2006 में मधुर भंडारकर निर्देशित और बिपाशा बासु द्वारा अभिनीत एक फ़िल्म आई थी -‘कॉर्पोरेट’. यह फिल्म बाजार पर वर्चस्व के लिए दो उद्योगपतियों की आपसी जंग पर आधारित थी. मुनाफ़े के लिए राजनैतिक और आर्थिक साठगांठ को ज़ाहिर करती हुई यह कथा अंततः दोनों कारोबारियों के हाथ मिलाने और एक जज्बाती कर्मचारी के जेल जाने पर ख़त्म होती है. फिल्म का संदेश था- कंपनी के साथ भावनात्मक जुड़ाव हानिकारक हो सकता है.
यह भले ही काल्पनिक कथा हो, लेकिन कहते हैं कि कई बार सच कल्पना से कहीं ज्यादा दिलचस्प होता है. कॉर्पोरेट जगत की लड़ाइयों के लिए भी यह बात कही जा सकती है. इनमें जासूसी से लेकर, एक दूसरे के सबसे ख़ास कर्मचारियों को तोडना, दूसरी कंपनी के ख़िलाफ़ सरकार के कान भरना, आर्थिक नीतियों को अपने फायदे के हिसाब से तोड़ मरोड़ करना, कंपनी की साख बचाने के लिए कर्मचारियों की बलि दे देना और कभी-कभी तो हत्या जैसे काम भी अंजाम दे दिए जाते हैं.
80-90 के दशक में भारतीय उद्योग जगत की एक सबसे मशहूर लड़ाई लड़ी गई थी. यह जंग रिलायंस इंडस्ट्रीज के धीरूभाई अंबानी और बॉम्बे डाइंग के नुस्ली वाडिया के बीच हुई. इसका कैनवास मुंबई (तब बॉम्बे) ही नहीं, बल्कि दिल्ली की सत्ता के वे गलियारे भी थे जहां धीरूभाई और नुस्ली वाडिया की अच्छी-खासी पैठ थी और जहां हिंदुस्तानी मीडिया के जाने माने रामनाथ गोयनका का इंडियन एक्सप्रेस अख़बार भी था.
धीरूभाई और नुस्ली वाडिया का परिचय
दोनों एक दूसरे से जुदा थे. गुजरात के चोरवाड़ (आम भाषा में चोरवाड़ का मतलब है चोरों का स्थान) की गलियों से निकले धीरूभाई 70 का दशक आते-आते पॉलिएस्टर किंग बन चुके थे. उधर, नुस्ली वाडिया का परिवार तकरीबन 150 साल से जहाजरानी के व्ययसाय में था. नुस्ली का एक परिचय यह भी है कि वो मोहम्मद अली जिनाह के नवासे थे और दूसरी तरफ से वे टाटा खानदान से भी जुड़े हुए थे.
यह छिपी हुई बात नहीं कि लाइसेंस राज के दौर में मुनाफ़े बाजारों में बिक्री बढ़ाकर नहीं बल्कि सरकारी नियमों को तोड़-मरोड़कर किये जाते थे. उस दौर में ज़्यादा उत्पादन करना भी एक जुर्म था. कहते हैं कि धीरूभाई में आगे बढ़ने की ज़बरदस्त भूख थी और इसके लिए वे सारे-नियम कायदे ताक पर रखना जानते थे. उधर, वाडिया कानून कायदे की सीमा में रहकर व्यापार करने के पक्षधर थे. पर यह भी हकीक़त है कि धीरूभाई एक दूरदर्शी, तेज़तर्रार, और निवेशकों-कर्मचारियों की नब्ज़ जानने वाले उद्योगपति थे जिनकी कामयाबी की दास्तां बेहद शानदार है.
1980 से लेकर 1989 तक आते-आते रिलायंस इंडस्ट्रीज का कारोबार 200 करोड़ रुपये से बढ़कर 3000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था. उधर, बॉम्बे डाइंग इसी दौरान 111 करोड़ से बढकर मात्र 300 करोड़ तक ही जा पाई थी. जहां बॉम्बे डाइंग को 100 करोड़ के कारोबार तक पहुंचने में 100 साल लगे थे, वहीं रिलायंस इंडस्ट्रीज ने यह तरक्की मात्र 12 साल में हासिल कर ली थी.
रिलायंस इंडस्ट्रीज और बॉम्बे डाइंग के बीच लड़ाई का कारण था दो रासायनिक यौगिकों यानी कैमिकल कपाउंड्स के उत्पादन पर वर्चस्व कायम करना. ये थे डाई मिथाइल टेरेफ्थेलेट (डीएमटी) और प्योरिफाइड टेरेफ्थैलिक एसिड (पीटीए) जो पॉलिएस्टर कपड़ा बनाने में काम आते हैं. नुस्ली वाडिया की पसंद डीएमटी था तो धीरूभाई पीटीए के ज़रिये पॉलिएस्टर बनाना चाहते थे.
साल 1977. रिलायंस इंडस्ट्रीज एक लिमिटेड कंपनी बनी थी. तब तक वह उसी साल बॉम्बे डाइंग ने डीएमटी उत्पादन के लिए सरकार से लाइसेंस का आवेदन किया था. इसकी मंज़ूरी कंपनी को चार साल बाद यानी 1981 में मिली थी. तब तक धीरूभाई अंबानी ने समीकरण बदल दिए.
जानकार बताते हैं कि अंबानी समूह ने तब अखबारों में यह ख़बर चलवा दी थी कि बॉम्बे डाइंग ने जिस मशीन का डीएमटी बनाने के लिए आयात किया है वह दोयम दर्जे की है और उससे जो डीएमटी बनेगा वह कमतर क्वालिटी का होगा. धीरूभाई पॉलिएस्टर बनाने में तब तक डीएमटी का ही इस्तेमाल करते थे. उसे वे विदेशी बाजारों और सरकारी कंपनी आईपीसीएल से ख़रीदते. बताया जाता है कि कुछ पुराने मनमुटाव के कारण वे बॉम्बे डाइंग से डीएमटी नहीं खरीदना चाहते थे. यही नहीं, उनकी योजना भविष्य में पूरी तरह डीएमटी से पीटीए की तरफ ‘शिफ्ट’ होने की थी.
साल 1982. मंदड़ियों के रिलायंस इंडस्ट्रीज के शेयरों के भाव गिराकर फिर खरीदने के मंसूबे पर पानी फेरते हुए धीरूभाई अंबानी रातों रात मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के बेताज बादशाह बन गए थे. वे यहीं नहीं रुके. कुछ दिनों बाद उन्होंने ग़ैर परिवर्तनीय डिबेंचरों (ऋण पत्र) को शेयरों में बदल दिया. ऐसा करना ग़ैर क़ानूनी था, लेकिन न तो बाज़ार और न ही संसद में हल्ला मचा. कारण यह बताया जाता है कि जब इंदिरा गांधी इमरजेंसी के बाद दुबारा सत्ता में आईं तो तब तक धीरूभाई उनके खासमखास हो चुके थे. तब खबरें आई थीं कि उन्होंने अपने खर्च पर कांग्रेस की जीत का जश्न दिल्ली के होटल ताज में मनाया था. कहते हैं कि कांग्रेस के आरके धवन, प्रणव मुखर्जी जैसे दिग्गज उनके दोस्त बन चुके थे.
उधर, नुस्ली वाडिया की सरकार में इस कदर पैठ नहीं थी. एक इंटरव्यू में नुस्ली ने इस ओर इशारा भी किया है. वे कहते हैं कि जब कांग्रेस के मंत्री उनके पास चंदा मांगने आते थे तो वे उन्हें अपने उसूलों का हवाला देकर मना कर देते. वे आगे बताते हैं कि एक बार इंदिरा गांधी ने भी उन्हें इस बाबत तलब किया था और तब भी उन्होंने मना कर दिया था. इंदिरा उस बैठक के बाद विदा होते वक़्त निभाए जाने वाला शिष्टाचार भी भूल गयी थीं.
तब कांग्रेस के नज़दीक माने जाने वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज की आज भाजपा के साथ नजदीकियां देश में चर्चा का मुख्य मुद्दा है. प्रसिद्ध समाज सुधारक हेनरी वर्ड बीचर ने कहा है ‘कुर्सी किसी के भी पास हो, राज व्यापारी करता है.’
साल 1984. इंदिरा गांधी की हत्या हो गई. राजीव गांधी की सरकार में वीपी सिंह वित्त मंत्री बने. राजीव गांधी ने पहली ही कैबिनेट मीटिंग में रिलायंस को पीटीए प्लांट लगाने की मंजूरी दे दी. वहीं, बॉम्बे डाइंग लगभग चार साल की सरकारी लेट लतीफ़ी के बाद डीएमटी का उत्पादन शुरू कर पाई.
साल 1985. मई के महीने में वीपी सिंह ने डीएमटी और पीटीए को आयात के लिए प्रतिबंधित सूची में रख दिया. इसका सीधा मतलब था कि कंपनी को आयात करने से पहले सरकार से मंजूरी लेनी होगी. मंज़ूरी की प्रकिया लंबी होने की वजह से रिलायंस को नुकसान हो सकता था. उधर, उसके प्लांट को तैयार पीटीए देने में एक साल का समय और था.
इन सब बातों का मतलब था कि रिलायंस को अब बॉम्बे डाइंग से डीएमटी लेना होगा. लेकिन इसका मतलब था साठ करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च क्योंकि उस वक़्त डीएमटी आयातित पीटीए से प्रति टन 4000 रुपये महंगा था. और फिर धीरूभाई नुस्ली वाडिया के साथ व्यापार करना भी नहीं चाहते थे.
लेकिन धीरूभाई अंबानी कच्चे खिलाड़ी नहीं थे. सरकारी तंत्र में बैठे हुए उनके लोगों से उन्हें पहले ही ख़बर मिल चुकी थी. उन्होंने मात्र दो दिनों में दुनियाभर से, जैसे-तैसे करके तकरीबन साठ हज़ार टन पीटीए को आयात करने के लिए 110 करोड़ रुपये के लैटर ऑफ़ क्रेडिट जारी कर दिए थे! अब साल भर तक उन्हें परेशान होने की जरूरत नहीं थी.
सरकार इस चाल से अवाक रह गयी थी. वीपी सिंह ने पलटवार करते हुए डीएमटी तथा पीटीए पर आयात शुल्क 140 से बढाकर 190 फीसदी दिया. इस कदम ने रिलायंस को होने वाले फ़ायदे को तकरीबन ख़त्म कर दिया क्योंकि उसके लिए कच्चे माल की लागत बढ़ गई थी. लेकिन, दूसरी तरफ बॉम्बे डाइंग की उम्मीदों पर तो पूरी तरह से पानी फिर गया. उसे डीएमटी के लगभग न के बराबर आर्डर मिले. नतीजन, 1986 में उसे अपना प्लांट बंद करना पड़ा.
इसी साल वित्त मंत्री वीपी सिंह ने लाइसेंस राज की शर्तों में ज़बरदस्त ढील देकर व्यापारियों को राहत दी. पीटीए और डीएमटी पर लगा आयात शुल्क हटा दिया गया. साथ ही तकरीबन 21 कंपनियों की एक सूची जारी हुई जिनपर सरकार का अत्याधिक उत्पाद शुल्क बकाया था. रिलायंस उनमें से एक थी.
सरकार ने दूसरा प्रहार तब किया जब उसने रिलायंस इंडस्ट्रीज को अपना क़र्ज़ कम करने के लिहाज़ से ग़ैर परिवर्तनीय डिबेंचर को शेयर्स में बदलने की स्कीम पर पाबंदी लगा दी. दरअसल, इंडियन एक्सप्रेस के सहायक अख़बार फाइनेंशियल एक्सप्रेस में आर्टिकल छपे थे कि किस तरह रिलायंस इंडस्ट्रीज वित्तीय नियमों के झोल का फायदा उठाते हुए इन डिबेंचर्स को शेयरों में बदलकर अपना क़र्ज़ कम लेती है. अखबार ने इसे ‘रिलायंस लोन मेला’ कहा था.
इन आर्टिकलों में समझाया गया थी कि कुछ फ़र्ज़ी कंपनियां बैंकों से 18 फीसदी ब्याज पर लोन लेकर 13 से लेकर 15 फीसदी मुनाफ़ा देने वाले रिलायंस इंडस्ट्रीज के डिबेंचर खरीद रही हैं. फ़ौरी तौर पर यह सरासर घाटे का सौदा था. पर यहीं इस किस्से में एक तोड़ था. ख़रीदे गए डिबेंचर बाद में शेयर्स में तब्दील करवा लिए जाते थे और कंपनियों को भारी मुनाफ़ा होता था. रिलायंस के शेयर्स उस समय तक कीमती माने जाने लगे थे. अखबार ने इल्ज़ाम लागाया कि ये सारी कंपनियां धीरूभाई और उनके सहयोगियों की ही हैं. बैंकों की भूमिका आने से आरबीआई ने इस स्कीम को बंद करने का आदेश दे दिया. यहीं से इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर रामनाथ गोयनका ने नुस्ली वाडिया का हाथ थाम लिया था.
रामनाथ गोयनका की एंट्री
जानकारों के मुताबिक कांग्रेस के मुरली देवड़ा ने धीरूभाई को रामनाथ गोयनका से मिलवाया था. गोयनका नुस्ली वाडिया को पहले से जानते थे. उन्होंने पहले तो दोनों के बीच मध्यस्थता करने की कोशिश की और कुछ हद तक कामयाब भी रहे. नुस्ली वाडिया इसी दौरान धीरूभाई की बेटी नीना अंबानी की शादी में भी शरीक हुए थे. पर दोनों के बीच शान्ति ज़्यादा दिनों तक नहीं रही.
मशहूर पत्रकार वीर सिंघवी के मुताबिक़ गोयनका मानते थे कि धीरूभाई ने उन्हें धोखा दिया. उनके लिए नुस्ली वाडिया बेटे के समान थे. नुस्ली वाडिया और धीरूभाई के बीच मध्यस्थता करने का उनका उद्देश्य भी यही था. धीरूभाई ने उन्हें भरोसा दिलाया था कि वे वाडिया के साथ दो-दो हाथ नहीं करेंगे पर वे मुकर गए.
रामनाथ गोयनका और धीरूभाई की तनातनी का कारण
कहते हैं कि नुस्ली वाडिया के लिए उनके पुत्र मोह के अलावा एक वाक़या और था जिसने रामनाथ गोयनका और धीरूभाई के बीच दरार पैदा कर दी थी. तब इंडियन एक्सप्रेस ने उनके ख़िलाफ़ ख़बर छापी थी कि रिलायंस इंडस्ट्रीज को पीटीए के आयात में और बाद में इसके उत्पादन के लिए मशीन लगाने में सरकारी नियम ताक़ पर रख दिए गए हैं और इसकी सीबीआई जांच होनी चाहिए.
इस ख़बर के बाद धीरूभाई ने प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया के हवाले से इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर को गलत साबित करवाने के उद्देश्य से अपना पक्ष रखते हुए ख़बर चलवा दी कि सीबीआई की रिलायंस पर जांच की मांग दोषपूर्ण और पूर्वाग्रह से ग्रसित है. रामनाथ गोयनका उस वक़्त पीटीआई के चेयरमैन थे. इस ख़बर पर वे तिलमिला गए.
किस्सा है कि एक बार इत्तेफ़ाक से धीरूभाई और वे साथ जहाज में सफ़र कर रहे थे. मज़ाक में धीरूभाई ने कह दिया कि इंडियन एक्सप्रेस के अख़बार के हर पत्रकार की कीमत है, रामनाथ गोयनका की भी कीमत है. निष्पक्ष खबर के पुरोधा माने जाने वाले गोयनका को यह बात कैसे हज़म होती? उन्होंने धीरूभाई को सबक सिखाने की ठान ली. गोयनका ने तेज तर्रार चार्टर्ड अकाउंटेंट स्वामीनाथन गुरुमूर्ति को रिलायंस के विरुद्ध अभियान में शामिल कर लिया. वे रिलायंस इंडस्ट्रीज के पीछे लग गए. रोज़ एक से एक नए ख़ुलासे होने लगे जिनसे रिलायंस इंडस्ट्रीज साख को बहुत बड़ा धक्का लगा. यह दूसरा राउंड रामनाथ गोयनका और नुस्ली वाडिया के नाम रहा.
1986 इस जंग का निर्णायक साल था. धीरूभाई इस साल बीमार हो गए थे और रामनाथ गोयनका जैसे दिग्गज के सामने तब मुकेश अंबानी बिलकुल नौसिखिये थे. उन्होंने मुकेश अंबानी पर ताबड़तोड़ हमले किये जिससे वे लड़खड़ा गए. वे जब तक संभलते, रिलायंस इंडस्ट्रीज पर एक नया हमला कर दिया जाता.
धीरूभाई अमेरिका से अपना इलाज़ करवाकर लौटे और सबसे पहले उन्होंने रामनाथ गोयनका से मुलाकात की. मुलाकात सफल रही और दोबारा दोनों में सुलह हो गई. लेकिन यह सुलह तीन हफ्ते ही टिक पाई. जून 1986 में दोबारा देशभर के अखबार रिलायंस इंडस्ट्रीज के पीछे लग गए. उधर, रिलायंस इंडस्ट्रीज ने अंग्रेजी मगज़ीन ‘ऑनलुकर’ के ज़रिये नुस्ली वाडिया पर हमला बोल दिया.
रामनाथ गोयनका एक बार फिर तल्ख़ हो गए . उन्होंने अपने लेख में नया इल्ज़ाम लगा दिया कि रिलायंस इंडस्ट्रीज ने सरकार द्वारा तयशुदा मानकों से ज़्यादा मशीनरी का आयात कर अपनी उत्पादन क्षमता को ग़ैर क़ानूनी तरीके से बढ़ाया है. तब लाइसेंस राज था और उत्पादन पर भी सरकार का नियंत्रण था. इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने रिलायंस पर लगभग साढ़े सात हज़ार करोड़ का जुर्माना ठोक दिया.
यकीनन, यह कंपनी पर रामनाथ गोयनका का सबसे तेज़ हमला था. उधर, रिलायंस भी उन पर और नुस्ली वाडिया पर हमले कर रही थी. एक ख़ुलासे में मालूम हुआ कि रामनाथ गोयनका, नुस्ली वाडिया और उनके परिवार ने भी रिलायंस इंडस्ट्रीज के डिबेंचर या तो खरीदे थे या फिर उन्हें दिए गए थे.
दिसंबर 1986 में रिलायंस की पूर्णतया परिवर्तित डिबेंचर स्कीम को स्टॉक मार्केट में ज़बरदस्त सफलता मिली. इस सफलता को रिलायंस की इंडियन एक्सप्रेस और नुस्ली वाडिया पर जीत के तौर पर देखा गया. सरकार ने लाइसेंस नियमों में और छूट दे दी.
अप्रैल 1987 में इंडियन एक्सप्रेस के देश भर के दफ्तरों में सरकारी रेड डाली गयी. दिल्ली के दफ्तर में हड़ताल हुई, रामनाथ गोयनका की बड़ी बेटी का देहांत हुआ. इस तेज़ी से बदलते हुए घटनाक्रम ने उनकी लेखनी को एक लगभग रोक ही दिया.
1989 में वीपी सिंह राजीव गांधी सरकार से हट गए. रिलायंस इंडस्ट्रीज के पीटीए प्लांट का उत्पादन शुरू हो गया. उस साल कंपनी ने लगभग 1700 करोड़ रुपये का व्यापार किया. नुस्ली वाडिया वीसा संबंधित एक चर्चित मामले में घसीट लिए गए. इसी साल रिलायंस इंडस्ट्रीज ने लार्सन एंड टुब्रो का अधिग्रहण कर लिया. धीरूभाई जीत रहे थे.
लेकिन समय का पहिया एक बार फिर घूमा. लार्सेन एंड टुब्रो के अधिग्रहण में कुछ खामियां थीं. रामनाथ गोयनका फिर इस खबर के पीछे लग गए. दिसम्बर में वीपी सिंह ‘घोटाले’ की तोप बोफोर्स पर सवार होकर प्रधानमंत्री बन गए. रिलायंस को लार्सन एंड टुब्रो का अधिग्रहण छोड़ना पड़ा और एक सनसनीखेज ख़ुलासे में रिलायंस इंडस्ट्रीज पर नुस्ली वाडिया की हत्या का इल्ज़ाम लगा.
1990 का साल रिलायंस इंडस्ट्रीज के लिए शानदार रहा.बॉम्बे डाइंग काफ़ी पीछे रह गयी थी. बाद में रिलायंस का पॉलिएस्टर के व्यवसाय में एकछत्र राज कायम हो गया.
यह जंग रिलायंस और बॉम्बे डाइंग के बीच शुरू हुई थी जो बाद में रिलायंस बनाम इंडियन एक्सप्रेस बन गयी. धीरूभाई अंबानी इसी दौरान लकवे की बीमारी के शिकार हुए और फिर कभी पूरी तरह उबर नहीं पाए. रामनाथ गोयनका की सेहत भी इस दौरान गिरती चली गई. 1991 में उनका देहांत हो गया और इंडियन एक्सप्रेस का बंटवारा हो गया.
हालांकि ‘कॉर्पोरेट’ फिल्म एक कल्पना थी पर उसका सार सत्य है. कंपनी के साथ भावनात्मक जुड़ाव हानिकारक हो सकता है.
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