Sunday, November 24, 2024
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अमर बलिदानी पांडुरंग जी

स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने आर्य समाज की स्थापना के पश्चात् जनजागरण के लिए जो मार्ग अपनाया, उससे विश्व भर में एक प्रकार से उथल पुथल सी मच गई | निरंतर सेवाभाव से जो कार्य किया , उस सेवाभाव में भी अनेक शत्रु पैदा हुये किन्तु उन्होंने कुछ भी चिंता न करते हुए संसार से अज्ञान, अन्याय तथा अभाव मिटाने के लिए निरंतर प्रयास चलाये रखे | वह कहा करते थे कि समाज के नवनिर्माण के कार्य करते हुए उनकी अपनी जान भी चली जावे तो कोई चिंता नहीं | परिणाम भी कुछ एसा ही हुआ और उन्होंने धर्म की बलिवेदी पर स्वयं अपना शीश देकर बलिदान की परम्परा का जो बीज आर्य समाज में डाला , उससे अंकुरित व बढ़कर बने वट वृक्ष की प्रत्येक शाखा और प्रत्येक पत्ते से शहीद ही शहीद टपकने लगे | शहीद रूपी इतनी अधिक मात्रा में फल आर्य समाज के इस वट वृक्ष पर लगे कि इन फलों ( शहीदों ) की गिनती कर पाना भी आज संभव नहीं है |

यह केवल एक अलंकारिक शब्दजाल नहीं है , यह एक कटु सत्य है | आर्य समाज की बलिदानी परम्परा में जो न समाप्त होने वाली बलिदानी श्रृंखला के अधिकाँश पुष्प तो इस प्रकार के ही हैं , जिनका आज न तो हम नाम ही जानते हैं और न ही उसके जन्म तिथि , जन्म स्थान आदि को ही जानते हैं , जीवन परिचय जानना तो बहुत दूर की बात है | फिर उनके परिवार अथवा पता होने का प्रश्न तो आ ही नहीं सकता | इस सब चर्चा का यह निष्कार्ष नहीं है कि हमने जानबूझ कर यह सब किया और उस समय के इतिहास को सुरक्षित नहीं रख पाए | वास्तव में उस काल में इतिहास सुरक्षित करने की भारत में परम्परा ही न थी | इसके अतिरिक्त आर्य समाज के इस संघर्ष पूर्ण युग में, जब प्रत्येक क्षण एक नहीं अनेक नई घटनाएँ घट रहीं थीं , इस संघर्ष काल में अपने निरंतर बन और बिगड़ रहे इतिहास को सुरक्षित करने के लिए ध्यान देने का किसी आर्य के पास समय ही नहीं था | हाँ ! संघार्ष समाप्ति पर कुछ प्रयास हुए इस बलिदानी इतिहास को खोजने के ! इस प्रयास में जिन बलिदानियों के नाम , पते तथा जितने भी रूप में जीवन परिचय मिल पाया , उसे आर्य समाज के लेखकों और शोधकर्ताओं ने सुरक्षित करने क प्रयास किया |

इस प्रकार के प्रयासों से जो जीवन परिचय उपलब्द हो पाए , उनकी संख्या भी इतनी अधिक हो गई कि ( इतने कम समय में इतने अधिक बलिदानी होना ) इतने कम समय में इतने बलिदानियों कि संख्या किसी अन्य संस्था के पास आज तक भी नहीं है | प्रस्तुत कथा के कथानायक हमारे अमर बलिदानी पांडुरंग जी का बलिदान भी हमारे इस प्रकार के बलिदानियों कि सूचि में एक सितारे कि भाँती प्रकाशमान है |

परापत साक्ष्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि पांडुरंग नाम क यह बलिदानी युवक लगभग २२ वर्ष क था | पांडुरंग जी शरीर से पूर्ण हृष्ट पुष्ट थे | आप आरम्भ से हि शरीर को सुडौल बनाने के लिए दंड बैठक आदि निकालने मेन अत्यधिक रूचि रखते रहे होंगे , यह हि उनके शरीर की आत्याधिक पुष्टता क मुख्य कारण रहा होगा | हमारे बलिदानियों कि परम्परा के सामान ही आपके जीवन क भी बहुत कम परिचय मिला पाय है | इसलिए आप के जन्म का समय , सथान तथा माता पिटा के सम्बन्ध मेन कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई | आपके जीवन के सम्बन्ध मेन बस इतना ही पता चलता है कि आप हैदराबाद राज्य के उस्मानाबाद क्षेत्र के निवासी थे | जो उस समय आंध्रप्रदेश का भाग था |

उन दिनों निजाम हैदाराबाद के हिन्दुओं विशेष रूप से आर्य समाजियों पर हो रहे अत्याचारों से सब के दिल दहले हुए थे किन्तु अत्याचार कम ओने के सथान पर बढ़ते हि चले जा रहे थे | पूरी हैदराबाद रियासत के हिन्दुओं तथा आर्यों के हृदयों में विरोध कि अग्नि धीरे धीरे सुलग रही थी जो किसी भी समय भड़की सकती थी , एसा अनुभव हो रहा था | जिन लोगो के ह्रदय निजाम के विरोध कि आग मेन जल रहे थे , उन लोगों कि सूचि मेन हमारे कथानायक पांडुरंग जि भी एक थे | आप के ह्रदय मेन भी निजाम को दंड देने कि आग भड़क रही थी | इस मध्य हि आर्यों ने निजाम के विरोध मेन हैदराबाद मेन सत्याग्रह आन्दोलन क घोष लगा दिया | आप के अन्दर तो लम्बे समय से निजाम के लिए क्रोधाग्नि जल ही रही थी , अपने धार्मिक अधिकारों को पाने के लिए आप लम्बे समय से मचल रहे थे | अत: समय न गंवाते हुए शीघ्र हि इस सत्याग्रह कि भीषण अग्नि में कूद गए |

पांडुरंग जी ने सत्याग्रह करते हुए निजाम को ललकारा , पुलिस ने आपको हिरासत में लेकर गुलबर्गा जेल मेन बंद कर दिया | निजाम कि जेल मेन कैदियों को अत्यधिक परेशान करने कि परम्परा थी | उन्हें नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य किया जाता था | इस कुव्यवस्था के कारण कुछ दिनों में ही आपको इंफ्लुएंजा हो गया किन्तु निजाम को किसी भी सत्याग्रही कि बिमारी की कभी कोई चिंता रही ही नहीं | यह अवस्था पांडुरंग जी के लिए भी थी | उनका कोई उपचार न किए जाने के कारण कुछ हि दिनों में आप की अवस्था अत्यंत नाजुक अवस्था मेन चली गई | हम जानते हि हैं कि निजाम की योजना सत्याग्रहियों पर अधिक से अधिक अत्याचार कर बलिदान के इस पथ पर आने वाले वीरों को निरुत्साहित करना था , ताकि वह भयभीत होकर सत्याग्रह के मारग से हट जावें किन्तु इन विभीषिकाओं मेन भी आर्यों में सत्याग्रह के लिए एसा उत्साह भरा थ , जो कम होने का नाम हि न ले रहा था | दलों के दल इस सत्याग्रह मेन प्रतिदिन कूद रहे थे | यह अब केवल हैदराबाद क हि आन्दोलन न होकर पुरे देश का आन्दोलन बन गया था और देश के कोने कोने से सत्याग्रही प्रतिडीन सत्याग्रह के लिए आ रहे थे |

भयंकर रोग से ग्रस्त पांडुरंग जी का रोग प्रतिदिन बढ़ रहा था | २५ मई १९३९ को आपकी खतरनाक अवस्था को देखकर , अपमान से बचने के लिए निजाम के अधिकारियों ने उन्हें अस्पताल में भारती करवा दिया किन्तु निजाम के यह जेल के अस्पताल भी कोई उपचार के लिए न होकर जानलेवा ही थे | यहाँ भी ठीक से उपचार न किया गया | परिणाम स्वरूप यह सुडौल शरीर इतना अशक्त हो गया कि इस रोग का प्रतिरोध ओर अधिक समय तक न कर सका तथा २७ मई सन १९३९ को आप इस देह को यहीं छोड़कर सदा सदा कि लम्बी यात्रा के लिए रवाना हो गए | जेल होने वाले इस बलिदानी पांडुरंग जी के बलिदान के सामाचार को गुप्त रखने का भरसक प्रयास करने के बाद भी इसे नागरिकों से छुपाया नहीं जा सका | शीघ्र इस का पता आर्य समाज के वहां के अधिकारियों को पता चल गया तथा पुरे नगर मेन बड़ी तेजी से इस प्रकार फ़ैल गया जैसे आग मेन घी डालने से आग भड़क उठती है | कुछ ही समय मेन आर्यों क अपार जनसमूह बलिदान स्थल रूप अस्पताल के सामने एकत्र हो गया | सब लोग अमर बलिदानी के अंतिम दर्शन के लिए तड़प रहे थे , अपनी श्रद्धा के पुष्प उन्हें अर्पित करना चाहते थे |

आर्यों कि इच्छा थी कि शहीद कि शवयात्रा बड़े सम्मान इ साथ निकाली जावे किन्तु निजाम शव देने को तैयार नहीं हो रहा था , यहाँ तक कि वह पार्थिव शरीर को आर्यों को दिखाना भी नहीं चाहता था | अत: शीघ्र हि गुप्त रूप से पांडुरंग जि के पार्थिव शरीर को अस्पताल से निकाल कर जेल मेन पहुंचा दिया गया | शहीद क चित्र लेना तो दूर , इसे किसी को दिखाने तक की भी आज्ञा न थी | शव को जेल मेन ले जाने के बाद उस जेल मेन सजा काट रहे कुछ सत्याग्रहियों को साथ लेकर शव को पुलिस के दस्ते के साथ शमशान मेन ले जाया गया तथा आनन् फानन मेन अंतिम संस्कार कर दिया गया | इस प्रकार मृतक कि देह को भी हैदराबाद ने अपमानित करने मेन कोई कसब्र नहीं उठा रखी |

डॉ. अशोक आर्य
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