गति का शाब्दिक अर्थ हैं किसी स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया।सदगति याने सदा चलते रहने वाला जैसे सूर्य या हवा।दुर्गति का सामान्य अर्थ होता हैं बुरी गति या दुर्दशा।इस रूप में जीवन को समझें तो जीवन में भी हर पल यहीं क्रम दिखाई देता हैं।जन्म से मृत्यु तक जाने की क्रिया या बीज से अंकुरण,पौधे में रूपांतरण फिर फूल से फल और फल से पुन:बीज निर्माण की अंतहीन क्रिया भी जीवन की गति हैं।गति को प्रवाह से भी समझा जा सकता हैं।जीवन का प्रवाह एक तरह से जीवन की सदगति या दुर्गति का कारक बन जाता हैं।कभी कभी यह भी लगता हैं कि जीवन का साकार और निराकार स्वरूप मूलत:प्रवाह ही हैं।जीवन में सबकुछ गतिशीलता आधारित हैं।स्थिरता या जड़ता का ,जीवन की गति पर गहरा प्रभाव पड़ता हैं।पर जीवन की ऊर्जा या प्रवाह में यह ताकत होती हैं की स्थिरता या जड़ता एकाएक या धीरे धीरे पुन:प्रवाहमान हो जाती है।
प्रकाश और वायु की गतिशीलता सर्वकालिक हैं पर विचार की गति का कोई माप नहीं हैं।विचार कब,क्या और कैसा रुप स्वरूप धारण करेंगे यह निर्धारित नहीं हैं।पर विचार ही हमारी गति,सदगति और दुर्गति के निर्धारक होते हैं।हम सब के विचार और व्यवहार ही हमारे व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन की गतिशीलता के स्वरूप का निर्माण भी करते हैं।एक तरह से जीवन की गंभीर समझ हमें स्वयं के और हमारे समकालीन तथा पूर्ववर्ती मनुष्यों के विचारों से ही प्राय: मिलती रहती हैं।जीवन की गतिशीलता का स्वरूप हर मनुष्य की सोच और समझ की गहराई पर निर्भर हैं।
हमारी इस धरती पर न जाने कितनी तरह के जीवों में जीवन का एक निश्चित प्रवाह हैं।पर हमारी धरती पर मनुष्य ने अपनी गतिशीलता को कई दिशाओं में बढ़ाया घटाया हैं।जिसका परिणाम जीवन की सदगति और दुर्गति के रूप में या जीव के जीवन की असमय समाप्ति के रुप में अभिव्यक्त होता भी दिखाई पड़ता हैं।मनुष्य ने भी नये नये विचारों का बुद्धि और युक्ति के रूप में प्रयोग कर नये नये साधनों का निर्माण एवं उपयोग करना सीख लिया जिससे मनुष्य के जीवन की दशा और दिशा ही पूरी तरह बदल गयी हैं।आज के कालखण्ड़ में मनुष्य जीवन गति का दिवाना हो चला हैं।उसे जीवन के हर आयाम में गति चाहिये ।आज के मनुष्य में पुराने काल के मनुष्य के मुकाबले धीरज और एकाग्रता में कमी दिखाई पड़ती हैं।हर बात में जल्दबाजी का व्यापक प्रभाव हम सब महसूस कर रहे हैं।कभी कभी तो यह भी लगता हैं कि हम सब ऐसे साधनों के आदि होते जा रहे हैं जो हमें फटाफट समाधान उपलब्ध करावे।आधुनिक साधनों के प्रयोग और गति वाले साधनों के बल से एक जन्म में दो तीन या उससे भी ज्यादा जन्मों की जिन्दगी में लगने वाले समय को इसी जन्म में हासिल कर जीना चाहते हैं। मनुष्य को इतनी अधिक गति वाले साधन आज के काल खण्ड़ में जिस सहजता,सरलता और सुलभता के साथ हर किसी को प्रचुरता के साथ उपलब्ध होने लगे हैं कि मनुष्य की जीवन को लेकर सोच समझ और आचार विचार ही एकाएक उलट पलट गये हैं।तन और मन की एकाग्रता और धीर गंभीर शांत स्थानिय संसाधनों और अवसरों वाला पारिवारिक,सामाजिक लोकजीवन लुप्तप्राय श्रेणी की और चल पड़ा है।भागादौड़ी की भेड़ चाल गतिशीलता की नई निशानी बनती जा रहीं हैं।
पेट्रोल और बिजली की खोज ने व्यक्ति और समाज में मनुष्य की प्राकृतिक गतिशीलता को शायद पहली बार तेजी से आगे बढ़ाया था।पर सूचना संसाधनों की एक दो दशकों की गति की सुनामी ने मनुष्य की व्यक्तिगत और सामुहिक सोच,व्यक्तित्व और कृतित्व को जो गति प्रदान की हैं वह हमें सदगति की दिशा में ले जावेगी या हम सब को यांत्रिक सभ्यता का एक छोटा पुर्जा बना कर मनुष्य जीवन की दशा और दिशा को बदल देगी।यह सीधा सवाल हम सब के सामने हैं जिससे हम जूझ रहे हैं।पर हम सवाल को उलट पलट कर देखने समझने के बजाय इस सवाल को ही समाधान मानने लगे हैं।साथ ही जीवन की सनातन गति को सदगति के बजाय यांत्रिक दुर्गति की ओर बावले पन की हद तक अधीरे होकर ले जाने को जीवन की गतिशीलता समझने की शायद भूल कर रहे हैं।
तरंगों पर आधारित सूचना तकनीक ने मानव जीवन की संकल्पनाओं को एकाएक इस तरह बदल दिया हैं की मनुष्य की दैनन्दिन जीवन की अवधारणायें बदल गयी हैं।बिना गतिशील हुए बैठे बैठे मनुष्य अपने अधिकांश कार्यों को संपादित करने की हैसियत पा गया जो आज से पहले संभव नहीं थी।तरंगों की तकनीक ने मनुष्य को यह ताकत दी कि दुनिया के किसी भी हिस्से में सशरीर गये बिना ही मनुष्य अपनी आभासी उपस्थिति से कार्य संपादित करने का कौशल पा गया हैं।यह कार्य क्षमता तत्काल जीवन्त रूप में करपाना मनुष्य की गतिशीलता की बड़ी छलांग हैं।इस उपलब्धि ने मनुष्य जीवन के आचार,व्यवहार और विस्तार को वैश्विक रूप देने की आधारभूमि तैयार की है।पर साथ ही मनुष्य की व्यक्तिगत स्वाधीनता,निजता और मौलिकता के सामने गंभीर संकट भी उपस्थित किये हैं।इससे सारी दुनिया के लोग राज,बाजारऔर प्रचारतंत्र की जकड़बन्दी की गिरफ्त में चाहे अनचाहे उलझते जा रहे हैं।तरंगों की तकनीक का स्वरूप विश्वव्यापी है,तरंगों का विस्तार सीमा से परे हैं।दिमाग की गतिशीलता के लिये दुनिया खुल गयी हैं फिर भी देश विदेश में शरीर या नागरिकों की गतिशीलता पर कई तरह की पाबन्दियां दुनिया के हर देश में देशी और विदेशी दोनों के लिये हैं।यह मनुष्य की गतिशीलता के इतिहास का अनोखा विरोधाभास हैं।जो मनुष्य के विचार,व्यापार और संवाद को तरंगों के माध्यम से करने की इजाजत देता हैं पर मनुष्य की सशरीर गतिशीलता पर देश की सीमा के आधार पर नियंत्रण पर सब सहमत हैं।मनुष्य के विचार संवाद को तरंगों की तकनीक से करने की आज़ादी पर मनुष्य की गतिशीलता पर नाना प्रकार से नियंत्रण।
मनुष्य की जीवन की कल्पना में मनुष्य ने ही अंतहीन भेदों और नियंत्रणों को जन्म दिया।जबकि प्रकृति ने धरती के हर जीवन को एक समान प्रकाश,वायु ,भोजन और जीवन की निरन्तर श्रृंखला उपलब्ध की।जो अपनी सनातन गति से चलती आयी हैं और चलती रहेगी।पर मनुष्य की बुद्धि मनुष्य जीवन की गति को सदगति और दुर्गति के बीच झूलाती रहती हैं।यहीं प्रकृति और मनुष्य की बुद्धि की प्रकृति की भिन्नता और अभिन्नता का अनूठा मेल हैं।
स्व. श्री कृष्ण सरल की कविता की इन पंक्तियों में प्रकृति और गति का रिश्ता कुछ ऐसे समझाया गया है –
नदी कहती है’ बहो, बहो
जहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।
जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,
पूर्णता जीवन की पाओ।
विश्व गति ही तो जीवन है,
अगति तो मृत्यु कहाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
अनिल त्रिवेदी
स्वतंत्र लेखक और अभिभाषक
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