Thursday, November 28, 2024
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माँ : एक स्नेहमयी जीवंत अनुभूति

मेरी अनुभूति को, माँ के साथ और पास रहने का ऐसा अनोखा अवसर पहली बार मिला है। माँ चंदाबाई 87 साल की, लेकिन पूरी तरह सजग व सतर्क!

जन्म से जिस माँ ने मुझे *बाबू* कहकर पुकारा, उसके वात्सल्य को बचपन में एकबारगी लौटकर जीने के अनोखे पल मिल गए हैं।

कोरोना की त्रासद चुनौती को उम्र की सारी सीमाओं के पार अच्छी तरह से समझ रहीं माँ ने अपने बेटे यानी मेरे साथ समय की जिम्मेदारी को पूरी गंभीरता से लिया है। खुद जागीं, मुझे और सभी को जगाती रहीं हैं। दूसरी तरफ सुबह की चाय से लेकर शाम की दिया-बाती तक, जीवन-कर्म और धर्म दोनों का निर्वहन इस कठिन समय में बराबर कर रही हैं।

अपने आप से बेखबर, केवल अपनी संतान और परिवार के लिए, उसके होंठों पर हँसी और उसकी खुशी के लिए एक माँ कितना त्याग कर सकती है, कितनी हिम्मत जुटा सकती है, इस एहसास को खूब गहराई से जीने का मौका मिला है मुझे। हर दिन बाहर रह रहे सभी बच्चों की खैर खबर लेना, उनकी दिनचर्या का अटूट हिस्सा है। याद दिलाती हैं कि सबसे कहना लाकडाउन में पूरी सावधानी से नियमों का पालन करें।

कॉलेज और अन्य गतिविधियों में घंटों बाहर रहने वाले मुझे जैसे बेटे को अब तक माँ के हाथों बनी सब्जी का स्वाद ही मालूम था, किंतु लाकडाउन के इस दौर में घर के सामने ठेले वालों से या स्वयं जाकर बाकायदा सब्जी या फल खरीदने वाली माँ को पहली बार करीब से देखा।

माँ इतनी जागरूक कि घर में काम करने वाली गुड़िया के द्वारा अच्छे से माँजे गए बर्तनों को भी रोज अपने हाथों से, साफ कपड़े से ज्यादा चमकाते देखा। कुक के अलावा किचन में माँ के साथ खड़े होकर अदरख और इलायची वाली चाय का देर तक उबलना भी अपनी आंखों से देख पाया।

साल भर पहले अपनी जीवन संगिनी को खो देने के मेरे और पूरे परिवार के दुर्दम्य दुःख को एकबारगी खुद पी कर माँ ने लाकडाउन में मनोबल को ऊंचा उठाने वाली जो भूमिका स्वेच्छा से निभायी, उसे शब्द देना कठिन है!

पूरे परिवार में सबसे बड़ी होने के नाते माँ ने पूरी ज़िंदगी हौसले से काम लिया है। मैंने सचमुच अनुभव किया कि *माँ की उपमा केवल माँ हो सकती है।*

पास जाकर कई बार उम्रदराज़ होने के कारण किसी तकलीफ के बारे में जब भी पूछता हूँ, हँसकर टाल देती हैं। कभी कोई दवा का प्रस्ताव रखता हूँ तो *चिंता मत कर बाबू* कहकर मुझे ही दुआ देने लगती हैं।

लाकडाउन में माँ के साथ पूरी तरह से *बच्चा बनकर जीने जैसा सौभाग्य मिला है*, वह दुर्लभ है। साधारण मोबाइल का पूरी कुशलता से आज भी उपयोग कर लेने वाली मेरी माता हर रोज़ कई अखबारों के मुख्य शीर्षक ज़रूर देखती हैं और कुछ खास खबरें भी पढ़ती हैं, इसे मैंने पहली बार ठीक से देखा। चश्मा लगाने के बदले मोबाइल के टार्च की रोशनी में पढ़ने का मां का अंदाज़ निराला है।

वास्तव में माँ की रोशनी ही तो हमें दुनिया का नज़ारा दिखाती है और *माँ तो खुद आलोक है, प्रकाश है, रोशनी है।* मुझे माँ की गोद में बीते बचपन की याद तो नहीं है किंतु 87 की उम्र में कोई माँ अपने कलेजे के टुकड़े को हाथों हाथ लेने किस तरह बेचैन रहती है, इस सरोकार को, इस *कोरोना कालखंड* में मैंने पूरी शिद्दत से जी लिया है।

इस दौर में भी मेरे ऑनलाइन क्लास, वीडियो, यूट्यूब चैनल, अखबारों में छपी सामग्री सबकी खबर रखती हैं माँ ! बहुत कुछ पाया और खोया भी बहुत कुछ है ज़िन्दगी में किन्तु मुझे आज भी गर्व है कि *मेरे पास माँ है*

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