आज से लगभग 3500 साल पहले पश्चिमी एशिया के सीरिया में भूमध्य सागर तक एक बड़े साम्राज्य का शासन चलता था. इसका नाम था मितन्नी.
बोगाजकोई सभ्यता से मिले पुरातत्व अवशेष लगभग 14वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बताए जाते हैं. इन से पता चलता है कि मितन्नी राजवंश में संस्कृत का उपयोग किया जाता था. माना जाता है कि इस सभ्यता में राजाओं के नाम हिंदु देवताओं के नाम पर संस्कृत भाषा में होते थे. इनमें इन्द्र, दशरथ, आर्त्ततम जैसे राजाओं का उल्लेख है.
आज जहां ये माना जाता है कि हिंदुओं की वैदिक भाषा संस्कृत भारत में उपजी है. ऐसे में इस बारे में जानना दिलचस्प हो जाता है कि आखिर ये भारत से दूर भूमध्य सागर तक कैसे पहुंची? आइए जानते हैं –
प्राचीन एनातोलिया में था मितन्नी साम्राज्य
1500 से 1300 ईसा पूर्व सीरिया के उत्तर और दक्षिण-पूर्व एनातोलिया में स्थित था एक साम्राज्य, जिसका नाम था मितन्नी. इसी अनातोलिया की हित्ती भाषा में आर्य शब्द भी पाया जाता है.
सत्याग्रह स्क्रॉल की एक रिपोर्ट के अनुसार, आज से लगभग 3500 साल पहले वर्तमान पश्चिमी एशिया में यूफ्रेटस और टिगरिस नदी घाटी के ऊपरी इलाके में मितन्नी राजवंश का शासन था. ये इलाका अब उत्तरी इराक, सीरिया और दक्षिण-पूर्वी तुर्की का हिस्सा है.
मितन्नी साम्राज्य की सीमा भूमध्य सागर के तट और उत्तरी अस्सीरिया और दक्षिण-पूर्वी मैसोपोटामिया से लगती थी. हित्तियों के हित्ती साम्राज्य से लगी मितन्नी राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा लगातार हमलों का शिकार रही. ये विवाद तब तक चलता रहा, जब तक कि दोनों प्रतिद्वंद्वियों ने एक शांति संधि नहीं कर ली.
1400 ईसा पूर्व के बोगाजकोई या मितन्नी अभिलेख में हिती राजा शुब्बिलिम्मा और मितन्नी राजा मतिऊअजा के बीच इस संधि के साक्षी के रूप में वैदिक देवताओं इंद्र, मित्र, वरुण और नासत्य का वर्णन किया गया है.
वैसे, मितन्नी और हित्ती एक दूसरे के काफी निकट माने जाते हैं.
राजवंश में संस्कृत नाम!
इस राजवंश में प्रत्येक राजा का नाम संस्कृत भाषा में होता है. जैसे पुरुष, दुश्रत्त, सुवरदत्त, इंद्रोता और सुबंधु जैसे कई नाम इनमें शामिल थे. यहां तक कि इस राज्य की राजधानी का नाम ‘वसुखनि’ भी संस्कृत भाषा में था.
माना जाता है कि वर्तमान उत्तरी सीरिया के इसी साम्राज्य में ऋग्वैदिक संस्कृत के लिखित साक्ष्य मिलते हैं.
मित्तानी राजवंश के राजाओं के नाम कीर्त्य, सत्वर्ण, वरतर्ण, बरात्तर्ण, आर्ततम, सत्वर्ण, अर्थसुमेढ़, तुष्यरथ या दशरथ, सत्वर्ण, मतिवाज, क्षत्रवर, वसुक्षत्र, क्षत्रवर थे.
माना जाता है कि ये लोग महाभारत के बाद भारत से आकर इस क्षेत्र में बसे थे. वहीं, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि ये लोग वेद की मैत्रायणीय शाखा के प्रतिनिधि हैं.
वहां कैसे पहुंची वैदिक संस्कृत
वैदिक संस्कृत जिस परिवार की भाषा है, उसकी संस्थापक भाषा को प्रोटो-इंडो-यूरोपीयन कहा जाता है. इसी की बेटी है प्रोटो-इंडो-ईरानी भाषा. इसी कारण से इसे उत्तर भारत और ईरान की भाषाओं का स्त्रोत माना जाता है. मतलब कि उत्तर भारत और ईरान की भाषाओं की उत्पत्ति यहीं से हुई है.
इसके अलावा, माना जाता है कि वैदिक संस्कृत 2000 ईसा पूर्व से भी पहले से ज्ञात है. ऐसे में कहा जा सकता है कि संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा है, जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार की एक शाखा है. आधुनिक भारतीय भाषाएं जैसे हिंदी, मराठी, सिंधी, पंजाबी और नेपाली आदि संस्कृत से ही उत्पन्न मानी जाती हैं.
वैदिक संस्कृत को ही आधुनिक संस्कृत की पूर्वज भाषा माना जाता है. ये आदिम हिन्द-ईरानी भाषा की बहुत ही निकट भाषा है. इसलिए वैदिक संस्कृत और प्राचीनतम ईरान की अवस्ताई भाषा एक-दूसरे से काफी मिलती जुलती हैं.
हिंद-ईरानी मूल से था वास्ता
मितन्नी राजाओं और उनकी राजधानी का नाम हिंद-ईरानी भाषा में था. मिसाल के तौर पर तुरेट्टा हिंद-ईरानी तवेसा-रथा का ही एक रूप है, जिसका मतलब होता है ‘रथ का मालिक’. वहीं, सत्वुअरा नाम सतवर का एक रूप है, जिसका अर्थ है ‘योद्धा’.
इसके अलावा, मितन्नी साम्राज्य की राजधानी का नाम वासुकानी या वाशुकानी था. ये प्राचीन सीरिया में यूफ्रेटस नदी की सहायक नदी हबूर के आसपास कहीं स्थित थी.
वाशुकानी नाम कुर्दिश शब्द बाशकनी के समान है. इसमें बाश का मतलब होता है अच्छा, वहीं कानी का अर्थ होता है स्रोत. वहीं, वाशुकानी संस्कृत शब्द वासुखानी की तरह ही है, जिसका मतलब होता है ‘धन की खान’.
इसके अलावा बेबीलोनिया के कासाइट शासकों के नाम भी प्रोटो-इंडो-ईरानी देवताओं के नाम पर हैं. कई मितन्नी शासकों के नाम में पुराने फारसी शब्द अर्ता, आशा या अर्शा भी पाए जाते हैं. जिसका मतलब होता है आदेश और सत्य. अर्ता संस्कृत में बदलकर रता हो जाता है.
पुराने फारसी अचेमेनियाई नामों और अवेस्टा में भी अर्ता नाम का उपयोग किया जाता था. जैसे 450 ईसा पूर्व में अर्ताखशास्सा.
The Mitanni Capital Wassukanni Is Similar To The Sanskrit Word Vasukhani. (Pic: Miniatures Page)
तो क्या आर्यों से जुड़ी है संस्कृत?
विद्वानों का मानना है कि सीरिया, बोगजकोई आदि की भाषा वैदिक भाषा के ही समान है. ऐसे में माना जाता है कि ये भाषाएं समकालीन रही होंगी. वहीं, ईरानी भाषा वैदिक भाषा से अधिक पुरानी मानी जाती है.
आर्यों के मामले में माना जाता है कि बोगजकोई से आर्यों का संबंध ईरान से पीछे हटते हुए हुआ होगा. माना जाता है कि पामीर का पठार ही वह मुख्य स्थान है, जहां से आर्य ईरान और सीरिया में आए.
बेबीलोन में कस्साइट लोगों के भारतीय आर्य देवताओं, जैसे सूरिअ, मरुत्तस, बुगुस, इन्द्रस के नाम मिलते हैं. माना जाता है कि इन्होंने 1760 ईसा पूर्व में बेबीलोन में अपना राजवंश स्थापित किया था.
वहीं, संस्कृत की एक विशेषता ये मानी जाती है कि हिंद-यूरोपीयन परिवार की भाषाओं के जिन शब्दों का परस्पर संबंध नहीं है, वह संस्कृत से जुड़े हुए हैं.
जैसे ट्यूटोनिक चुनिग, लिथुआनी ओजी, लातिनी उलुकुस, यूनानी पोलिस और अवेस्ता हैजा के लिए संस्कृत में क्रमश: जनक, अज्ञ, उलुकस, पुरस व सहस्त्र शब्द हैं. इससे ये आकलन लगाया जाता है कि जिस जगह आर्य रहे होंगे या जो भी आर्यों का मूल प्रदेश रहा होगा, वह संस्कृत का भी मूल प्रदेश होगा.
मिस्र के फराहो से थे संबंध
जब बेबीलोन का साम्राज्य पतन की ओर था, ऐसे में मितन्नी राजा अपने क्षेत्र विस्तार में लगे थे.
कुछ हद तक, कमजोर बेबीलोनिया ने मितन्नी साम्राज्य को एक मौका दिया. या ये कहें कि मितन्नी साम्राज्य के उदय ने बेबीलोनिया को कमजोर कर दिया. और इसका परिणाम ये हुआ कि हित्ती राजा मुर्सिली ने यूफ्रेट्स नदी के साथ आगे बढ़ते हुए शायद 1595 ईसा पूर्व तक बेबीलोन को तबाह कर दिया. हालांकि इस बारे में ऐतिहासिक विवरण अस्पष्ट हैं, लेकिन इसका परिणाम स्पष्ट था.
1500 ईसा पूर्व तक मितन्नी राजा परात्तरणा एक महत्वपूर्ण शासक था. उसने सीरिया के महत्वपूर्ण शहर अलेप्पो पर कब्जा कर लिया. हालांकि, इस दौरान सीरिया में खासा रुचि रखने वाली मितन्नी ही एकमात्र शक्ति नहीं थी.
मिस्र के राजा थुटमोस तृतीय या फराहो तृतीय (1479-1425) ने भी इस क्षेत्र पर कई बार चढ़ाई की. माना जाता है कि अपने 8वें अभियान के दौरान फाराहो ने मितन्नी शासक को हरा दिया. इसी के साथ मिस्रवासी यूफ्रेटस नदी पर पहुंच गए और वह जहाजों के सहारे मितन्नी साम्राज्य के करचेमिश से इमार तक बंदरगाह कस्बों को तबाह कर दिया.
मिस्र के लोग भूमध्य सागर के बंदरगाहों पर कब्जा करने में सफल रहे, लेकिन वे सीरिया को पूरी तरह से अपने कब्जे में नहीं कर पाए.
ऐसे में मजबूरन फराहो थुटमोस चतुर्थ (1401-1391) और मितन्नी राजा अर्तातमा प्रथम को दोस्ती करनी पड़ी.
संस्कृत से मिलती जुलती थी हुर्रियन भाषा
15वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक, दक्षिण-पूर्वी तुर्की, पूर्वोत्तर सीरिया, उत्तरी इराक, और उत्तर-पश्चिम ईरान, वर्तमान में कुर्द आबादी वाला कम या इससे ज्यादा क्षेत्र पर मितन्नी राजाओं का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण था.
ये वो क्षेत्र था जहां लोग हुर्रियन भाषा बोलते थे. ये भाषा इंडो-यूरोपियन भाषा परिवार से संबंधित नहीं है. हालांकि, हर एक मितन्नी राजा हुर्रियन ही नहीं बोलता था, और न हीं हुर्रियन बोलने वाला हर कोई मितन्नी था.
तर्क दिया जाता है कि मितन्नी वास्तव में हुर्रियन बोलने वाले राज्यों का एक संघ था. यहां के लोग हिंद-ईरानी भाषा बोलते थे. जो संस्कृत से मिलती-जुलती थी.
साभार- https://roar.media/hindi से