अब तक हमने वैदिक अग्नि होत्र के अंतर्गत ब्रह्म यज्ञ, आचमन मन्त्र,ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना मन्त्र, (स्वस्तिवाचन तथा शंतिकरानम् को छोड़कर)पुन: आचमन, अंग स्पर्श के मन्त्रों, अग्न्याधान, समिदाधान, अग्नि प्रज्वालन, जल प्रक्षेपण तथा आघारावाज्याभाग आहुतिओं के माध्यम से तेरह क्रियाओं को संपन्न किया है| इन के पश्चात हम अग्निहोत्र के प्रधान होम को आरम्भ करने की स्थिति में आ गए हैं| प्रधान होम का आरम्भ हम दैनिक यज्ञ से करते हैं और दैनिक यज्ञ में भी हम प्रथम रूप में प्रात:काल के मन्त्रों के द्वारा यज्ञ को आगे चलाते हैं| अग्निहोत्र की इस क्रिया को आरम्भ करने के साथ ही घी के साथ सामग्री की आहुतियाँ भी आरम्भ की जाती हैं| अब तक जितनी भी आहुतियाँ दी गईं थीं, वह सब केवल घी की ही दी गईं थीं, अब मुख्य यज्ञमान तो पूर्ववत् घी की ही आहुतियाँ देता रहेगा, जबकि अन्य तीनों और बैठे हुए उसके सहयोगी लोग सामग्री की आहुतियाँ स्वाहा के साथ देने लगेंगे| यहं एक बात पुन: समझ लें कि ऋषि की व्यवस्था के अनुसार यज्ञकुंड की चारों दिशाओं में एक एक ही साधक स्थान लेंगे, कुल चार लोग होंगे, इससे अधिक नहीं| प्रात:काल के मन्त्र यजुर्वेद से लिए गए हैं,
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जो इस प्रकार हैं:-
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा||१||
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा||२||
ओं ज्योति सूर्य: सूर्यो ज्योति: स्वाहा||३|| यजुर्वेद ३-९
ओं सजुर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्र्वत्या जुशाण: सूर्यो वेतु स्वाहा||४|| यजुर्वेद ३.१० अर्थ- सूर्य: हे सब को प्रेरणा देने वाले सर्व प्रेरक जगदीश्वर ज्योति: प्रकाशमान् है और ज्योति: सकल प्रकाश सूर्य: सूर्यादि प्रकाशकों का ही बाह्य संकेत है स्वाहा उस प्रभु के चरणों में आत्म समर्पण करते हैं|
सूर्य: सर्वोत्पादक वर्च: दीप्तिमय है और ज्योति: जितनी ज्योति जगत् में दिखाई देती है वर्च: वह उसी का प्रकाश है स्वाहा उसी के निमित्त हम अच्छे प्रकार से आहुति देते हैं|
ज्योति: जितना प्रकाश है, वह सूर्य: सूर्य ही है सूर्य: सूर्यों का सूर्य ज्योति: प्रकाशरूप है अर्थात् परमपिता परमात्मा को श्रेष्ठ प्रकाशयुक्त समझते हुए, , सब सूर्य आदि में उसी की ज्योति का दर्शन करते हुए स्वाहा इसमें स्व अपनी अहा रक्षा करो | इस रक्षा के लिए सच्ची भक्ति और श्रद्धा ही साधन है|
देवेन प्रकाशमान् सवित्रा प्रेरक ( अस्तमय के आदित्य) के साथ सजू: समान प्रीति से युक्त तथा इन्द्र्वत्या एश्वर्यप्रद विभूति से युक्त उषसा प्रात:कालकी लाली के साथ सजू: समान प्रीतियुक्त सूर्य: सूर्य जुषाण: सेवन होता हुआ वेतु प्राप्त हो स्वाहा यह वाणी सत्य हो|
व्याख्यान
इस दैनिक यज्ञ के अंतर्गत प्रात:कालीन यज्ञ का आरम्भ हम करने जा रहे हैं| यह यज्ञ आरम्भ करने से पूर्व प्रात: से पुर्व की पृष्ठभूमि का भी कुछ अवलोकन करते हैं| रात्रि को चन्द्रमा की शीतल छाया में हम स्नान कर रहे थे, तारागण अपनी आभा दिखा रहे थे और प्रत्येक परिवार में, प्रत्येक घर में दीपक जल रहे थे| यह दीपक इसलिए जल रहे थे ताकि रात्री के अन्धकार में भी हम दीपक के प्रकाश में अपना मार्ग देख सकें| इस कार्य में चन्द्र और तारागण भी सहयोग दे रहे थे|
अब जब प्रात:काल हो गया है| सूर्य ने अपना प्रकाश सब और फैला दिया है| इस सूर्य के प्रकाश के अन्दर अन्य सब प्रकार के प्रकाश के साधनों का प्रकाश सूर्य के प्रकाश के अन्दर ही समा गया है| अब उन सब के प्रकाश की आवश्यकता ही नहीं रह गई है| इसके अतिरिक्त जब हम सूर्य की अवस्था को देखते हैं तो हम पाते हैं कि सूर्य दो रूपों में हमारे सामने आता है| प्रथम रूप सूर्य के उदय के रूप में आता है तो द्वितीय रूप के अंतर्गत सूर्य का अस्त होने का स्वरूप हमारे सामने होता है| इन दोनों समयों में आकाश लालिमा से भर जाता है| इन दोनों समय के सूर्य की ज्योति में इससे मिलने वाली लालिमा की एश्वर्य को बढाने वाली तथा इससे मिलने वाली प्रेरणा को मिलाकर एक सर्वांगपूर्ण प्रकाश को मिलाकर एक प्रकाशमयी विभूति बनती है| प्रकाशमयी इस विभूति को देखकर इस प्रकाशमयी विभूति के मूल कारण परमपिता परमेश्वर, सर्वप्रकाशक अर्थात् सब प्रकार के प्रकाशों को देने वाले जगदीश्वर का ध्यान करते हुए इस प्रात:कालीन यज्ञ में हम अपनी आहुतियाँ देते हैं|
प्रात:काल में बोलकर आहुति देने के मन्त्र
प्रात:काल कि मुख्य आहुतियाकं देने के पश्चात हम निम्नाकित आठ आहुतियाँ देते हैं, यह आठों आहुतियाँ सायंकाल के यज्ञ में भी दी जातीं हैं|
ओं भूरग्नये स्वाहा| इदमग्नये प्राणाय, इदन्न मा||१||
ओं भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा|इदं वायवेऽपाने, इदन्न मम||२||
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा| इद्मादित्याय व्यानाय, इदन्न मम||३||
ओं भूर्भुव: स्वरग्नि वाय्वादित्येभ्य: प्राणापानव्यानेभ्य: स्वाहा| इदमग्निवायावादित्येभ्य: इदन्न मम||४||
शब्दार्थ:- भू: सर्वाधार अग्नये प्रकाश स्वरूप प्राणाय जीवनप्रद भगवान् के लिए||१|| भुव: आलस्य दूर करने वाले वायवे गतिमान् अपानाय दु:ख नाशक के लिए (शेष पूर्ववत्)||२|| स्व: प्रकाश स्वरूप आदित्याय अखंड रूप व्यानाय सर्वव्यापक प्रभु के लिए (शेष पूर्ववत्) ||३|| भू: सर्वाधार भुव: आलस्य निवारक स्व:प्रकाश स्वरूप अग्नि-वायु आदित्येभ्य: अग्नि वायु और आदित्यरुपि विभूतियों के आधार प्राण अपान व्यानेभ्य: जीवन, दु:खनाश तथा व्यापकता के भावों से युक्त प्रभु के प्रति यश श्रद्धा पूर्वक स्वाहा आहुति देता हूँ| यह अग्न्यादि सर्वोपकारक देवताओं तथा प्राणादि सर्वप्रिय गुणों के विस्तार के लिए आहुति देता हूँ| इदन्न मम इस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है| प्रभो, स्वीकार करो, स्वीकार करो और मेरे आत्मा को पूर्णतया विकसित बनाओ|
ओं आपो ज्योति रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुव: स्वरों स्वाहा||५||
शब्दार्थ:- आप: सर्वव्यापक ज्योति: प्रकाशरूप रस: रसरूप अमृतं अमृत ब्रह्म सबसे बड़ा भू: सर्वाधार भुव: गतिमान् स्व: सुखप्रद ओं सर्वगुण प्रभु के चरणों में यह हवि स्वाहा समर्पित करता हूँ|
भाव
इसका भाव यह है कि: हे परमपिता परमात्मा! आप सर्वव्यापक होने के कारण इस सृष्टि के कण कण में रमे हुए हो| आप प्रकाश स्वरूप होने के कारण इस जगत् में जितने भी प्रकाश के साधन हैं, वह सब आपसे ही से प्रकाश पाते हैं| आप रसरूप होने के कारण इस विश्व के सब प्रकार के रसों का केंद्र बिंदु भी आप ही हो| आप ही अमृतरूप हो, सब प्रकार के अमृतों की उत्पत्ति का स्थान अप ही हो| आप सब के आधार हो, आप सब गतियों के भी दाता हो, सब प्रकार के सुखों का आदि स्रोत भी आप ही हो, इस जगत् में जितने प्रकार के भी गुण हैं, वह सब आप में विद्यमान हैं| इस प्रकार के प्रभु के चरणों में इस यज्ञ के माध्यम से मैं अपनी यह आहुति समर्पित करता हूँ| इस आहुति पर मेरा कुछ भी अधिकार नहीं है|
ओं यां मेधां देवगणा: पितरश्चोपासते| तया मामद्य मेधयाऽग्ने
मेधाविनं कुरु स्वाहा||६|| यजुर्वेद ३२.१४
शब्दार्थ:- यां जिस मेधां धारणावती बुद्धि की देवगणा: विद्वानों के समुदाय पितर: पूज्य, रक्षक अथवा सज्जन लोग उप-आसते उपासना करते हैं अग्ने प्रकाश रूप प्रभो! तया उसी मेधया बुद्धि से अद्य अब मां मुझे मेधाविनं बुद्धि से युक्त कुरु बनाइये स्वाहा ताकि मैं सत्य का मनन, वचन तथा आचरण करता रहूँ|
भाव
हे परम पावन प्रभो! जिस उत्तम बुद्धि को पाने के लिए उत्तम बुद्धियों वाले विद्वान् लोग, जिन्हें हम पूज्य मानते हैं, अपना रक्षक मानते है और जिनकी सज्जनता से भरपूर मार्ग का हम अनुगमन करते हैं यह सज्जन लोग आपके निकट अपना आसन लगा कर आपकी उपासना करते हुए आपसे प्राथना करते हैं| हे सब प्रकार के प्रकाशों के केंद्र प्रकाश रूप प्रभो! उस प्रकार की ही तीव्र मेधा से भरपूर बुद्धि अब मुझे भी देकर, मुझे भी उत्तम बुद्धि वाला होने का अधिकारी बनावें| ताकि मैं सदा सत्य मार्ग का विचार पूर्वक अनुगमन करते हुए सदा सत्य वचन ही बोलूं और सदा सत्य पर ही आचरण करूँ| यह आहुति आपके लिए है, इसमें मेरा कुछ भी नहीं है|
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव| यद्भद्रन्तन्न आसुव स्वाहा||७||यजुर्वेद ३०.३
भाव
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र एश्वर्ययुक्त ,शुद्धस्वरूप ,सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण , दुर्व्यसन और दु:खों को दूर कर दीजिये | जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिये |
ओं अग्ने ने सुपथा राये अस्मान्| विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्| युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भुयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम स्वाहा ||८|| यजुर्वेद ४०.१६ `
भाव
हे स्वप्रकाशक , ज्ञानरूप , सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं , कृपा करके हम लोगों को विज्ञान व राज्यादि एश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे , धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हम से कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिये | इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार की स्तुतिरूप नम्रतापूर्वक प्रशंसा सदा किया करें और सर्वदा आनंद में रहें |
इसके साथ ही जो लोग प्रतिदिन केवल प्रात:काल यज्ञ करते हैं, उनके लिए यह यज्ञ यहाँ पर समाप्त हो जाता है| इस मन्त्र के पश्चात् सर्वं वै पूर्वं को तीन बार बोलकर आहुतियाँ देते हुए इस समय के यज्ञ को शान्ति पाठ के साथ समाप्त कर देते हैं|
सायं कालीन यज्ञ के मन्त्र
ओम् अग्निर्ज्योज्योतिरग्नी: स्वाहा||१||
ओम अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा||2||
ओम् अग्निर्ज्योज्योतिरग्नी: स्वाहा||३|| यजुर्वेद ३.९
ओं सजुर्देवेन सवित्रा सजूरात्र्येन्द्र्वत्या जुशाण: अग्निर्वेतु स्वाहा||४|| यजुर्वेद ३.१०
इन चार मन्त्रों से यज्ञकुंड में एक एक कर घी और सामग्री से चार आहुतियाँ देवें| मन्त्रों के अर्थ इस प्रकार हैं:-
अर्थ:- अग्नि: अग्नि ज्योति: ज्योति है,प्रकाश है ज्योति: जितना प्रकाश है अग्नि: (वह अग्नि की भी जो)अग्नि है( उसी की विभूति है||१||अग्नि: अग्नि वर्च: दीप्ति है ज्योति: ज्योति: स्वरूप परमात्मा(ही की वह) वर्च: दीप्ति है||२|| तीसरे और प्रथम मन्त्र का अर्थ एक ही है| वहां से ही समझ लें| तीसरे मन्त्र की मौन आहुति होती है अर्थात् यह मन्त्र मन के अन्दर बिना आवाज किये ही बोलना होता है| मन्त्र का मन में उच्चारण करना ध्यान में सहायता का कारण होता है| प्राय: यज्ञ कर्म करते करते इतना अभ्यास तो हो ही जाता है कि मन कहीं और होता है और हाथ आहुति डाल रहा होता है| इस मौन की विधि का यह तात्पर्य है कि साधक स्वयं ही फिर विचारसहित कर्म करना आरम्भ कर दे| अध्यात्मिक संकेत जो यज्ञ की क्रियाओं में आते हैं, उनका ध्यान से पूर्ण लाभ होता है|
अब हम चौथे मन्त्र को लेते हैं| इस मन्त्र के शब्दार्थ इस प्रकार हैं:-
अर्थ:- देवेन प्रकाशमान सवित्रा सर्व-प्रेरक-प्रभु की सायं काल के आदित्य के रूप में वर्तमान विभूति के साथ तथा इंद्रवत्या ऐश्वर्ययुक्त रात्र्या रात्रि के साथ सजू: समान प्रति से युक्त जुषान: सेवन की जाती हुई अग्नि: आग(आग में प्रकाशमान प्रभु) वेतु प्राप्त हो स्वाहा यह कर्म सफल हो|
व्याख्यान
सविता से भाव है कि अस्त होता हुआ सूर्य भी प्रात;काल उदय होते सूर्य के सामान ही अग्नि का रूप धारण किये होता है| रात्रिकाल में यह अग्नि ही उसका प्रतिनिधित्व करती है| रात्री विश्राममयी होती है क्योंकि रात्रिकाल में विश्राम करने का ईश्वरीय नियम है| इस प्रकार यह विश्राममयी रात्रि एक प्रकार से पुन: सूर्य को पुन: चमकने के योग्य बना देती है| अत: यह रात्रि ऐश्वर्य को देने वाली होती है| इस प्रकार रात्रि द्वारा तथा सवितृयुक्त अग्नि द्वारा प्रकाशमान विभूति से भरपूर परमपिता परमात्मा का ध्यान करते हुए हम आहुति डालें|
यहाँ पर प्रात: और सायंकाल के अलग अलग मन्त्रों की आहुतियों की समाप्ति होती है| इसके पश्चात् वह आठ मन्त्र आते हैं, जो प्रात:काल और सायंकाल दोनों काल बोले जाते हैं|
सायंकाल में बोलकर आहुति देने के मन्त्र
आगे जिन आठ मन्त्रों से हम आहुति देने जा रहे हैं, यह आठ मन्त्र प्रात:कालीन यज्ञ में भी बोले जाते हैं और इनके साथ आहुतियाँ दी जाती हैं|
ओं भूरग्नये स्वाहा| इदमग्नये प्राणाय, इदन्न मा||१||
ओं भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा|इदं वायवेऽपाने, इदन्न मम||२||
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा| इद्मादित्याय व्यानाय, इदन्न मम||३||
ओं भूर्भुव: स्वरग्नि वाय्वादित्येभ्य: प्राणापानव्यानेभ्य: स्वाहा| इदमग्निवायावादित्येभ्य: इदन्न मम||४||
शब्दार्थ :- भू: सर्वाधार अग्नये प्रकाश स्वरूप प्राणाय जीवनप्रद भगवान् के लिए||१|| भुव: आलस्य दूर करने वाले वायवे गतिमान् अपानाय दु:ख नाशक के लिए (शेष पूर्ववत्)||२|| स्व: प्रकाश स्वरूप आदित्याय अखंड रूप व्यानाय सर्वव्यापक प्रभु के लिए (शेष पूर्ववत्) ||३|| भू: सर्वाधार भुव: आलस्य निवारक स्व:प्रकाश स्वरूप अग्नि-वायु आदित्येभ्य: अग्नि वायु और आदित्यरुपि विभूतियों के आधार प्राण अपान व्यानेभ्य: जीवन, दु:खनाश तथा व्यापकता के भावों से युक्त प्रभु के प्रति यश श्रद्धा पूर्वक स्वाहा आहुति देता हूँ| यह अग्न्यादि सर्वोपकारक देवताओं तथा प्राणादि सर्वप्रिय गुणों के विस्तार के लिए आहुति देता हूँ| इदन्न मम इस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है| प्रभो, स्वीकार करो, स्वीकार करो और मेरे आत्मा को पूर्णतया विकसित बनाओ|
ओं आपो ज्योति रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुव: स्वरों स्वाहा||५||
शब्दार्थ:- आप: सर्वव्यापक ज्योति: प्रकाशरूप रस: रसरूप अमृतं अमृत ब्रह्म सबसे बड़ा भू: सर्वाधार भुव: गतिमान् स्व: सुखप्रद ओं सर्वगुण प्रभु के चरणों में यह हवि स्वाहा समर्पित करता हूँ|
भाव
इसका भाव यह है कि: हे परमपिता परमात्मा! आप सर्वव्यापक होने के कारण इस सृष्टि के कण कण में रमे हुए हो| आप प्रकाश स्वरूप होने के कारण इस जगत् में जितने भी प्रकाश के साधन हैं, वह सब आपसे ही से प्रकाश पाते हैं| आप रसरूप होने के कारण इस विश्व के सब प्रकार के रसों का केंद्र बिंदु भी आप ही हो| आप ही अमृतरूप हो, सब प्रकार के अमृतों की उत्पत्ति का स्थान अप ही हो| आप सब के आधार हो, आप सब गतियों के भी दाता हो, सब प्रकार के सुखों का आदि स्रोत भी आप ही हो, इस जगत् में जितने प्रकार के भी गुण हैं, वह सब आप में विद्यमान हैं| इस प्रकार के प्रभु के चरणों में इस यज्ञ के माध्यम से मैं अपनी यह आहुति समर्पित करता हूँ| इस आहुति पर मेरा कुछ भी अधिकार नहीं है|
ओं यां मेधां देवगणा: पितरश्चोपासते| तया मामद्य मेधयाऽग्ने
मेधाविनं कुरु स्वाहा||६|| यजुर्वेद ३२.१४
शब्दार्थ:- यां जिस मेधां धारणावती बुद्धि की देवगणा: विद्वानों के समुदाय पितर: पूज्य, रक्षक अथवा सज्जन लोग उप-आसते उपासना करते हैं अग्ने प्रकाश रूप प्रभो! तया उसी मेधया बुद्धि से अद्य अब मां मुझे मेधाविनं बुद्धि से युक्त कुरु बनाइये स्वाहा ताकि मैं सत्य का मनन, वचन तथा आचरण करता रहूँ|
भाव
हे परम पावन प्रभो! जिस उत्तम बुद्धि को पाने के लिए उत्तम बुद्धियों वाले विद्वान् लोग, जिन्हें हम पूज्य मानते हैं, अपना रक्षक मानते है और जिनकी सज्जनता से भरपूर मार्ग का हम अनुगमन करते हैं यह सज्जन लोग आपके निकट अपना आसन लगा कर आपकी उपासना करते हुए आपसे प्राथना करते हैं| हे सब प्रकार के प्रकाशों के केंद्र प्रकाश रूप प्रभो! उस प्रकार की ही तीव्र मेधा से भरपूर बुद्धि अब मुझे भी देकर, मुझे भी उत्तम बुद्धि वाला होने का अधिकारी बनावें| ताकि मैं सदा सत्य मार्ग का विचार पूर्वक अनुगमन करते हुए सदा सत्य वचन ही बोलूं और सदा सत्य पर ही आचरण करूँ| यह आहुति आपके लिए है, इसमें मेरा कुछ भी नहीं है|
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव| यद्भद्रन्तन्न आसुव स्वाहा||७||यजुर्वेद ३०.३
भाव
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र एश्वर्ययुक्त ,शुद्धस्वरूप ,सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण , दुर्व्यसन और दु:खों को दूर कर दीजिये | जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिये |
ओं अग्ने ने सुपथा राये अस्मान्| विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्| युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भुयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम स्वाहा ||८|| यजुर्वेद ४०.१६ `
भाव
हे स्वप्रकाशक , ज्ञानरूप , सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं , कृपा करके हम लोगों को विज्ञान व राज्यादि एश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे , धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हम से कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिये | इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार की स्तुतिरूप नम्रतापूर्वक प्रशंसा सदा किया करें और सर्वदा आनंद में रहें |
इस मन्त्र के साथ सायंकालीन यज्ञ पूर्ण होता है बस अब हम सर्वं वै पूर्णं को तीन बार बोलकर इसके साथ एक एक आहुति देते हुए इस सायंकालीन यज्ञ को भी शान्तिपाठ के साथ समाप्त करते हैं|
यहाँ इस बात को ध्यान रखना है कि प्रात:काल का यज्ञ प्रात:काल ही करें और सायंकाल का यज्ञ सायंकाल ही करें| जो लोग दोनों समय यज्ञ नहीं करते, वह भी केवल उस समय की आहुतियाँ ही डालें, जिस समय यज्ञ करा रहे होते हैं| दोनों समय की आहुतियाँ एक साथ डालना ठीक नहीं है| इसके साथ ही दैनिक यज्ञ की क्रिया समाप्त होती है| जो लोग केवल दैनिक यज्ञ करते हैं, उनके लिए यह यज्ञ आज के लिए समाप्त हो गया है| जो लोग विस्ततार से यज्ञ करते हैं अथवा आर्य समाजों में अथवा किन्हीं विशेष पर्वों में जो लोग वृहद् यग्य करना चाहें वह वृहद् यज्ञ के लिए अगली क्रिया से यज्ञ को आगे बढ़ा सकते हैं| दैनिक यज्ञ की क्रिया यहाँ समाप्त होती है|
डॉ.अशोक आर्य पाकेट १/६१ रामप्रस्थ ग्रीन से.७ वैशाली
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