राजा देवीसिंह जी का जन्म मथुरा के राया तहसील के गांव अचरु में गोदर गौत्र (जिसे आज गोदारा के नाम से जाना जाता है) के हिंदू जाट परिवार में हुआ। धर्म के प्रति आप का अत्यधिक विश्वास था| इसके साथ ही साथ आप एक अच्छे पहलवान् भी थे। पहलवान् होने से तो आपका झुकाव क्षत्रियत्व की और होना चाहिए था किन्तु आपमें धार्मिक भावना अधिक बलवती थी, इस कारण आपने राज्य सत्ता के सुखों को त्याग कर संन्यास ले लिया और साधू बनकर घूमने तथा सदुपदेश देने लगे|
एक युवक के ताना देने क परिणाम
भारत जब अंग्रेजी दासता में जकड़ा हुआ था तथा देश पर अंग्रेज़ी अत्याचारों से भारतीय जूझ रहे थे| इन्हीं दिनों की बात है, जब आप एक गाँव में पहलवानी कर रहे थे तो आपके समकक्ष कोई अन्य पहलवान् न होने से कोई पहलवान् टिक नहीं पा रहा था| अत: आपकी विजय हुई| विजेता पहलवान् देवीसिह जी ने विजय की प्रसन्नता में जब झूमना आरम्भ किया तो एक युवक ने उन पर ताना कसते हुए कहा कि यहां एक छोटी सी जीत पर इतनी ख़ुशी मना रहे हो यदि दम है तो अंग्रेजों के सामने खड़े होकर देश की आजादी के लिए लड़ो| आप जानते हैं कि आपके पूर्वजो ने सदा से इस क्षेत्र की रक्षा अपने प्राणों की आहुति देकर की है। क्षत्रियों का धर्म भी यही उपदेश करता है|
राजा साहब तो बाल्यकाल से ही देशभक्त और धर्म परायण थे| अत: उस युवक की कही गई साधारण सी यह बात सीधे उनके दिल में जा कर चुभ गई| पहलवान् राजा साहिब ने प्रत्युत्तर में कहा कि बात तो तुम्हारी शतप्रतिशत सही है| यहां ताकत दिखाने का कोई लाभ नहीं, यह तो शक्ति का नाश करना ही तो है| मुझे अंग्रेजों से लड़कर देश को आजाद कवाना चाहिए किन्तु अंग्रेजों जैसे शक्तिशाली शत्रु से लड़ने के लिए एक उत्तम सेना भी तो चाहिये, मैं वह सेना कहां से लाऊं। वहां पर उपस्थित उनके एक साथी ने तत्काल सुझाव दिया कि आप अपनी स्वयं की एक अच्छी सेना खड़ी करें। इस पर राजा साहब सहमत हो गए। पूरे क्षेत्र में राजा देवीसिंह जी का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता था|लोग राजा साहिब के प्रति अत्यधिक श्रद्धा रखते थे तथा उनका बहुत आदर करते थे।
इस घटना के अनंतर राजा देवीसिंह जी के जीवन का जीवन ही परिवर्तित हो गया, एक उद्देश्य निर्धारित हो गया और उन्होंने सेना के एकत्रीकरण के लिए संलग्न गांवों के भ्रमण आरम्भ कर दिए| इस भ्रमण के मध्य जहाँ वह देश की स्वाधीनता के लिए योद्धाओं का साथ पाने के लिए आह्वान् कर रहे थे वहां जन जन में भी स्वाधीनता के महत्व को समझाते हुए उन्हें अपने आन्दोलन के साथ जोड़ रहे थे| स्वराज्य का भीष्ण शंखनाद करते ही उन्होंने क्षेत्र के गावों यथा राया, हाथरस, मुरसान, सादाबाद आदि समेत सम्पूर्ण कन्हैया की नगरी मथुरा, बृज क्षेत्र में क्रांति की अलख जगा दी। उस तेजस्वी नेता ने तेजपूर्ण भाषणों का ऐसा तांता बांधा कि युवाओं के खून में उबाल आने लगा और उनके साथ जुड़कर देश के लिए मर मिटने की शपथ लेकर पंक्तिबद्ध होने लगे। अत: उन्हें एक देशभक्त तथा धार्मिक सेना खड़ी करने में कुछ भी परेशानी नहीं आई। इस देशभक्त सेना ने राजा साहिब के नेत्रत्व में किसान की आजादी, अपना राज, तथा भारत को दासता से मुक्त कराने का दृढ संकल्प लिया।
कोई भी कार्य करना हो तो सब से पूर्व उसमें व्यय होने वाले धन की आवश्यकता होती है| इस आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए उन्होंने कुछ तो चंदा एकत्र किया तथा कुछ अंग्रेजों के धन को लूटकर तलवारों और बंदूकों की व्यवस्था की| अब जब धन भी आ गया और शस्त्र भी मिल गए तो इन्हें चलाने के लिए भी प्रशिक्षण की आवश्यकता थी| इन्हें शीघ्र ही शास्त्रों क प्रशिक्षण देने के लिए एक ऐसा प्रशिक्षक मिला गया, जो एक पदमुक्त सैनिक अधिकारी था| इस अधिकारी ने अपनी सेवाओं के माध्यम से सब वीरों को शस्त्र चलाने के लिए प्रशिक्षण देना आरम्भ किया और कुछ ही दिनों में युवकों को शास्त्रात्रों में निपुण भी कर दिया| बस फिर क्या था, देशभक्त प्रतीक्षा तो किया नहीं करते| देश को अपनी सेवायें देने के लिए उन्हें अवसर भी मिला गया| 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम अभी आरम्भ ही हुआ था, राजा साहिब अपनी इस नवनिर्मित सेना के साथ इस क्रान्ति के सहभागी बन अंग्रेज के विरोध में आ खड़े हुए|जब इस सबकी सूचना अंग्रेजों को मिली तो वह बौखला गए। राजा साहिब को क्रान्ति से अलग करने के लिए उन्होंने राजा साहब को लालच देते हुए ब्रिटिश सेना में आने का निमंत्रण दिया किन्तु राजा देवीसिंह ने बड़ी वीरता से अंग्रेज को यह उत्तर दिया कि अपने देश के दुश्मनों के साथ मिलकर अपने ही देशवासियों के विरोध में वह कभी भी खड़े नहीं हो सकते|
तत्पशचात् हरियाणा के नगर फरीदाबाद के निकटवर्ती सथित नगर बल्लभगढ के राजा नाहर सिंह ने उनकी भरपुर सहायता करते हुए, उन्होंने दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफर के पास जाकर राजा देवीसिंह जी की अनुशंसा करके उनके राज को मान्यता देने के लिए अनुरोध किया| बहादुरशाह जफर को उस समय क्रान्तिकारियों की मदद की ज़रुरत तो थी ही इसके साथ ही उनके सहायक के रूप में एक नाहरसिंह ही तो थे, जिनके कारण वह दिल्ली को अब तक अंग्रेजों से बचाये हुए थे। इसलिए उन्होंने इस अनुशंसा को तत्काल स्वीकार करते हुए राजा देवीसिंह जी के राज्य को अपनी और से मान्यता दे दी। इस प्रकार राजा देवीसिंह जी का राज तिलक हुआ और वह एक मान्यता प्राप्त श्रेणी के विधिवत् राजा बने|
राजा के रूप में देवीसिह जी ने अब अंग्रेज की सब व्यवस्थाओं को तहस नहस करने के लिए अंग्रेज संस्थाओं पर आक्रमण करना तथा उन्हें लूटना आरम्भ कर दिया| इस प्रकार ही मार्च सन् 1857 ईस्वी में एक बार फिर राजा देवीसिंह जी ने राया थाने पर आक्रमण कर दिया तथा वहां का सब कुछ नष्ट भ्रष्ट कर दिया। सात दिन तक थाने को घेरे रखा। जेल पर आक्रमण करके सब सरकारी दफ्तरों, बिल्डिंगों,पुलिस चौकियों आदि को जला कर राख कर दिया गया। परिणाम स्वरूप उस क्षेत्र के अंग्रेज कलेक्टर थोर्नबिल वहां का सब कुछ नष्ट होता वहीँ छोड़ वेष बदलकर वहां से भाग खड़ा हुआ। उसके भागने में उसके वफादार दिलावरख़ान और सेठ जमना प्रसाद ने उसकी सहायता की। इसके प्रतिफल स्वरूप दोनों को ही अंग्रेजी सरकार से बड़ा भूभाग तथा अन्य पुरस्कार मिला।
इस प्रकार राजा देवीसिह जी के प्रयास से राया अंग्रेज के चंगुल से निकल कर स्वाधीन हो गया| जिन बही खातों व अन्य माध्यमों से अंग्रेज लोग भारतीयों को लूट रहे थे, वह सब राजा साहिब ने अपने कब्जे में लेने के अनंतर जला दिए| यह सब व्यवस्था करने के अनंतर उन्होंने नगर के उन व्यापारियों को धमकाया, जो अंग्रेजों का समर्थन किया करते थे| उन्हें कहा गया कि या तो देश सेवा के कार्यों में उनका साथ दें अन्यथा दंड के लिए तैयार रहें। जो व्यापारी नहीं माने उनकी दुकान से सामान लूट लिया गया तथा उनके बही खाते जला दिए गए क्योंकि वे अंग्रेजों के साथ रहकर गरीबों से हद से ज्यादा सूदखोरी करते थे। पूरे मथुरा में राजा देवीसिंह की जय के नारे गूंजने लगे, उन्हें गरीबों का राजा कहते हुए सदैव अजेय राजा के रूप में जनता ने उन्हें प्रस्तुत किया|
राजा साहिब को अपना थाना चलाने के इए स्थान की आवश्यकता थी| उन्होंने एक सरकारी स्कूल के भवन को इस हेतू लिया और थाना आरम्भ कर दिया तथा अपनी सरकार पूर्णतः आधुनिक पद्धति से बनाई। उन्होंने कमिशनर, अदालत, पुलिस सुप्रिटेंडेन्ट आदि पद बना कर ईमानदार तथा देशभक्त व्यक्तियों को इन पदों पर नियुक्त किया| राजा साहिब प्रतिदिन यहाँ आकर जनता की समस्याओं को सुनते और उनका निराकरण करते| अब उन्होंने राया के किले पर भी अधिकार कर लिया। उनका यह नियम था कि प्रतिदिन जनता के बीच रहते हुए उनकी समस्याओं को अपनी आँखों से देखते और उनका समाधान भी करते थे।
राजा साहिब सब में देशभक्ति की भावानाएं जगाते रहते थे| इस हेतु वे देशभक्ति को जगाते हुए पूरे क्षेत्र में घूमते थे। उनके क्षेत्र में अंग्रेजों के प्रवेश पर रोक थी। राजा साहिब ने अनेक बार क्रांतिकारियों की सहायता करते हुए उनके साथ मिलकर अनेक अंग्रेजों को लूटा व आम लोगो की सहायता की।
बलिदान
राजा साहब ने निरंतर एक वर्ष तक अंग्रेज के नाक में दम किये रखा| किसी भी क्षण अंग्रेज को सुख चैन से बैठने का अवसर तक न दिया| अवस्था यहाँ तक आ गई कि अंग्रेज सरकार की चूलें तक हिलने लगीं|अंग्रेज अधिकारी तो राजा साहिब का नाम तक ही सुनकर थर थर कांपने लगते थे। एक अकेला वीर इतनी विशाल अंग्रेज सेना का कब तक सामना कर सकता था, हुआ भी कुछ ऐसा ही| अंग्रेजों ने कोटा से अपनी सेना को बुलाया| सेनाधिकारी मि. बिल ने अंग्रेज सेना के अधिकारी डेनिश के नेत्रत्व में सेना की एक बड़ी टुकड़ी की सहायता से आक्रमण किया, बड़ी सेना होते हुए भी धोखा देने में चतुर अंग्रेज ने यहाँ भी धोखे से ही काम लिया और धोखे से राजा साहिब को बंदी बना लिया। दिनांक 15 जून सन् 1858 को राया में ही उन्हें, उनके साथी श्री राम गोदारा तथा उनके अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ फांसी दे दी गई| अंग्रेजों ने फांसी देने से पूर्व उन्हें झुकने के लिए बोला किन्तु राजा साहिब ने कड़कते स्वर में निर्भय होकर कहा कि मैं मृत्यु के भय से अपने देश के शत्रुओं के आगे नहीं झुकूंगा।
इस प्रकार भारत माता का एक सच्चे सपूत, देशभक्त साधु ने देश पर संकट आने पर, संन्यास धर्म से ऊपर उठते हुए, अपनी तलवार पुनः उठाकर क्षत्रिय धर्म का पालन किया तथा देश सेवा करते हुए हंसते हंसते फांसी पर झूलकर देश के लिए बलिदान हो गया ।
डॉ. अशोक आर्य
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