उज्जैन में रहते हुए पूरे देश को मालवी कविताओं के रस से सारोबर करने वाले स्व. मोहन सोनी ने देश के जाने माने कवि स्व. बालकवि बैगारी, निर्भय हाथरसी, काका हाथरसी, नीरज, डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, निर्भय हाथरसी, हरिओम पँवार सहित कई दिग्गज हिंदी कवियों के साथ मंच साझा करते हुए मालवी भाषा को एक नई ऊंचाई और पहचान प्रदान की थी। माँ पर मालवी में लिखी गई उनकी ये रचना मालवी की मिठास और माँ की महिमा का सुखद एहसास कराती है।
मालवा का वासी-मालवा का मीठा मीठा रीत रिवाज,मालवा की सीली सीली रात-मालवा की बोली,मालवा की मनवार ने मालवा का सगला मालवी सेवी हुन का पग में म्हारी पाँवां धोक पोचे ।
म्हारा स्वर्गीय पिताजी को मालवी को यो गीत जो उनके भी भोत पसन्द थो…..हिरदा से आप तक पोंचई रियो हूँ ।
माता ने धरती माता सरग से बड़ी है
म्हारा पे तो दोई माँ की ममता झड़ी है।
एक ने जनम दियो , दूसरी ने झेल्यो
दोई माँ का खोला में हूँ एक साथ खेल्यो।
एक है बगीचों , दूजी फूल की छड़ी हे
म्हारा पे तो दोई माँ की ममता झड़ी है।
जायी माँ धवावे तो धरती धपावे
एक गावे लोरी , दूजी पालने झुलावे
भावना का सांते जाणे गीत की कड़ी है
म्हारा पे तो दोई माँ की ममता झड़ी है।
सिंघनी को पूत हूँ मै ,गाजूँ ने गजउँगा
धायो हे थान माँ को दूध नी लजउँगा
धरती को धीरज देखो पावँ में पड़ी है
म्हारा पे तो दोई माँ की ममता झड़ी है।
करजदार दोई को पन हिरदा से पूजी
जनम तंई समाले पेली, मरवा पे दूजी
जनम से मरण तक दोई हाजर खड़ी है
म्हारा पे तो दोई माँ की ममता झड़ी है।
ये कविता स्व, मोहन सोनी के पुत्र श्री प्रमोद सोनी ने हमें भेजी है