मुस्लिम शासन-काल में इस देश में कई दार्शनिक, साहित्यिक तथा समाज-सुधारक हुए, जिन्होंने जन-संस्कृति को समझने के लिए प्रत्येक प्रशस्य प्रयास किये. यद्यपि उस काल में साप्रदायिकता का जोर था और धर्म के नाम पर हलाहल पैदा किया जाता था, तथापि समय-समय पर ऐसे मनीषी और समाज-सुधारक पैदा होते रहे, जिन्होंने शंकर की तरह उस हलाहल को निकालकर देश में सौमनस्य बढ़ाने का भरसक यत्न किया.
मुगल युवराज दारा शिकोह ऐसा ही एक समन्वय-साधक था, जिसने Eिहदुत्व और इस्लाम इन दोनों धर्मधाराओं का गहरा अध्ययन किया और उन्हें एक महानदी में परिवर्तित करने के लिए विराट यत्न किया.
शाहजहां का पुत्र दारा शिकोह भारतीय इतिहास के सबसे ट्रैजिक व्यक्तियों में से है. यदि वह गद्दी की छीना-झपटी में अपने दुर्दमनीय एवं कूटनीति कुशल अनुज औरंजेब को हरा पाता, तो शायद भारतीय इतिहास वैसा न होता, जैसा हम उसे पढ़ते हैं. उसने मानवीय संस्कृति के आधार पर साप्रदायिक एकता की कल्पना की थी.
उसका विश्वास था कि धर्मों में कोई द्वंद्व नहीं, वे एक ही साध्य के भिन्न-भिन्न साधन हैं. इन उदात्त विचारों से अनुप्राणित होकर उसने भारतीय साहित्य का गहन अध्ययन किया. उसी के आदेश से उपनिषदों का सर्वप्रथम फारसी अनुवाद तैयार हुआ.
उसने स्वयं संस्कृत का अच्छा और भगवद्गीता, योगवासिष्ठ और प्रबोध-चंद्रोदय का मूल संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया. उसके गीता अनुवाद का नाम ‘आबे ज़िंदगी’ था. अद्वेत दर्शन का उसने गम्भीरता से अवगाहन किया और मियां मीर से सूफी सिद्धांत भी सीखे. वह अपने काल के प्रमुख हिंदू और मुस्लिम विचारकों से अक्सर मिलता रहता और धर्म एवं संस्कृति के स्वरूप का विशद विवेचन उनके साथ करता.
दारा शिकोह का हृदय-पटल जैसा शुद्ध था, वैसा ही स्वच्छ उसका मस्तिष्क था. वह दूसरे के विचारों को अपने अनुभव से परखकर अपनाता था. कुरान के अर्थ के सम्बंध में कई-स्थलों पर उसके मौलिक एवं मार्मिक सुझाव विशेषज्ञों को भी चकित कर देते थे. उसके प्रपितामह अकबर को दूसरों के शब्दों के प्रकाश में चलना पड़ता था, जब कि दारा स्वयं मौलिक विचारक था.
उसने नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ भी लिखे. उसके सबसे उत्तम ग्रंथ का नाम है- ‘सप्रदायों का तुलनात्मक अध्ययन.’ इसमें उसने ग्रंथों के शुष्क उद्धरणों का सहारा लेने के बजाय, अपने अनुभव से शुद्ध सत्य का निरूपण किया है. उसके गुरु मुल्लाशाह ने आशीर्वाद में उससे कहा था-‘तुम विश्व में सब धर्मों के एकीकरण के लिए पैदा हुए हो और इसी के लिए तुम्हें अपना जीवन समर्पित करना होगा.’
गवेषणा से पता चलता है कि दारा ने पच्चीस वर्ष की आयु में 11 संतों के जीवन-चरित्र और उनकी अनुपम लीलाएं लिखीं. उसके बाद सूफी मत के सुभाषितों का एक संग्रह किया. फ्रांसीसी विद्वान डॉ. बर्नियर का कहना है कि वह ईसाइयों के साथ ईसाई, पंडितों के साथ पंडित, तथा सूफियों के साथ सूफी बन जाता था- शर्करा की तरह मिश्रित हो जाता था. उसकी एकमात्र उपासना थी मानवता की हितसाधना.
दारा ने विभिन्न धर्मों के कई संतों के साथ सम्पर्क बढ़ाने के लिए पत्र-व्यवहार किया था. हिंदू संन्यासी गोस्वामी नृसिंहाश्रम सरस्वती को लिखे पत्र में उसने ‘ॐ नमो नारायणाय’ पदों से नमस्कारपूर्ण अपना निवेदन आरम्भ किया है. श्री बाबालाल नामक यति की प्रशंसा में दारा ने कई मार्मिक शब्द लिखे हैं. इस पर एक संवाद भी ग्रंथ रूप में लिखा गया है.
हिंदू संतों के सम्पर्क और उनके हृदय-ग्राही विचारों से दारा को एकता की प्रेरणा मिली. उसने हिंदू और मुस्लिम धर्मों का एक तुलनात्मक अध्ययन ‘गुम-उल्-बाहरीन’ नाम से फारसी में लिखा, जिसका उसने ‘समुद्र-संगम’ नाम से संस्कृत में भाषांतर भी किया था. यह अनुवाद हाल में ही अन्वेषकों को प्राप्त हुआ है. इसकी दो हस्तलिखित प्रतियां अब तक मिली हैं- एक अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर में और दूसरी भांडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टिट्यूट, पूना में रखी है.
आज के संदर्भ में यह ग्रंथ उपादेय और मनन योग्य है. इसमें सोलह अध्यायों में विभिन्न विषयों पर प्रकाश डाला गया है. पहले अध्याय में पंच भूतों का वर्णन है. दूसरे और तीसरे में क्रमशः पंचेद्रिय तथा ध्यान का निरूपण किया गया है. चौथे में परमेश्वर गुण-व्याख्या, पांचवें में आत्म-निरूपण, छठे में प्राणादि-निरूपण, सांतवें में प्राणादि की व्यख्या, आठवें में प्रकाश, नौंवे में ईश्वर के नाम हैं. ग्यारहवें में सिद्धत्व, ऋषि तथा ईश्वरत्व का निरूपण, बारहवें, तेरहवें तथा चौदहवें में क्रमशः दिशा, पृथ्वी और महाप्रलय का वर्णन है और सोलहवें में अहोरात्र एवं ब्रह्म का मौलिक वर्णन किया गया है.
इस ग्रंथ के प्रणयन की प्रेरणा के मूल कारण की चर्चा करते हुए उसने आरम्भ में लिखा है कि अपनी ज्ञान-पिपासा को शांत करने के लिए वह अनेक यतियों से मिला और उसे गुरुकृपा से तपस्या और ज्ञान में सिद्धि प्राप्त हुई. आगे वह कहता है-
‘बाबालाल के साथ मैंने कई बार हिंदू-मुस्लिम धर्मों पर बातचीत की. केवल परिभाषा-भेद को छोड़कर दोनों के स्वरूप में मुझे कोई भेद नहीं दिखा. (तेन च सह पुनः- पुनः संगतीः गोष्ठीश्चाकरवम्, परिभाषा भेदातिरिक्त कमपि भेंद स्वरूपावाप्तौ नापश्यम्.)’
‘इसलिए दोनों धर्मों की एकवाक्यता और समन्वय को दिखाया. दोनों ज्ञानियों के मत-रूपी समुद्र का संगम एक साथ करने से इसका नाम मैंने ‘समुद्र-संगम’ रखा.’ (अतश्च द्वयोरपि एकवाक्यतामकरवम्, ज्ञानिनोर्द्वयोरपि मतसमुद्रयोरिह संगम इतिनाम चास्थापयं समुद्रसंगम इति.)
‘तत्त्ववेत्ताओं का मत है कि सब धर्मों का एक उद्देश्य सत्य की खोज है. सचाई की खोज सरल नहीं, यह ज्ञानियों को अनुभव ही है. कुंठित मति वाले लोग धर्म की गहराई को क्या समझ सकते हैं! मेरा प्रयास जिज्ञासुओं के लिए ही है. मुझे सत्य के आलोक का दर्शन जिस दिशा में भी दिखता है, मैं उस ओर भागता हूं. मेरे इस प्रयास में भगवान ही एकमात्र मेरा सहाय है. (अत्र च परमेश्वरादेव मम सामर्थ्यम्, परमेश्वर एव मम सहायः।)’
हिंदू-मुस्लिम समस्या को मानवता की कसौटी पर कसने का यह सर्वप्रथम प्रयास था. कि सर्वधर्म-समादर के प्रचारक राजकुमार दारा को धार्मिक मतांधता का शिकार बनना पड़ा.
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