कुछ लोग यह भी कहेंगे कि देखिए, यही है आजकल की हिंदी पत्रकारिता का असली चेहरा। जिसमें मुसलमानों पर निशाना साधा जा रहा है। इन अखबारों को पढ़ना बंद कर दीजिए। जैसे हमने बरसों पोलियो के टीके नहीं लगवाए और जैसे महामारी के इस दौर में हम अपनी बीमारी छिपाकर घरेलू इलाज से उसे ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं, वही कीजिए।
जब पूरा शहर महामारी के मुहाने पर खड़ा है और सबसे ज्यादा बीमारी का कहर उन सघन मुस्लिम बस्तियों में है, जहां न तो पर्याप्त सुरक्षा है और न ही लोग बीमारी और बीमारों का पता बताने को तैयार हैं- इस बात को साफ तौर पर समझ लीजिए कि आपकी जिद के चलते इंदौर शहर की जनता खुद को दांव पर लगाने को तैयार नहीं है। और इसमें वे मुस्लिम भी शामिल हैं, जो आपको समझा-समझाकर परेशान हो गए। आफत इसलिए भी बढ़ गई है, क्योंकि पढ़े-लिखों से ज्यादा आपके दिमाग पर वे लोग असर डाल रहे हैं, जो कभी स्कूल नहीं गए और मजहब की घुट्टी पिला-पिलाकर जिन्होंने अपनी टपरी सजाई हुई है।
कल अलग-अलग जगहों से तीन वीडियो मोबाइल पर आए थे। पहला उन मौलाना का था, जो इस बात पर बहस कर रहे थे कि मस्जिद में 15 लोग इकट्ठा हो जाएंगे तो क्या हो जाएगा? क्योंकि सरकारी अमले के आप लोग जो हमें रोकने आए हैं, आप भी तो 15 हैं। इस मौलाना की बुद्धि में सूराख कर कोई कैसे समझाए कि ये अपनी जान पर खेलकर आए हैं, ताकि तुम्हारी जान बचा सकें।
दूसरा वीडियो उत्तर प्रदेश का था, जिसमें 15-20 लोग एक बंद कमरेनुमा जगह पर प्रतिबंध होने के बावजूद नमाज पढ़ रहे हैं। नमाज पढ़ने से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन जब प्रशासन कह रहा है इकट्ठा मत होइए, यह कानून का उल्लंघन है तो कानून को तोड़कर महामारी के दौर में सिर्फ मस्जिद जाकर ही इबादत करने को ईश्वर भी मंजूर नहीं करेगा। यहां सवाल सिर्फ उन लोगों का नहीं था, जो इकट्ठा हुए थे। बल्कि उन लोगों का है, जिन्हें इनमें से कोई भी वायरस दे सकता है। यहां एक छोटा बच्चा भी था और काफी जगह होने के बावजूद सब इतने नजदीक बैठे थे कि जैसे उस कमरे की चौखट पर पहले ही महामारी को फूंक मारकर बाहर बांध दिया गया हो। क्या आप देश के कानून से ऊपर हैं? और जब उसका पालन करवाया जाए तो आप कहने लगते हैं कि देखिए, ये जालिम सरकार कैसे मजलूमों पर कहर ढा रही है!
डंडे तो पड़ेंगे, फिर आप मुस्लिम हों या हिंदू। आपकी मूर्खता का खामियाजा बाकी सारे हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई नहीं भुगतेंगे। बुजुर्ग नहीं भुगतेंगे, बच्चे नहीं भुगतेंगे। अगर लॉकडाउन के बाद कुछ मूर्ख हिंदू जुलूस निकालेंगे तो उन्हें भी उतने ही डंडे पड़ेंगे जितने आपको लॉकडाउन तोड़कर इकट्ठा होने पर पड़ने चाहिए।
तीसरा और सबसे ज्यादा दिल दहलाने वाला वीडियो इंदौर का था और उस इलाके का था, जहां से सबसे ज्यादा कोरोना के मरीज मिल रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग की टीम जब उनके घरों पर दस्तक दे रही थी तो आप उन पर थूक रहे थे, उन्हें गालियां दे रहे थे, उन्हें धमका रहे थे और इसका वीडियो बना रहे थे, ताकि बाकी लोगों को यह संदेश मिल जाए कि इन टीमों के साथ क्या करना है। और जब पुलिस-प्रशासन सख्ती करेगा तो आप जोर-जोर से रोने लगेंगे कि पहले तो सिर्फ दिल्ली ही थी, अब ये भी…।
ये “विक्टिम कार्ड’ खेलना बंद करिए। इलाज कराइए। दिमाग का भी और कोरोना का भी। कोरोना से पहले दिमाग का। क्योंकि पिछले कुछ सालों में जैसे-जैसे उनके पाजामे की लंबाई इंच-दर-इंच कम होती गई है, आपने मौलाना आजाद से लेकर जावेद अख्तर और डॉ. अब्दुल कलाम से लेकर मौलाना वहीदुद्दीन खान तक की नसीहतों को खुद से दूर कर लिया है और कठमुल्लों ने उल्टे उन्हें जाहिलों की श्रेणी में डाल दिया है। सबको छोड़िए, अपनी मुकद्दस किताब को एक बार फिर पढ़िए। वह विज्ञान की बात करती है, वह इनसानियत की बात करती है। और जब-जब अंधेरा घना हो, उससे बाहर कैसे निकला जाए इसकी बात करती है।
इस बात को भी साफ तौर पर समझ लीजिए कि बीमारी का धुआं आपके घर से निकलकर आसपास फैल रहा है। अभी तो दरवाजे बंद हैं, लेकिन जब ये आपकी गलतियों के कारण दूर दूसरों के घरों में घुसने लगेगा तो फिर हिंदू या मुस्लिम सब अपने दरवाजे खोलेंगे और यह धुआं बुझाने निकलेंगे।
याद रखिए… धुआं आंखों में सिर्फ पानी लाता है। बिना यह देखे कि आंखें हिंदू की हैं या मुसलमान की। लिहाजा अपने तईं पूरी कोशिश कीजिए कि आप इस खूबसूरत दुनिया को बचाने में क्या भूमिका निभा सकते हैं।
#अल्लाह सब देख रहा है…
क्योंकि अब अल्लाह ने भी तय किया है कि वह देखेगा कौन उसके बताए दीन-ओ-ईमान पर नहीं चल रहा है? वह यह भी देखेगा कि कैसे “पोंगा पंडित’ अपना नाम बदलकर उस मजहब में भी घुस आए हैं, जहां ऊपर वाले और उसके बंदे के बीच किसी की जगह नहीं थी? वह यह भी देखेगा कि कैसे कुछ जाहिलों ने उसका नाम लेने वाले हजारों बंदों की जान एक महामारी के दौरान मरकज़ में जोखिम में डाल दी? वह यह भी देखेगा कि इंदाैर में महामारी का इलाज करने वाले जब मरीजों के घर जा रहे थे तो किसके कहने पर उनके ऊपर थूका गया?
असल में यह निज़ामुद्दीन का मरकज़ है ही नहीं। हो भी नहीं सकता। वह तो सिर्फ निज़ामुद्दीन इलाके में तबलीगी ज़मात का एक बड़ा दफ्तर है, जो वहाबी विचारों के सबसे बड़े झंडाबरदार देवबंद के “दारूल उलूम’ द्वारा चलाए जा रहे कई संगठनों में से एक है। एशिया में सूफी परंपरा के सबसे बड़े संवाहक हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह जहां है वहां लाखों हिंदू और करोड़ों मुस्लिम हर साल सजदा करने पहुंचते हैं। उनका इन तबलीगियों से कोई नाता नहीं। तबलीगी ज़मात के लाेग ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाना किसी पाप से कम नहीं समझते। आखिर समझेंगे भी क्यों नहीं? अमीर खुसरो के गुरु हजरत निज़ामुद्दीन प्रेम, भाईचारे और इंसानियत की बात जो सिखाते हैं।
खैर!
तो इसी तबलीगी ज़मात के मरकज़ में हुई इस घटना में ज़मात का बचाव करने के लिए तर्क गढ़े जाने लगे। कहा गया कि 24 मार्च को ही थाने पर सूचना दे दी थी कि अंदर 1000-1500 लोग मौजूद हैं। उन्हें बाहर निकालने के लिए गाड़ियों के “पास’ बना दिए जाएं। और स्थानीय प्रशासन जब व्यस्तता के चलते पास नहीं बना पाया तो सारा कसूर सरकार का और प्रशासन का। क्योंकि हमने तो पत्र लिख दिया था। और सुबह-सुबह उस पत्र को सोशल मीडिया पर डाल भी दिया था।
अब कोई हमसे यह न पूछे कि 12 मार्च को जब दिल्ली सरकार ने महामारी एक्ट लागू कर दिया था और 13 मार्च को 200 से ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने पर पाबंदी थी, 16 मार्च को 50 से ज्यादा लोगों का एक जगह रहना गैरकानूनी था, 19 मार्च को 20 लोग भी एक साथ नहीं रह सकते थे और 21 मार्च को पांच लोगों के भी एक साथ होने पर कानून का उल्लंघन हो रहा था तो आप 24 मार्च तक क्या करते रहे? आपने पुलिस, प्रशासन, सरकार या मीडिया को क्यों नहीं बताया कि आपने अपने दफ्तर (इसे यहां मरकज़ पढ़ा जाए) में दुनियाभर से आए दो-ढाई हजार देसी-विदेशी लोगों को क्यों जमा किया हुआ था? और आपने जिन एक-डेढ़ हजार लोगों को वहां से रवाना करने की बात कही है, क्या आपकी जिम्मेदारी नहीं थी कि सरकार से पूछते- महामारी के इस दौर में हम अपने इन “शांतिदूतों’ को देशभर की मस्जिदों और मदरसों में भेजें या नहीं?
छोटे भाई का पाजामा और बड़े भाई का कुर्ता पहने इन्हीं में से कई “शांतिदूत’ इंदौर से लेकर हैदराबाद और मुंबई से लेकर सुदूर उत्तर तक कोरोना वायरस के वाहक बने। मरकज़ के इंतजाम अली और प्रमुख मौलाना साद पर तो इन लोगों की तरफ से भी मुकदमा चलाया जाना चाहिए, जो उस मुकदमे से अलग हो। जिसमें वे 18 मार्च को इसी मरकज़ में अपनी तकरीर में कह रहे हैं कि भले ही जान चली जाए, मस्जिद मत छोड़ना। हर पढ़ा-लिखा मुसलमान और इस्लाम के जानकार जब मस्जिदें बंद करने का सुझाव दे रहे थे, तब ये जनाब इस्लाम के नेक बंदों को बिना इलाज मस्जिद में ही अंतिम सांसें गिनने की सलाह दे रहे थे। यहां हम उस कानूनी नियम की बात तो खैर कर ही नहीं रहे हैं, जिसके तहत टूरिस्ट वीजा पर आए ये लोग किसी धार्मिक प्रचार के कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकते। खैर हमारी राज्य सरकारें इतनी उदार और निकम्मी हैं कि इस तरह के नियम कभी सख्ती से लागू नहीं करा पातीं।
असल में परेशानी यह है कि जब भी मुस्लिम समाज के सामने कुछ चुनने का मौका आया तो उसने हमेशा जल्दबाजी की और गलत चुनाव किया। जैसे बिना सोचे-समझे जल्दबाजी में मरकज़़ के साथ आ गए या 1947 में जैसे मोहम्मद अली जिन्ना के साथ जाने को खड़े हो गए थे। तब भी आपके-हमारे पुरखे मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने जामा मस्जिद से कहा था- रुक जाओ, यही तुम्हारा वतन है। फिर भी लोग चले गए उस इस्लामिक राष्ट्र के लिए, जो घोषित तौर पर एक नास्तिक ने बनवाया। जो शराब पीता था और इंग्लैंड में पढ़ाई पूरी करने तक जिसका नाम एमए जिन्ना था। जिन जवाहरलाल नेहरू को अब मुस्लिम समाज अपना पैरोकार मानता है, उन्होंने तब कहा था- जिन्ना को देखकर ऐसा शख्स याद आता है, जिसने खुद अपने मां-बाप का कत्ल कर दिया हो और फिर वह अदालत से अपना जुर्म माफ करने की अपील इस आधार पर कर रहा है कि वह अनाथ है…।
यह आलेख छपने के बाद इस लेखक को और इस आलेख को पसंद करने वालों को फिर सांप्रदायिक करार दिया जा सकता है। असल में यह बहुत आसान काम है। जिस दिन आपके मन की बात न हो, आपके धर्म या मजहब के लोगों की हरकतों पर सवाल उठा दिए जाएं, उसी पल से आप सांप्रदायिक करार दे दिए जाएंगे। लेकिन, इस देश की धर्मनिरपेक्षता का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि पाकिस्तान का विचार देने वाले अल्लामा इकबाल का तराना “सारे जहां से अच्छा…’ आज भी पूरा हिंदुस्तान गाता है। पिछले दिनों नागरिकता कानून की जब बात बिगड़ी तो शहर में धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े पैरोकार और कानून के जानकार आनंद मोहन माथुर ने कई-कई बार फोन करके “प्रजातंत्र’ को उसके निष्पक्ष होने और सही को सही तथा गलत को गलत कहने के लिए हौसला अफज़ाई की।
दरअसल, भारत के मुसलमानों की विडंबना ही यही है कि आपको यह नहीं पता कब, किस बात पर साथ देना है और किस बात का विरोध करना है। अरब देशों को इतने बरसों तक आप अपना रहनुमा समझते रहे, लेकिन जब महामारी का संकट आया तो उन्होंने बिना भेदभाव किए हिंदू-मुसलमानों को लतिया कर देश के बाहर का रास्ता दिखा दिया। वह भी बिना इलाज किए। और इसी जन्मभूमि ने आपका स्वागत किया, आप घरों में छिप गए तो सरकारी अमला आपके दरवाजे तक आया। आपकी बीमारी का हाल पूछने। बदले में आपने क्या दिया- जरा सोचिएगा। बात इंदौर की कर रहा हूं।
यकीन मानिए, भारत से ज्यादा धर्मनिरपेक्ष देश और लोग कहीं नहीं हैं क्योंकि धर्मनिरपेक्षता हमारे खून में है। एक बात और। धर्मनिरपेक्षता का धर्म या मजहब से कोई वास्ता नहीं है। सिर्फ तालीम से है…।
कुछ नहीं तो कम से कम मज़हब की ही बात मान लो…
हदीस : हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ के मुताबिक, हज़रत मुहम्मद (स.) ने फ़रमाया कि “अगर आप को पता लगे कि किसी जगह महामारी फैली है तो उस जगह मत जाओ और अगर ये महामारी उसी जगह फैली है जहां आप हो तो उस से बचने के लिए बाहर मत जाओ।”
(सही बुख़ारी – वॉल्यूम 7, किताब 71, नंबर 626)
नीतिशास्त्र : नीतिशास्त्र के सबसे बड़े ध्वजवाहक आचार्य चाणक्य ने स्पष्ट तौर पर कहा था- यदि शत्रु अदृश्य है तो छुप जाइये।
चरक संहिता : महर्षि चरक ने सैकड़ों वर्ष पूर्व चिकित्सकों को कहा था कि उनका कर्तव्य है कि हर परिस्थिति में वे मरीज का ईलाज करें।
धर्म, राजनीति और चिकित्सा तीनों इस वक्त एक साथ कह रहे हैं कि बाहर मत निकलिए, खुद को घर में बंद रखिए और जरूरी है तो चिकित्सक के पास जाकर ईलाज करवाइये क्योंकि वह अपनी जान की परवाह किए बगैर अपने उस धर्म का पालन कर रहा है जिसे दुनिया के हर धर्म ने सबसे पहले रखा है- इंसानियत।
अफसोस इस बात का है कि अपने वक्त के इस सबसे नाजुक दौर में भी हम धर्म, राजनीति और चिकित्सा को नज़रअंदाज कर, आंखों पर पटि्टयां बांधे अपने परिवार के साथ खुद को ईलाज से महरूम रखकर उस अंधे कुएं की तरफ जा रहे है जिसकी परिणति सिर्फ मौत है। क्योंकि हम इतने जाहिल हैं कि खुद कुछ पढ़ना-समझना नहीं चाहते। हम ऊपर वाले के प्रति इतने बेगैरत हैं कि उसकी दी हुई जान को कुछ बेअक्ल और हमसे बड़े जाहिलों के कहने पर दांव पर लगाने को तैयार हैं।
और इसका कारण क्या है? पहला कारण यह है कि हमारे वजनदार मज़हबी रहनुमाओं ने बिना रोशनदान की कोठरी के भीतर डाईबिटीज़ की ऐलोपैथिक गोलियां खाने के बाद अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए और ‘टूथ पीक’ से दांतों के बीच सफाई करते हुए कहा है- कहीं मत जाइये, मौत आनी है तो कोई बचा नहीं पाएगा।
और दूसरा कारण, ऐसे शैतानी मैसेज हैं जो कह रहे हैं कि कोरोना के नाम पर मुस्लिम बस्तियों से मुसलमानों को जांच के लिए ले जाएंगे और वहां कोरोना पॉजिटिव की फर्जी रिपोर्ट बनाकर रोक लेंगे। फिर काफ़िर ज़हर का इंजेक्शन लगाकर मार देंगे।
क्या कोई भी पढ़ा-लिखा हिंदू-सिख-मुस्लिम या इसाई इस बात पर यकीन करेगा कि भारत में कोई भी सरकार ऐसा कर सकती है? क्या किसी सरकार के प्रति आपका इतना अविश्वास और डर आपको पूरे भारतीय जनमानस से अलग-थलग नहीं कर रहा? आपके चंद लोगों के दिमाग में बैठा ये फितूर पूरी कौम का कितना नुकसान कर रहा है और आगे भी करेगा- इसका कोई अंदाज़ा भी लगाया है आपने?
मैं मोदी सरकार के दसियों निर्णय से इत्तेफ़ाक नहीं रखता लेकिन एक भारतीय और एक हिंदू होने के नाते मैं यह सवाल तो आपसे कर ही सकता हूं कि ज़रा बताइये- इस सरकार ने आने के बाद आप पर कौन-कौन से ज़ुल्म ढा दिए? अपने तीस साल के पत्रकारिता के पेशे में एक बात जो मैंने 2002 से 2010 के बीच मुंबई में देखी वह तो और ज्यादा खतरनाक थी। देश भर में उस समय जगह-जगह बम विस्फोट हो रहे थे और मुंबई में तो सबसे ज्यादा। क्या आप उस विदेश से अपने घर छुटि्टयां मनाने आए ख़्वाज़ा यूनुस की कहानी भूल गए जिसे महाराष्ट्र पुलिस ने पिकनिक मनाते हुए उठाया था और फिर पुलिस लॉकअप में उसकी मौत हो गई? तब वहां भाजपा की सरकार थी या कांग्रेस की? केंद्र और राज्य में दोनों जगह मौजूद कांग्रेस की सरकारों ने तब देश भर में मुस्लिम लड़कों पर जितने जुल्म ढाए, वह अपने आप में किसी जनसंहार से कम नहीं था।
यहां उस बात का जिक्र इसलिए नहीं है कि कांग्रेस को भी भाजपा के बराबर साबित करना है बल्कि इसका मकसद आपको यह स्पष्ट करना है कि भाजपा को यदि आप दुश्मन मानते हैं तो कांग्रेस भी कोई आपकी दोस्त नहीं है। राहुल गांधी ने कोरोना को लेकर ट्वीट किया और घर बैठ गए। वे चाहते तो अपनी पार्टी के निचले स्तर तक के नेताओं को कहते कि आप लोगों को घरों से बाहर आने को कहें, जांच कराने को कहें। लेकिन वे घर में बैठ गए क्योंकि उन्हें पता है कि कोई भी सरकार वही करती जो भाजपा सरकार कर रही है।
बस यह बात आपको नहीं पता। क्योंकि आप भूल गए कि आपकी पवित्र किताब इल्म यानी पढ़ने के हुक्म से शुरू हुई है। लेकिन आप न तो इतिहास पढ़ते हैं और न विज्ञान। अब यह मत कह दीजिएगा कि यह तो पूरी कौम पर तोहमत लगा रहे हैं। बात यहां सिर्फ उनकी हो रही है जो मज़हब की आड़ में जांच नहीं करवा रहे और जिनकी तालीम सिर्फ फिरकापरस्तों ने की है। परेशानी यह है कि जिस ईलाज को हमें विज्ञान में ढूंढना चाहिए उसे हम मज़हब में ढूंढने लगते हैं। फिलहाल जो चल रहा है वह धर्म का तो मुद्दा ही नहीं है। निज़ामुद्दीन मरकज़ में जो लोग थे वे बेहद धार्मिक थे। हो सकता है नेक भी हों। लेकिन देश का सवाल यह है कि उनसे कोरोना फैला या नहीं? और जैसे ही यह बात उठाई गई तो आप ‘विक्टिम कार्ड’ खेलने लगे। सोशल डिस्टेंसिंग की बात कही जाने लगी तो आपको बुरा लगने लगा।
अरे भाई, आप पैगंबर मोहम्मद साहब की बात मान लो, चाणक्य की बात मान लो, चरक की बात मान लो, राहुल गांधी की बात मान लो- ईलाज तो करवा लो। ईलाज करने टीम आती है, आप फिर पत्थर फेंकने लगते हो। फिर पुलिस सख्ती करती है तो कांग्रेस को याद करने लगते हो।
एक बात खुले दिमाग से समझना जरूरी है। वह यह कि यदि कांग्रेस की सरकार होती तो वह भी यही करती। अब भी समय है- ईलाज कराओ। अपने मज़हब और घर में रोशनदान बनाओ, फिर देखो इल्म की रोशनी से मुल्क और कौम कैसे रोशन होते हैं…।
*नमाज़ पढ़ने के लिए तेरी क़सम, जिंदा रहना भी जरूरी है सनम*
मुआफ़ी… बहुत मुआफ़ी! दिल की गहराइयों से। डॉक्टर्स से, प्रशासन से, पुलिस से और उन तमाम लोगों से, जो इस समय इंसानियत को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।
बिलकुल यही मजमून है, जो कल रात से अचानक बदला है। दावे, तर्क, काट और अस्त्र रख दिए गए हैं और उन ज़ाहिलों को समझाने की गंभीर कोशिश शुरू हुई है, जो सिर्फ आंखों पर पट्टी और दिमाग पर ताला डालकर अपने दड़बों में ऊपरवाले द्वारा तय की गई “स्टॉप वॉच’ की टिक-टिक सुनने के बाद भी तय नहीं कर पा रहे कि उनके पास समय कितना बचा है।
अरे ज़ाहिलों… नमाज़ पढ़ने के लिए भी तो जिंदा रहना जरुरी है।
तुमने सबसे ज़रुरी समय तो हिंदू-मुस्लिम करने में निकाल दिया। तुम मरकज़ में बैठे रहे (छुपे थे या फंसे थे, एक ही बात है) और बीमारी देते गए। जब सवाल किए तो पलटकर कहा- वैष्णोदेवी और शिर्डी में भी तो लोग थे। वे फंसे और हम छुपे? हां, दोनों में अंतर था। 400 से ज्यादा अंकों का अंतर। तुम अपनी ज़ाहिलियत में बीमारी लेकर बैठे रहे और अपनाें को भी बीमार करते रहे। वे बीमार होकर भी इलाज करवाते रहे। ठीक होते रहे।
यही अंतर है दोनों में। इसके बावजूद कि ज़ाहिल इधर भी कम नहीं जिन्हें सोलापुर में कर्फ्यू के दौरान उन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जन्मदिन का जुलूस निकालना था, जिन्हें रावण से युद्ध ही इसलिए लड़ना पड़ा कि उनके भाई द्वारा बनाई गई लक्ष्मण रेखा को उनकी पत्नी ने दान देने के लिए लांघ दिया था। लेकिन सोलापुर वालों की हरकत से तुम्हारे गुनाह कम नहीं होंगे, क्योंकि ये न सिर्फ संख्या में बड़ा है, बल्कि इसका दायरा पूरा देश है। जमात के इस मरकज़ का दामन अब कभी साफ नहीं हो पाएगा। दो दर्जन नंबर वाले मुफ्ती और मौलाना ने तुम्हें ज्ञान और विज्ञान को नकारने की जो घुट्टी पिलाई थी वही आज तुम्हारे लिए सबसे बड़ी परेशानी का कारण बन गई है। शुक्र करो, कौम के ज्यादातर लोग तुम्हारे खिलाफ खड़े हो गए, ताकि तुम ज़िंदा रह सको।
तानाशाहों को अपनी उम्र लंबी करने के लिए ज़रूरी होता है कि वे पूरी तरह से विज्ञान को नकार दें। उनके लिए यह समझाना बेहद जरूरी होता है कि जो भी कुछ हो रहा है, वह सिर्फ और सिर्फ ईश्वर, सिर्फ और सिर्फ अल्लाह तथा सिर्फ और सिर्फ ईसा के इशारे पर हो रहा है। विज्ञान को नकार देंगे तो आपका मानसिक विकास नहीं होगा और जब मानसिक विकास नहीं होगा तो आप मानसिक ग़ुलामी में जिंदा रहेंगे। मानसिक ग़ुलाम रहेंगे।
मोहम्मद अली जिन्ना का बयान, उन पर की गई रिसर्च और किताब के अंश और भाजपा के शीर्ष नेता रहे लालकृष्ण आडवाणी की जीवनी “मेरा जीवन, मेरा देश’ का अध्ययन करें और उसके बाद उनके निजी जीवन पर ग़ौर करें तो जो एक बात सामने आती है कि वे दोनों नेता पूरी तरह से ग़ैर धार्मिक रहे। इन्हें धर्मनिरपेक्ष भी कह सकते हैं- यदि जिन्ना के भाषणों के अंश को देखें और आडवाणीजी के जीवन के निजी अंशों को लें। तो ये दो लोग जिन्होंने मुसलमानों और हिंदुओं को धर्म के नाम पर इकट्ठा किया, उनका असली चेहरा क्या था। यदि आप इनके असली चेहरे को देखेंगे तो इस तीसरे व्यक्ति की बात आपको आसानी से समझ आएगी। और इस तीसरे आदमी की बात है मानवता को बचाने की, इंसानियत को बचाने की। और यहां तो पूरी की पूरी सभ्यता ही दांव पर लग गई है। विज्ञान ने भी करीब-करीब हाथ टेक दिए हैं। परंतु विज्ञान चूंकि तथ्यों पर, ज्ञान पर, अनुभव पर और जीवन पर आधारित है, इसलिए इस मुश्किल दौर में भी जिंदगी की मुस्कुराहट का रास्ता खोज रहा है। मुझे मालूम है कि मैं तीसरा पक्ष हूं। मुसलमान मुझे हिंदू समझकर कोसेंगे, हिंदू मुझे मुसलमान का पैरोकार मानकर कोसेंगे। मगर मानवता, जब धीरे-धीरे सरककर मौत की तरफ बढ़ेगी और जब मरने से पहले उसकी आखिरी चीख निकलेगी तो मेरे पूर्वज चाहे वो राहुल सांकृत्यायन हों, चाहे राही मासूम रज़ा हों, चाहे अली सरदार ज़ाफरी हों, चाहे महाश्वेता देवी हों, चाहे अमृतलाल नागर हों, चाहे फैज़ अहमद फैज़ हों, चाहे भगत सिंह हों, चाहे पेरियार हों, चाहे आंबेडकर हों… तो उस समय जब मानवता को बचाने के लिए मेरी आखिरी चीख गूंजेगी तो उसमें इन सबकी आवाज़ और ताकत शरीक होगी। और जब उस आवाज़ की गूंज आपके कानों तक गूंजेगी तो आपको अहसास होगा कि एक सही समय पर, सही व्यक्ति सही बात कहकर मानवता को, इंसानियत को बचाने की अंतिम कोशिश कर रहा था। धार्मिक और गैरधार्मिक आवरण ओढ़े जब आप इन चीखों के बीच मानवता की आवाज़ सुन रहे होंगे, तब भी मेरा यह यकीन आखिरी सांस तक टिका रहेगा कि मैं सिर्फ मानवता से इस दुनिया को बचा लूंगा…।
(लेखक इन्दौर से प्रकाशित दैनिक प्रजातंत्र के संपादक हैं, उनके ये संपादकीय प्रजातंत्र में प्रकाशित हुए हैं )
साभार- https://prajaatantra.com/ से