श्रीनिवास रामानुजन किसी भी फिजिकल या मेटा-फिजिकल चीज को गणितीय समीकरणों के रूप में देखा करते थे। इसीलिए, उन्होंने ऐसे-ऐसे समीकरण बनाए, जो सभी के पल्ले भी नहीं पड़ती थी और उन्हें समझने के लिए आज भी लगातार रिसर्च हो ही रहे हैं। इसी तरह आप स्विस गणितज्ञ लियोनार्ड ओइलर का उदाहरण भी ले सकते हैं।
इसी तरह से डाले गए लगभग 100 गणितीय समीकरण (बाएँ) और बन गया माँ दुर्गा का चित्र (दाएँ)
आज हम आपको एक वीडियो दिखाने वाले हैं, जिसमें गणित के समीकरणों (Equations) की मदद से माँ दुर्गा की तस्वीर उकेरी जाता है। इस वीडियो में आप देख सकते हैं कि जैसे-जैसे गणित के अलग-अलग समीकरण डाले जाते हैं, वैसे-वैसे अलग-अलग आकृतियाँ बनती हैं और अंत में माँ दुर्गा के चेहरे की तस्वीर बन कर उभरती है। यहाँ हम ये तो जानेंगे ही कि ये कैसे हो रहा है, लेकिन साथ में ही भारत में गणित और ईश्वर के साथ आध्यात्मिक जुड़ाव की भी बात करेंगे।
गणित के समीकरणों की मदद से कैसे बनी माँ दुर्गा की तस्वीर?
इस ग्राफ का सोर्स ऑनलाइन ग्राफ़िंग प्लेटफॉर्म ‘Desmos’ है, जहाँ से इसे बनाया गया है। लेकिन, इसमें सबसे कमाल की बात है कि अलग-अलग आकृतियों के लिए अलग-अलग समीकरणों को डिराइव करना और फिर उसे सटीक क्रम में लगाना। ग्राफ में एक-एक बिंदु का महत्व होता है और पिक्सेल्स व स्क्रीन के आकर के हिसाब से इसे सजाने के लिए अलग-अलग गणितीय समीकरणों को लगाना ही इस वीडियो की खासियत है।
अर्थात, जिसने भी ‘Desmos’ पर ये समीकरण डाले होंगे उसे क्रमशः उसी तरह से ग्राफ प्राप्त होता गया होगा और अंत में ये तस्वीर बनी। इस तस्वीर के लिए गणित के एक-दो नहीं, बल्कि लगभग 100 समीकरण प्रयोग में लाए गए हैं और उन्हें देख कर लगता नहीं कि ये आसान हैं। सभी समीकरण अपने-आप में कई गणितीय कैलकुलेशंस समाए हुए हैं। इसके बाद एक-एक करके हर समीकरण को एक्टिवेट किया जाता है, और उसका ग्राफ मिलता चला जाता है।
जैसे, एक स्ट्रेट लाइन का ग्राफ बनाने के लिए आप ‘y = 2x+1‘ लीनियर एक्वेशन का प्रयोग कर सकते हैं। ये एक बेसिक और साधारण उदाहरण है। इसी तरह से वृत्त और त्रिभुज से लेकर पैराबोला और हायपरबोला तक के लिए अलग-अलग समीकरणों का प्रयोग किया जाता है और उन्हें कैसे और कहाँ एडजस्ट करना है ताकि मनपसंद ग्राफ आए, इसमें दिमाग लगाना पड़ता है। इसी तरह से माँ दुर्गा की भौं और आँखें वगैरह बनाने के लिए समीकरणों का प्रयोग किया गया है।
जैसे माँ दुर्गा की नाक में जो नथुनी है, वो वृत्ताकार है। इसी तरह से समीकरणों के हिसाब से ग्राफ कहाँ मिलना चाहिए, उसी हिसाब से उन्हें शिफ्ट किया जाता है। ये तो थी तकनीकी चीजें कि कैसे इस ग्राफ को बनाया गया। 20वीं सदी के पहले और दूसरे दशक में अपने ज्ञान और प्रतिभा से पूरी दुनिया को लोहा मनवाने वाले भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन भी गणित और ईश्वर को एक साथ जोड़ कर देखते थे।
उन्होंने कहा था कि उनके लिए किसी भी गणितीय समीकरण का तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक वो ईश्वरीय विचार को व्यक्त न करे। यानी, हर समीकरण को वो ईश्वर से जोड़ कर देखते थे और फिर आगे बढ़ते थे। जो नास्तिक हैं और ईश्वर में विश्वास नहीं रखते, उनके लिए भी एक तरह से कहा जा सकता है कि गणित जो है, वो इस ब्रह्मांड की भाषा है। किसी भी चीज को गणितीय समीकरण के रूप में डिराइव किया जा सकता है।
श्रीनिवास रामानुजन किसी भी फिजिकल या मेटा-फिजिकल चीज को गणितीय समीकरणों के रूप में देखा करते थे। इसीलिए, उन्होंने ऐसे-ऐसे समीकरण बनाए, जो सभी के पल्ले भी नहीं पड़ती थी और उन्हें समझने के लिए आज भी लगातार रिसर्च हो ही रहे हैं। इसी तरह आप स्विस गणितज्ञ लियोनार्ड ओइलर का उदाहरण भी ले सकते हैं। यहाँ ये समझने की ज़रूरत है कि जितने भी ईश्वरीय रूप हैं, उनका मूल प्रकृति ही है।
भारत, जिसने हमेशा गणित को ईश्वर को प्राप्त करने का माध्यम माना
भारत में तो हमेशा से प्रकृति की पूजा होती आई है। यहाँ वैदिक काल से ही ये चला आ रहा है। दुनिया की सबसे प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद में अग्नि की स्तुति के साथ ही शुरुआत की जाती है। तो, हम कह सकते हैं कि गणित एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा एक नास्तिक भी ईश्वर की पूजा कर सकता है। इसी मामले में हम हमेशा से सभ्यताओं से आगे रहे हैं। हमने गणित और प्रकृति के संबंधों को समझा है और ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम बनाया है।
पश्चिमी सभ्यता की सोच हमेशा से ‘बिजनेस ड्रिवेन’ रही है, लीनियर रही है। हमारे साथ ऐसा नहीं है। हम अनिश्चितताओं के साथ खुद का तालमेल बिठाने में हमेशा से अभ्यस्त रहे हैं। यही कारण है कि हम शून्य (0) और अनंत (∞) के साथ तालमेल बिठाते आए हैं। हमने ईश्वर और मनुष्य के अंतर को इस रूप में देखा है कि जहाँ ईश्वर अनंत है, वहीं मनुष्य अनंत बार जन्मता-मरता है। और ये क्रम, ये सायकल, चलता ही चला जाता है।
भारत में हमेशा से शून्य (0) और अनंत (∞) की चर्चा होती आई है और इन दोनों के माध्यम से हर चीज को समझने की कोशिश होती आई है। पूरी दुनिया में आज भी एक हिस्सा है, जो अपने मजहब के आधार पर दुनिया को गोल मानता है। लेकिन, हम कभी इस बात पर आश्चर्यचकित नहीं रहे कि दुनिया गोल है। क्यों? क्योंकि हमें ये बातें आदिकाल से मालूम थी। ये गणित को लेकर हमारी समझ का ही कमाल था।
हालाँकि, पश्चिमी सभ्यता के लिए ये काफी बड़ा शॉक बन कर आया था कि अरे, पृथ्वी गोल है? आज भी ‘वर्ल्ड इज फ्लैट’ कर के एक संस्था है, जो इन बातों को नकारती है। तो भले ही ये पश्चिमी जगत के लिए एक खोज था, प्राचीन भारत के लिए एक ऐसी चीज थी, जो उनकी समझ में पहले से समाई हुई थी। आप भारत की प्राचीन संरचनाओं को ही ले लीजिए, आपको पता चलेगा कि हम शुरू से ही ज्योमेट्री और सीमेट्रीसिटी को लेकर अच्छी समझ रखते हैं।
हजारों उदाहरण हैं लेकिन गुजरात स्थित मोढेरा का सूर्य मंदिर को हम यहाँ देख सकते हैं। साल में दो बार ऐसा होता है, जब पृथ्वी की भूमध्य रेखा से सूर्य के केंद्र का आमना-सामना होता है। इसे Equinox कहते हैं। 20 मार्च और 23 सितम्बर के आसपास हर साल यह होता है। सीधे शब्दों में कहें तो यही वो मौका होता है जब सूर्य का केंद्र सीधा भूमध्य रेखा के ऊपर होता है। जब Equinox के दिन सूर्योदय होता था तो सूर्य की किरणें सबसे पहले यहाँ सूर्य की प्रतिमा के सिर पर स्थित हीरे के ऊपर पड़ती थी। इसके बाद पूरा मंदिर स्वर्ण प्रकाश से नहा जाता था।
सीमेट्रीसिटी हमारी पुरानी संरचनाओं का एक अहम भाग रहा है। क्यों? क्योंकि एक ऐसा ही समभाव, एक ऐसी ही सीमेट्रीसिटी आपको प्रकृति हर जगह दिखाती है। ये प्रकृति की एक खासियत है। इसीलिए, प्राचीन भारत की हर संरचनाओं में इसका इस्तेमाल किया जाता था, परफेक्शन के साथ। हम प्रकृति के साथ कितने सहज थे और कितने अच्छे तरीके से उसे समझते थे, उसका ये एक अहम प्रमाण है।
गणित और उसके समीकरणों पर आधारित रहा है हमारा आध्यात्मिक इतिहास
हमारी जो ‘Thought Process’ थी, यानी हमारी जो सोच-विचार की प्रक्रिया थी, हमारा जो दर्शन था, वो हमेशा से गणित पर आधारित रहा है। कहा जाता है कि गणित ‘प्राकृतिक दर्शन (Natural Philosophy)’ का ही एक भाग है। यहाँ तक कि अध्यात्म में भी हम गणित का इस्तेमाल करते थे। दुनिया की कई सभ्यताओं में 16वीं शताब्दी से पहले भी एक से बढ़ कर एक गणितज्ञ हुए हैं, जो मेटा-फिजिक्स में भी पारंगत रहे हैं।
भारत में 7वीं शताब्दी में ही ब्रह्मगुप्त हुए थे, जिन्होंने गणित और खगोलीय ज्ञान से दुनिया को एक नया रास्ता दिखाया। उन्होंने इस पर पुस्तकें लिख कर शून्य (0) की गणना की प्रक्रियाएँ समझाईं। उनके सारे टेक्स्ट अंडाकार, या दीर्घवृत्तीय रूप में हैं। उस समय संस्कृत में ऐसा ही किया जाता है। यानी, हमारी भाषा और उसका साहित्य भी गणित की समझ के हिसाब से लिखे जाते थे। खगोलीय विज्ञान भी प्लेनेट मोशन का कैलकुलेशन है।
गैलीलियो ने भी इसकी गणना की थी। हालाँकि, खगोलीय विज्ञान को व्यक्ति के जीवन के साथ कैसे जोड़ा जाता है या फिर इसका किसी के जन्म-मरण पर क्या प्रभाव है – इस पर बहस हो सकती है। लेकिन, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इन सबका आधार गणित ही रहा है। किसी भी सिद्धांत को साबित करने के लिए ‘causality’ या कारण स्पष्ट होना चाहिए। कोई भी चीज क्यों और कैसे हो रही, उसे गणितीय ढंग से साबित किया जा सकता है।
आप कह सकते हैं कि महान ब्रिटिश वैज्ञानिक न्यूटन से पहले ‘नेचुरल फिलॉसोफी’ और विज्ञान एक-दूसरे के साथ ही चलते थे लेकिन उसके बाद वैज्ञानिकों ने इन दोनों को अलग-अलग रूप में लेना शुरू किया और विज्ञान एक अलग ब्रांच बन कर उभरा। इसीलिए, प्राचीन भारतवर्ष में जो गणितज्ञ रहे हैं, वो ऋषि भी रहे हैं। क्योंकि वो गणित और ईश्वर को साथ में देखते थे। वो प्रकृति का अध्ययन करते थे, इसीलिए गणित और ईश्वर को साथ में देखते थे।
भारत में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य जैसे विद्वानों ने हमेशा से गणित और ईश्वर को साथ में देखा। यहाँ आपको एक काफी रोचक चीज भी बताना चाहेंगे। केरल में 14-16वीं शताब्दी में ही ‘केरला स्कूल ऑफ मैथमेटिक्स एंड एस्ट्रोनॉमी’ (केरलीय गणित समुदाय) का संचालन होता था, जिसकी स्थापना ‘संगमग्राम के माधव’ ने की थी। उनका त्रिकोणमिति, बीजगणित और ज्यामिति के अध्ययन में अहम योगदान था।
उन्होंने ही दुनिया में सबसे पहले π (Pi) की गणना ट्रिगोनोमेट्री के रूप में दी थी। केरल के इस गणितीय समुदाय ने एक के बाद एक आगे बढ़ कर कई समीकरण दिए, जिनका काफी बाद में अध्ययन हुआ और दुनिया भर में लोकप्रिय हुए। यानी, हमारी प्राचीन सभ्यता गणित को लेकर निश्चितता (समीकरण और डेरिवेशन) और ईश्वर को लेकर अनिश्चितता, इन दोनों के साथ ही तारतम्य बिठाने में काफी कुशल हुआ करते थे।
इसी तरह ‘Metaphysics’ दर्शन की वह शाखा है जो किसी ज्ञान की शाखा के वास्तविकता (Reality) का अध्ययन करती है। भारतीय सभ्यता में ‘Personification’ का एक ट्रेंड रहा है, जैसे उन्होंने नदियों, पहाड़ों और प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों को जहाँ एक व्यक्ति के रूप में देखा, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने गणित के माध्यम से ईश्वर को डिराइव करने की चेष्टा भी जारी रखी। आज जब गणितीय समीकरणों से माँ दुर्गा की तस्वीर बनाना संभव है, तो ऐसी चीजों को विकसित करने में भारत का बड़ा योगदान है।
साभार- https://hindi.opindia.com/ से