विगत क्रिया में हमने पवमान आहुतियों के अंतर्गत घी की चार आहुतियाँ दी गईं थीं| यह आहुतियाँ देने के अंत में हम निरंतर कहते गए कि हे प्रभू! अब तक यज्ञ में आहुति स्वरूप जो कुछ भी अर्पण किया है अथवा जो जो भी हम ने आहूत किया है, वह सब आप ही का था| हमारा उस से कुछ भी सम्बन्ध नहीं था, आप ही का था और आपको ही समर्पण कर दिया था| इसलिए इन आहुतियों में मेरा कुछ भी नहीं था| हां! इसमें प्रयोग किया गया पुरुषार्थ अवश्य मेरा था, जिसका प्रयोग इस अग्निहोत्र को संपन्न करने के लिए मैंने आपके ही मार्ग दर्शन से प्रयोग किया था| इसलिए यह पुरुषार्थ भी आपके मार्गदर्शन में होने के कारण, एक प्रकार से आप ही के इंगित होने के कारण आप ही का कहा जा सकता है, मैं यह न कर पाता यदि आप यह करने के लिए मुझे इशारा न करते| इसलिए यह सब आप ही का है और आपके ही निर्देश के लिए जनकल्याण के लिए प्रयोग किया गया है, इसमें मेरा कुछ भी नहीं है|
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अब हम इस से अगली अर्थात् बीसवीं क्रिया को लेते हैं| इस क्रिया का नाम है अष्टआज्याहुति जिसका भाव यह है कि कलकते हुए घी की आठ आहुतियाँ| यह एक बात स्पष्ट करने की आवश्यकता पुन: आ खड़ी हुई है कि यदि यह केवल घी की ही आहुतियाँ हैं तो इस में सामग्री डालनी चाहिए या नहीं? तो इसका उत्तर यदि मैं दूँ तो कहूंगा नहीं क्योंकि इसका नाम ही घी की आठ आहुतियाँ है किन्तु आजकल प्राय: कुछ स्थानों को छोड़कर सब स्थानों पर इन आहुतियों में घी के साथ ही साथ वेदी के अन्य तीनों ओर बैठे हुए लोग सामग्री की आहुतियाँ भी डालने लगे हैं|
यह ऋषि की दी गई विधि के बिलकुल विरुद्ध है| जब ऊपर ही स्पष्ट कर दिया गया है कि अष्टाज्याहुती और यह पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है कि आज्या का अर्थ घी होता है, इस कारण इन आहुतियों में केवल घी ही की आहुतियाँ दी जानी चाहियें, सामग्री का इन आहुतियों से कोई सम्बन्ध नहीं है और ऋषि भी इन आहुतियों में सामग्री डालने से रोक रहे हैं तो फिर हम किस आधार पर इन आहुतियों में सामग्री डालने लगे हैं| अत: इन आठ आहुतियों में सामग्री बिलकुल भी न डाली जावे और केवल घी की ही आहुतियाँ दी जावें| इस आठ आहुतियों के लिए नाम के अनुसार ही वेद के आठ मन्त्र भी निर्धारित किये गए हैं| इन आठ मन्त्रों में से प्रथम मन्त्र इस प्रकार है:-
ओं त्वं नोऽअग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेळोऽव यासिसीष्ठा:|
यजिष्ठो वह्नितम: शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा|
इद्माग्नीवरुणाभ्याम्-इदन्न मम||१|| ऋग्वेद ४.१.४
शब्दार्थः स: इस प्रकार के त्वं आप हे अग्ने ज्ञान स्वरूप प्रभो! न: हमारे प्रति ऊति रक्षा द्वारा अवम: समीपवर्ती भव हो (और) अस्या: इस उषस: उषा के व्युष्टौ प्रकाश में दिष्ट: अति समीपवर्ती(हों) | रराण: दानयुक्त होकर न: हमारे प्रति वरुणं सर्वव्यापक प्रभु को अव-यक्ष्व प्रसन्न कीजिये मृळीकं सुख से देने वाली हावी को वीहि स्वीकार करें| न: हमें सुहव: आसानी से बुलाये जा सकने वाले एधि बनें|
संक्षिप्त भावार्थः हम उस ज्ञानस्वरूप परमात्मा की आराधना से पाप से परे रहकर सर्वव्यापक प्रभु की प्रसन्नता के पात्र बनें|
व्याख्यानःज्ञानस्वरूप प्रभु हमें भी ज्ञान का दान दो। हे ज्ञानस्वरूप प्रभो! ज्ञान स्वरूप होने के कारण आप ज्ञान का आदि स्रोत हो| सब प्रकार के ज्ञानों का आप ही भण्डार हो| इस कारण आप सदैव हमारे निकट रहो| आपकी निकटता पाकर हम भी आप से ज्ञान की चंद बूंदें प्राप्त कर सकें और हम भी ज्ञानी कहला पाने के योग्य हो सकें| आपकी रक्षा में ही रहते हुए हम भी सब प्रकार के ज्ञानों को पाने के लिए सदा पुरुषार्थ करते रहें| जब हम मेहनत करेंगे तो आपके आशीर्वाद से कुछ न कुछ ज्ञान तो पाने में हम सफल होंगे ही|
उषा के प्रकाश में निकट हो
हे प्रभो! उषा काल की लालिमा की शुभ घडी में हम आपका स्मरण करते हैं| इस वेला में आप हमारे सहयोगी बनो| हमारे समीप रहो अथवा हमें आपकी समीपता प्राप्त हो अपितु उषाकाल में तो यह समीपता और भी अधिक हो जावे और आप हमारे निकटतम हो जावें| इतना निकट हो जावें की इससे अधिक निकट हो पाना संभव ही न हो|
यह निकटता की बात उषाकाल के समय इसलिए कही गई है क्योंकि यह वह समय है, जिस समय हम ब्रह्मयज्ञ करते हैं| ब्रह्मयज्ञ के लिए हम अपना आसन प्रभु के निकट लगा कर इतनी निकटता पा लेते हैं कि इससे अधिक निकटता संभव ही नहीं हो सकती| हे प्रभु! आप सब से बड़े दानी हैं| उषा काल से ही आपके खजाने दान के लिए खुल जाते हैं| हम आपसे जो कुछ भी प्राप्त करें वह स्वार्थ के आधीन होकर कभी भी हम अपने पास न रखें अपितु जिस प्रकार आप निस्वार्थ भावना से अपने भक्तों को सब कुछ दानकर देते हो, उस प्रकार हम भी इस अग्निहोत्र के द्वारा आप से लिया गया यह दान रूपी धन कभी अपने पास न रखकर आगे जन कल्याण के लिए आहुति स्वरुप दान कर देवें|
हम आपको पुकार सकें, अत: हे सर्वव्यापक प्रभु! सर्वव्यापक होने के कारण आप सदा ही हमारे साथ रहते हो, सदा ही हमारे सब कार्यों का निरीक्षण करते रहते हो| निरीक्षण करते हुए हमारा मार्ग दर्शन भी करते रहते हो| इसलिए हे प्रभु! हमने यह सुख देने वाली जो आहुति अग्निहोत्र में डाली है, इसे स्वीकार करें| इस प्रकार आप हम पर इस प्रकार की कृपा करो की आप हमारे लिए इस प्रकार के बनें कि हम जब चाहे आपको सरलता से बुला सकें|
अब हम इस क्रिया के द्वितीय मन्त्र का उच्चारण करते हुए इसके अर्थ पर विचार करते हैं:-
ओं स त्वं अग्नेऽवमो भवोति नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ|
अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा|
इद्माग्नीवरुणाभ्याम्-इदन्न मम||२|| ऋग्वेद ४.१.४
शब्दार्थः स: इस प्रकार त्वं आप हे अग्ने ज्ञान स्वरूप प्रभो न: हमारे प्रति ऊती रक्षा द्वारा अवम: समीपवर्ती भाव हों (और) अस्या: इस उषस: उषा के व्युष्टौ प्रकाश में दिष्ट: अति समीपवर्ती (हों)| रराण:दानयुक्त होकर न: हमारे प्रति वरुणं सर्वव्यापक प्रभु को अव-यक्ष प्रसन्न कीजिये मृळीकं सुख के देने वाली हवि को वीहि स्वीकार करें | न: हमें सुहव: आसानी से बुलाये जा सकने वाले एधि बनें|
व्याख्यानः इन आठ मन्त्रों में परमपिता परमात्मा के विभिन्न गुणों के आधार पर बनने वाले विभिन्न नामों की विशद विवेचना की गई है| यह मन्त्र भी इस विवेचना से अछूता नहीं है|
हे परमपिता परमात्मा! आपके अनेक गुणों में एक गुण ज्ञानस्वरूप भी है| अत: आप इस प्रकार के हो कि आपका ज्ञानरूपि स्वरूप हमारे हृदयों को छू जा रहा है| आपके ज्ञान के भंडार सदा भरे रहते हैं| इन भंडारों में से आप ज्ञान को इस जगत् के कल्याण के लिए इसके सब प्राणियों में बाँटते रहते हो| करोड़ों वर्षों से यह कार्य आप कर रहे हो किन्तु आपके ज्ञान के भंडार पता नहीं किस प्रकार भरे हैं कि यह सदा ज्यों के त्यों बने रहते हैं, यह कभी खाली ही नहीं होते, जितना बाँटते हो, उससे कहीं आधिक इस में लौट कर न जाने कहाँ से आ जाता है और आपका भण्डार एक बार फिर लबालब भर जाता है|
हे प्रभु! आपका एक अन्य गुण है निकटवर्ती! अपने इस गुण के कारण आप हमारे अत्यधिक निकट हो| इतना अधिक निकट हो कि हम आपको देख ही नहीं पाते किन्तु आप हमारे निकट रहते हुए भी समग्र ब्रह्माण्ड की रक्षा किया जाते हो| ब्रह्माण्ड में निवास करने वाले सब प्राणी जब आप से रक्षित हैं तो मैं इनसे कोई अलग नहीं रह जाता| अत: आप मेरी भी निरंतर रक्षा करते रहते हो और मैं समझता हूँ कि आप इस प्रकार से ही निरंतर हमारे रक्षक बने रहते हुए, हमारी रक्षा करते रहोगे|
आनंद में रहूँ
हे समीपवर्ती प्रभो! उषा का शीतल समय है| बड़ा ही सुरम्य और मनोहर दृश्य है| आकाश सूर्य की लालिमा से सब और से भरा हुआ दिखाई दे रहा है| अत: हे प्रभु! हमारे निकट रहते हुए हमें एक दान अवश्य दीजिये| वह यह कि जिस प्रकार उषा वेला के प्रकाश में आप हमारे अत्यधिक निकट होते हुए हे प्रभो! आप सर्वव्यापक भी हो| अत: हम उषा वेला में प्रात:काल उठ कर आपके निकट आसन लगाकर आप को प्रसन्न करने के लिए बैठे हैं| सर्वव्यापक होने के कारण आप सदा ही हमारे अंग संग रहते हैं| जो भी भक्त आपको प्रसनं करने का प्रयास करता है, आप अपने दान की एसी वर्षा करते हो कि भक्त की प्रसन्नता से झोली भर जाती है| इसलिए हे प्रभो! मेरो झोली में भी प्रसन्नता का दान डाल दीजिये ताकि मैं भी आप के सदृश बनने का प्रयास करते हुए सदा प्रसन्न रहूँ, आनन्द से विभोर रहूँ|
इस उद्देश्य से ही इस अग्निहोत्र में मैं यह आहुति दे रहा हूँ| यह आहुति मेरे लिए सुख देने वाली हो| मैं जब जब अग्निहोत्र में किसी भी पदार्थ की आहुतियाँ देता हूँ तो मुझे आनंद का अनुभव होता है, सुखों का अनुभव होता है, मेरे शरीर के सब कष्ट, सब क्लेश, सब दु:ख मेरे से दूर हो जाते हैं| आपकी रक्षा में होने के कारण किसी प्रकार का कष्ट क्लेश,संकट मेरे पास आने का साहस ही नहीं करता क्योंकि मैं इस समय आपके आशीर्वाद के अन्दर होता हूँ|
इन सब उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए मैं प्रतिदिन दो समय यह अग्निहोत्र नियम पूर्वक करता हूँ| इस अग्नि होत्र के कारण आपका आशीर्वाद मुझे मिलता है तथा मेरे अन्दर बाहर के सब रोग, सब पाप मेरे से मीलों दूर चले जाते हैं| इसलिए हे प्रभु! मुझे वह शक्ति दो, इस प्रकार का अपना आशीर्वाद दो कि मैं जब चाहूँ आपको बुला सकूँ| जब भी मैं आपको पुकारूं आप मेरी सहायता के लिए अवश्य ही दौड़ते हुए आइयेगा|
आपकी प्रसन्नता का पात्र बनूँ
अंत में हे प्रभु मेरी आप से यही विनती है कि मैं सदा ही आपको स्मरण करता रहूँ| आपका स्मरण करते हुए आपके आशीर्वाद को पा सकूँ और इस प्रकार आपका आशीर्वाद को पाकर हे ज्ञानस्वरूप प्रभो! मैं सदा आपकी शरण में रहते हुए हे सर्वव्यापक प्रभु! मैं पापों से छूट कर सदा आपकी प्रसन्नता का पात्र बना रहूँ|
अब अगले मन्त्र में प्रभु के कुछ अन्य गुणों से उसकी प्रार्थना उपासना करते हैं|:-
ओं इमं में वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय| तवामवस्युरा चके स्वाहा|
इदं वरुणाय, इदन्न मम||३|| ऋग्वेद १.२५.१९
शब्दार्थः हे वरुण सर्वव्यापक, वरणीय प्रभो इमं इस में मेरी हवं टेर को शुधि सुनिए च और अद्य अब मृळय आनंदित कीजिये अवस्यु: रक्षा का इच्छुक होता हुआ त्वां आपको आ-चके पुकारता हूँ स्वाहा यह मेरा कथन सुफल हो| इदं यह वरुणाय वरुण के चरणों में भेंट है, मम मेरा कोई स्वत्व न नहीं|
व्याख्यानः प्रभु मेरी पुकार सुनो
हे वरुण रूप प्रभो! वरुण नामक संबोधन से संबोधित होने के कारण आप यहाँ सर्वव्यापक विशेषण से जाने जाते हो| सर्वव्यापक होने के कारण आप सदा ही अन्य प्राणियों के ही समान मेरे भी निकट ही होते हो| अत: हे सर्वव्यापक प्रभो! आप मेरे निकट तो हो किन्तु अभी तक मेरी टेर को, मेरी आवाज को, मेरी पुकार को नहीं सुन रहे| इसलिए यह आपका अनाथ सेवक आप से प्रार्थना कर रहा है, बार बार कर रहा है कि आप मेरी प्रार्थना को, पुकार को अवश्य सुनिए|
आनन्द विभोर करो। हे भगवान्! मैं कब से आपके निकट बैठ कर आपको पुकार रहा हूँ| मेरी पुकार को सुनो और मुझ पर अपने आशीर्वाद रूपी सुखों की इतनी वर्षा करो कि मैं आनंद से भर जाऊं| अत: मुझे आनंद विभोर करने के लिए मेरी आवाज को सुनो|
अपनी रक्षा में रखो
हे पिता! मुझे आपके आशीर्वादों की अत्यंत आवश्यकता है| आपके आशीर्वाद ही मेरे रक्षक हैं| मैं सदा ही आपकी रक्षा में रहने की इच्छा रखता हूँ| इसलिए हे प्रभु! आप तो दीनों के भी बंधू होते हो| इस कारण मेरी और भी देखो, मैं आपकी दया को पाने के लिए आप को निहार रहा हूँ| मैं आपसे रक्षा पाने का इच्छुक होने के कारण आपको पुकार रहा हूँ| इसलिए हे पिता! मुझे आप अपनी रक्षा में ले लो| मुझे आप का इस प्रकार का आशीर्वाद चाहिए की मैं इस आशीर्वाद के कारण आपकी रक्षा में रहूँ और आप सदा ही मेरी रक्षा करते रहें ताकि कोई भी कष्ट क्लेश मुझे छू तक न सके|
हे परमपिता! मैं सदा ही आपसे कुछ न कुछ मांगता ही रहता हूँ| आप दाता हैं, सदा सब को कुछ देते ही रहते हैं, इतने बड़े आप दानी हैं| इसलिए हे प्रभो आपसे कुछ पाने की इच्छा से मैं आपके पास आया हूँ| मैंने यह जो कुछ भी कहा है, आपकी दया से, आपकी कृपा से यह सब कुछ फलदायी हो, आप सब की इच्छाएं पुर्ण करने वाले हो| इस नाते मेरी इस प्रार्थना को भी स्वीकार करते हुए मेरी इस अभिलाषा को भी फलदायी बना दो|
हे वरुण देव! मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब आप ही किया दिया हुआ है| आपने दान रूप में जो कुछ भी मेरी झोली में डालकर इस झोली को भरा है, भला उस सब पर मेरा क्या अधिकार है| यह सब आपका होने के कारण मुख्य अधिकारी तो आप ही हैं| तो भी मैंने अपने जीवन की प्रतिदिन की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए इसमें से थोड़ा सा रख अवश्य लिया है किन्तु इस सब पर मेरा कुछ भी अधिकार नहीं है| इस कारण इस अग्निहोत्र के द्वारा मैं आपकी दी हुई वस्तु आपको ही लौटा रहा हूँ ताकि आप इसे किसी अन्य इस प्रकार के जीव को दे सकें, जिसे इस सब की मेरे से कहीं अधिक आवश्यकता है| यह निश्चित है कि इस सब पर मेरा कुछ भी अपना नहीं है| किसी वस्तु के किसी भाग को भी मैं अपना कहने का अधिकारी नहीं हूँ|
डॉ.अशोक आर्य
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