हम सदा अस्तेय धर्म का पालन करते हुए वार्तालाप में मधुर शब्दों का प्रयोग करें । प्रात: भ्रमण के समय हम खुली वायु व धूप में विचरण कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर उतम बुद्धि को पावें । यह बात यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के मन्त्र १६ में इस प्रकार बतायी गई है :-
कुक्कुटोऽसि मधुजिह्वऽइषमूर्जमावद त्वया वयं सङ्घातं सङ्घातं जेष्म वर्षवृद्धमसि प्रति त्वा वर्षवृद्धं वेत्तु परापूतं रक्ष: परापूता अरातयोऽपहतं रक्षो वायुर्वो विविनत्तु देवो व: सविता हिरण्यपाणि: प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना ॥ यजुर्वेद १.१६ ॥
इस मन्त्र के माध्यम से आठ बिन्दुओं के माध्यम से परमपिता परमात्मा प्रणी को इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं :-
१. आदान व्रति को पास न आने देना :-
मन्त्र कह रहा है कि हे प्राणी ! तूं कभी दूसरे के धन पर ब्लात् कब्जा करने वाला नहीं है । तूं कभी अदान की भावना से ग्रसित मत होना । किसी के धन को अधिग्रहण की इच्छा भी मत करना । इस प्रकार की भावना कभी तेरे अन्दर आवे भी नहीं । तेरे लिए दूसरे का धन एसे होना चाहिये कि जैसे मिट्टी का ढेला होता है । जिस प्रकार मिट्टी के ढेले को कहीं भी रख दो, कभी इस के चोरी का भय नहीं होता | इसी प्रकार ही तेरे लिये दूसरे का धन होता है | तूं इसे पाने की कभी इच्छा नहीं रखता ।
२. मधुभाषी बन ज्ञान बांट :-
मन्त्र आगे कहता है कि हे जीव ! तेरी वाणी मधुरता से टपकती हो । इसमें इतनी मधुरता हो, इतनी मिठास हो कि जब तूं बोले , जब तूं व्याख्यान करे तो सब लोग तुझे सुनने के लिए आगे आवें । तेरे द्वारा होने वाले ज्ञान के प्रचार व प्रसार में अत्यन्त मिठास हो, श्लेक्षण इससे टपकती हो । जब इस प्रकार के गुणों से तूं युक्त होता है तो हम कह सकेंगे कि तूं पूर्ण जिह्वा वाला है अर्थात् तेरी जिह्वा का अगला भाग ही नहीं बल्कि मूल भाग से भी सदा व सर्वत्र माधुर्य ही माधुर्य टपकता है , मीठे ही मीठे वचन निकलते हैं ।
३. प्रेरणा व शक्ति का आघान कर :-
हे अपनी जीह्वा की मिठास से सब का आह्लादित करने वाले प्राणी ! तूं सब के लिए प्रेरणा का पुंज बन । अपनी मीठी वाणी से अपने आस – पास के सब लोगों को प्रेरित कर तथा उन्हें अपनी इस आकर्षक वाणी से शक्ति दे कि वह भी तेरा अनुसरण करें, अनुगमन करें । जब सब लोग इस प्रकार की मिठास बांटेंगे तो इस संसार में सब ओर स्वर्ग ही स्वर्ग दिखाई देगा ।
४. तुझ से प्रेरित हम वसनाओं को कुचलें :-
जब एक प्राणी अपनी मिठास से सब को प्रेरित करता है तथा शक्ति से भर देता है तो प्रत्युतर में श्रोता कहता है कि हम तेरे मीठे वचनों को सुन कर, इनके उपयोग व लाभ को समझ गये हैं तथा हम भी आप का ही अनुगमन करते हैं , आप ही के साथ चलते हुए , आप जैसा ही बनने का प्रयास करते हैं । आप से हमें जो उत्साह मिला है तथा आप से हमें जो शक्ति मिली है , उस उत्साह , उस प्रेरणा तथा उस शक्ति के बल पर हम अपने अन्दर की दुर्वासनाओं को ,बुरी शक्तियों को पराजित कर आप ही के समान शुद्ध व पवित्र बननें का प्रयास करते हैं । आप हमारी प्रेरणा के स्रोत हो । इस से प्रेरित हो कर हम भी सदा मीठा बोलें , ज्ञान का प्रसार कर अपने अन्दर की वसनाओं का हनन कर उतम बनें ।
५. प्रभु आप हमारे पथ दर्शक हो :-
वर्षों के दृष्टि से अर्थात् आयु क्रम से भी आप हमारे से बडे हो । इस कारण चाहे ज्ञान का विषय हो , चाहे अनुभव का आप हमारे से आगे हो । मानव को जो ज्ञान प्राप्त होता है तथा जीवन के जो अनुभव वह प्राप्त करता है , उस में समय की विशेष भूमिका होती है । जीवन का जितना काल होता है , उतने काल इस की प्राप्ति निरन्तर होती ही रहती है । इसलिए जब कभी कोई छोटी आयु का व्यक्ति कुछ काम करके उसे न्याय संगत ठहराने का यत्न करता है तो सामने वाला व्यक्ति अनायास ही कह उठता है कि मैंने तेरे से अधिक दुनियां देखी है अर्थात् मेरी आयु तेरे से बडी होने से मेरे अनुभव भी तेरे से अधिक हैं ।
इससे भी स्पष्ट होता है कि आयु ओर अनुभव का ज्ञाग्यान के विस्तार में कुछ तो स्थान होता ही है । तब ही तो मन्त्र कह रहा है कि हे प्रभु ! आप ज्ञान के साथ ही साथ अनुभव में भी हम से अधिक परिपक्व हो । एक परिपक्व का अनुगमन करने से , एक अनुभवी के पीछे चलने से हमारा कल्याण ही होगा, अर्थात् हम अपने कार्य में निश्चित रुप से सफ़ल होंगे । हे वर्ष वृद्ध ! हे आयु व अनुभव में हमारे मार्ग – दर्शक हो ! आप के अनुभव का लाभ उठाने के लिए इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी आप को पा सके , आप को ठीक से जान सके, आप हम लोगों के लिए अगम्य हो , आप से हम कभी आगे नहीं निकल सकते । इस कारण ही आप हमारे पथ – प्रदर्शक हो, मार्ग – दर्शक हो ।
६. हमारी राक्षसी वृतियां दूर हों :-
हे पिता ! आपकी दया व आप की कूपा से हमें जो आप से ज्ञान का उपदेश , ज्ञान का सन्देश मिला है , उस के प्रयोग करने से हमारी जितनी भी राक्षसी प्रवृतियां है , जितनी भी बुराईयां है, वह सब धुलकर हम साफ़ व स्वच्छ हो जावें । इस प्रकार हमारी यह बुरी वासनाएं हम से छूट जावें , हमसे अलग हो जावें । इतना ही नहीं दूसरे को न देने की , दूसरे की सहायता न करने की अर्थात् दान न देने की आक्षत बहुत गन्दी होती है । यह बुराई हम से दूर हो जावे तथा हम सदा दूसरे की सहायता के लिए तैयार रहें , एसा हम बन जावें । हम न केवल अपने रमण के लिए , अपने घूमने के लिए , अपने जीवन व्यापार को चलाने के लिए कभी दूसरों की हानि न करें , दूसरों को क्षति न पहुंचावें अपितु हम सदा दान शील बनकर दूसरों को हाथ देकर ऊपर उठाने वाले भी बने रहें । हमारे अन्दर जितने भी राक्षसी भाव हैं जितनी भी बुरी वृतियां हैं , आप के सहयोग से वह नष्ट हो जावें ।
७. पवित्र वायु का सेवन कर विवेकशील हों :-
प्रभु तो उपदेशकों के भी उपदेशक हैं । इस कारण वह उपदेश देने वाले तथा उपदेश लेने वाले दोनों को ही सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि वायु अत्यन्त गतिशील होता है | इसलिए यह वायु देव अपनी गतिशीलता से सब बुराईयों का नाश करते हुए तुम्हें प्राप्त हो तथा तुम्हारे अन्दर ज्ञान का विस्तार करे । वायु को गतिशील माना गया है । यदि वायु की गति रुक जाती है तो यह विनाशक हो जाती है । हम जानते हैं कि जब किसी भवन को बहुत देर बन्द रखा गया हो तो उसे खोलते समय कहा जाता है कि इस का दरवाजा खोल कर कुछ देर के लिए एक और हट जाना नहीं तो इस से निकलने वाली गन्दी वायु तुम्हारे स्वास्थ्य का नाश कर देगी । स्पष्ट है कि गन्दी वायु जहां हानि का कारण होती है , वहां स्वच्छ व शीतल वायु उतमता लाने वाली भी होती है । इस के सेवन से विवेक का जागरण भी होता है । तब ही तो मन्त्र कह रहा है कि यह निरन्तर विचरण करने वाली वायु तेरी सब बुराईयों का नाश कर तेरे अन्दर विवेक को , बुद्धि को , ज्ञान को जाग्रत करे ।
मन्त्र इस के साथ ही प्रात: भ्रमण पर बल देते हुए कहता है कि प्रात: काल की ऊषा वेला में बडे ही शीतलता से वायु चलती है । यह वायु स्वास्थ्य के लिए अति उपयोगी होती है । इस वायु के सेवन से हमारा मस्तिष्क शुद्ध , पवित्र और कुषाग्र हो जाता है । इसलिए हम प्रात; शुभ मुहुर्त में , ऊषावेला में उठ कर इस पवित्र व शीतल वायु का सेवन कर अपने मस्तिष्क को शुद्ध पवित्र कर अपनी बुद्धि को कुशाग्र तथा तीव्र बनावें ।
८. प्रात: का सूर्य तेरे लिए हितकर हो :-
परमपिता परमात्मा जानता है कि हमारे लिए क्या – क्या हितकर है । इस कारण प्रभु प्रत्येक कदम पर हमारा मार्ग – दर्शक बनकर सदा हमें प्रेरित करता रहता है । ऊपर वायु के गुणों का वर्णन कर शीतल वायु के सेवन का उपदेश दिया था । यहां वह प्रभु हमें सूर्य के गुणों का वर्णन करते हुए उपदेश कर रहा है कि हे प्राणी ! यदि तुझे इन उत्तम गुणों को पाने की इच्छा है तो तूं नित्य प्रात: काल उठकर नगर से बाहर किसी खुले स्थान पर जा कर आसन प्राणायाम कर , प्रभु का स्मरण कर , उसकी निकटता को प्राप्त कर , इससे तेरा जीवन उत्तम बन जावेगा ।
प्रभु कहते हैं कि यह जो सूर्य है , यह सब प्राणदायी तत्वों से भरपूर होने से सदा इन प्राण – शक्तियों को बांटता रहाता है । यह सूर्य सब प्रकार की दिव्य शक्तियों का कोश है , खजाना है । इस करण इस सूर्य से हमें यह सब प्राण देने वाली शक्तियां हमें देने के लिए सदा लालायित रहता है किन्तु देता उसको ही है जो प्रयास करता है ,पुरुषार्थ करता है । यह सूर्य प्रात: काल की ऊषावेला में एसे हमारे सामने आता है , जैसे मानो स्वर्ण को अपने हाथ में लेकर आता है तथा यह स्वर्ण हमें बांटता है । यह स्वर्ण उसे ही मिल पाता है , जो इस समय तक अपनी निद्रा को त्याग, बिस्तर को छोडकर भ्रमण को निकल जाते हैं । हम जानते हैं कि प्रात: का सूर्य लाल होता है तथा अपनी लाली से अनेक प्रकार के रोगों को दूर करता है । हमारी आंखों को इससे अत्यदिक लाभ होता है ।
जब हम प्रात:काल इस सूर्य के दर्शन करते हैं तो एसे लगता है कि यह सूर्य अपनी स्वर्णमयी किरणॊ से हमें गुणों से भरे हुए टीके ( इन्जेक्शन ) लगा रहा हो । इसलिए मन्त्र कहता है कि यह सूर्य अपनी किरण रुपी हाथों से हे जीव ! तुम्हें ग्रहण करे । इस का भाव यह है कि सूर्य की यह किरणें तेरे अन्दर तक जा कर तेरे अन्दर के सब दोषों को दूर कर तुझे उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें । इस प्रकार तूं प्रात:काल की अमृत वेला में इस सूर्य की किरणों के द्वारा उत्तम प्राण , उत्तम शक्ति तथा दिव्य गुणो को प्राप्त कराता है । इस प्रकार यह सूर्य तुम्हारे लिए अत्यन्त हितकर होता है अत्यन्त रमणीय होता है ।
डॉ. अशोक आर्य
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