जनता द्वारा चुने गए शासक स्वरूप प्रतिनिधि का राजतिलक करते हुए जनता की और से निर्धारित पुरोहित जब राजा को अनेक प्रकार के उपदेश देते हुए क्या करणीय है तथा क्या नहीं , इस प्रकार की शिक्षा देता है,(वर्त्तमान युग में संविधान के अनुसार चलने की शपथ दिलाता है) तो राजा के लिए भी कुछ उत्तरदायित्व स्वरूप प्रतिज्ञाएं आवश्यक हो जाती है| इसलिए राजा अपने शासन में होने वाली उस की भावी योजनाओं को बताते हुए कहता है कि:-
शिरो में श्रीर्यशो मुखं तविषि: केशाश्च श्मश्रूणी|
राजा में प्राणोSअमृत सम्राट चक्षुर्विराट् श्रोत्रम्||५||
जिह्वा में भद्रं वाड़्महो मनो मन्यु: स्वराड् भाम:|
मोदा: प्रमोदाSअंगलीरड़्गानि मित्रं में सह:||६||
बहू मे बालमिन्द्रीय ॅ्हस्तो में कर्म वीर्याम्|
आत्मा क्षत्रमुरो मम ||७||
पिष्टीर्म राष्ट्रमुदरम सौ ग्रीवाश्च श्रोणी|
ऊरूSअरत्नी जानुनी विशो मेSड़्गानि सर्वत: ||८||
– यजुर्वेद अध्याय २० मन्त्र ५-८
प्रजा के सुखों में राजा की शान
इन मन्त्रों के माध्यम से परमपिता परमात्मा राजा से कहलवा रहे हैं कि प्रजा की शोभा हमारा सिर है| प्रजा की सुख सुविधाएं बढाता हैं, प्रजा प्रसन्न रहती है, प्रजा के पास किसी प्रकार का अभाव नहीं है, सब प्रकार के धन ऐश्वर्यों की प्रजा स्वामी है तो मेरा सर शान से उंचा हो जावेगा| जब प्रजा के सुख समृधि में वृद्धि होती है तो मुझे भी यश मिलता है| इसलिए मैं सदा प्रजा के सुखों को बढाने का प्रयास करता रहूंगा|
प्रजा का यश ही राजा का सुख
मन्त्र के माध्यम से राजा आगे प्रतिज्ञा करते हुए कह रहा है कि प्रजा का यश ही मेरा मुख है अर्थात् जब सुख और समृ्द्धि के कारण प्रजा का यश बढ़ता है तो मेरे मुख मंडल की शोभा भी बढ़ जाती है इसलिए मैं प्रजा के यश को सदा बढाने का यत्न करता रहूंगा| मानव शरीर के विभिन्न भागों में मुख ही मुख्य होता है, इसलिए ही इसे मुख कहा गया है| ठीक उस प्रकार ही प्रजा के यश व कीर्ति को दूर दूर तक ले जाना ही मेरा मुख्य कर्तव्य है| मैं सदा इस प्रकार का यत्न करता रहूंगा कि प्रजा का यश बढे| यही मेरा मुख्य कर्तव्य होगा|
जिह्वा सदा कर्तव्य की बातें किया करती है| इसलिए मेरी जिह्वा से सदा प्रजा के कल्याण की ही चर्चा होगी, यह जिह्वा सदा प्रजा के कल्याण के लिए ही बोले, इस जिह्वा से कभी इस प्रकार की कोई बात, इस प्रकार का कोई शब्द न निकले जिससे मेरी प्रजा का कोई भी अहित हो , कोई भी अपयश हो, इस प्रकार का प्रयत्न मैं सदा करता रहूंगा| इसलिए मेरी वाणी सदा प्रजा के महत्त्व की, प्रजा के हितों की, प्रजा के यश व कीर्ति को बढाने की चर्चा मेरी जिह्वा, मेरी वाणी कराती रहेगी, इस प्रकार का मैं प्रजा को और आप को विशवास देता हूँ|
राजा का मन सदा प्रजा का ज्ञान, उत्साह और उल्लास को बढ़ाता रहे
मन उत्साह बढाने का कारण होता है तथा मैं यह भी प्रतिज्ञा करता हूँ कि मेरा मन सदा मेरी प्रजा का ज्ञान, उत्साह और उल्लास को बढाता रहूंगा| मैं अपने राज्य में उच्च शिक्षा की उत्तम व्यवस्था करूंगा ताकि पजा का ज्ञान बढे| जब ज्ञान बढेगा तो निश्चित ही प्रजा उत्साहित हो कर अपने व्यवसाय को आगे बढाने का यत्न करेगी, जिससे उसका उल्लास भी चरम पर चला जावेगा| मैं राजा होने के नाते सदा इस प्रकार के प्रयत्न करता रहूंगा|
प्रजा के स्वालंबन का तेज ही राजा का तेज
मन्त्र के माध्यम से आगे राजा कहता है कि प्रजा के स्वालंबन का तेज ही मेरा तेज है अर्थात् मैं अपने राज्य में व्यवसाय की इतनी व्यवस्था करूंगा कि प्रजा को कुछ भी विदेश से न मंगवाना पड़े| सब वस्तुओं का उत्पादन मेरे राज्य में ही हो| इस प्रकार मेरी प्रजा परजीवी न हो करा पूरी प्रकार से स्वावलंबी बन जावेगी| इतना ही नहीं जिस प्रकार हमारी उंगलियाँ सब प्रकार के आनंद देने का कारण होती है, उस प्रकार ही प्रजा का प्रत्येक व्यक्ति मेरी उंगली के समान होगा| प्रजा का एक एक व्यक्ति जब अपनी उंगली को राज्य की समृधि देने के लिए कार्य करेगा तो निश्चय ही राज्य में स्वावलंबन आवेगा| इसलिए मैं प्रजा को अपणु उन्गाल्कियों के सामान मान देता हूँ|
आमोद–प्रमोद की उत्तम व्यवस्था
जिस प्रकार जीव के विभिन्न अंग सुख का कारण होते हैं, उस प्रकार ही आमोद – प्रमोद से भी व्यक्ति को आनंद मिलता है, सुख मिलता है| अत: आमोद-प्रमोद करना भी व्यक्ति के सुख को बढाने का कारण होता है क्योंकि मेरा उद्देश्य प्रजा को सुखी बनाना है, इसलिए प्रजा की प्रसन्नता के लिए, प्रजा के कल्याण के लिए यह आमोद-प्रमोद ही मेरे शरीर के विभिन्न अंगों के सामान है| मैं अपने इन अंगों को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रजा के आमोद -प्रमोद की भी उत्तम व्यवस्था करूंगा|
प्रजा को ही अपने मित्रों का स्थान
आगे मन्त्र के द्वारा राजा बोलता है कि मानव शरीर की वास्तविक शक्ति तो आमोद प्रमोद ही है| इससे ही मानवीय प्रसन्नता सम्बंधित होती है किन्तु इस आमोद-प्रमोद के कार्यों को कोई भी व्यक्ति अकेले संपन्न नहीं कर सकता| इसके लिए उसे अनेक मित्रों और साथियों की आवश्यकता होती है| इसलिए मेरे राज्य में आमोद-प्रमोद की उत्तम व्यवस्था हो सके, इसके लिए मैं अपनी प्रजा को ही अपने मित्रों का स्थान देता हूँ, ताकि हम मिला कर इतना कार्य करें की हम सब की प्रसन्नता में निरंतर वृद्धि हो सके| इसलिए मैं प्रजा को अपना सच्चा मित्र बनाता हूँ|
प्रजा के अभाव को दूर करने का प्रयास
मन्त्र कहता है कि वह राजा ही सुखों का स्वामी हो सकता है जिसके पास अपरिमित बल हो किन्तु यह बल प्रजा की सहन शक्ति से मिलता है| इसलिए राजा कहता है कि मैं अपने राज्य में इस प्रकार की व्यवस्था करूंगा कि मेरी प्रजा अधिक से अधिक सहनशील बन सके| इसका कारण है कि अनेक बार राज्य में दुर्भिक्ष या किसी अन्य कारणों से अनेक प्रकार की कमियाँ आ सकती है| इस अवस्था में यदि प्रजा विरोध कर देती है तो राज्य में अव्यवस्था फ़ैल जाती है और देश की बहुत हानि होती है किन्तु जब मैं सदा प्रजा के सुखों को बढाने का प्रयास करूंगा तथा प्रजा को मुझ पर पूर्ण विशवास होगा तो मेरी प्रजा अभाव के समय को भी सहन कर मेरी मित्र, मेरी सहयोगी बनी रहेगी| इसलिए मैं चाहूँगा कि मेरी प्रजा मुझ में विश्वास व्यक्त करते हुए इस अवस्था में सहन शक्ति का परिचय दे| इससे ही मेरे बल में, मेरी शक्ति में वृद्धि होगी, जो प्रजा के हित में ही होगी क्यंकि मैं निश्चिन्त हो प्रजा के इस अभाव को दूर करने का प्रयास करता रहूंगा|
मेरी जनता देश ही मेरी पीठ
शरीर के विभिन्न अंगों में पीठ का भी विशेष महत्व होता है| यह पीठ ही है, जो भारी से भारी बोझ उठा सकती है| शरीर का कोई अन्य अंग पीठ के समक्ष बोझा नहीं उठा सकता| इसलिए पीठ का भी महत्वपूर्ण स्थान माना गया है और इस मन्त्र के द्वारा राजा कह रहा है कि मेरा यह राष्ट्र, मेरा यह देश ही मेरी पीठ के सामान है क्योंकि पृष्ट भाग में, पीठ में सब प्रकार की शक्ति होती है| इसलिए कहा भी जाता है कि कभी पीठ मत दिखाना| इसलिए राजा कह रहा है कि मेरी जनता ही मेरी पीठ है , मेरी शक्ति है|
प्रजा मेरे शरीर के समान
मानव शरीर पैरों के बिना चल नहीं सकता, कंधे के बिना कुछ उठा नहीं सकता, गले के बिना उसका अस्तित्व ही नहीं रहता, कमर के बिना शक्तिहीन हो जाता है, जंघा शक्ति का प्रतीक होती हैं, कोहनी के बिना बाजू मुड़ता नहीं, जिस के बिना कोई कार्य हो ही नहीं सकता, कुछ इस प्रकार की ही अवस्था हमारे घुटनों की भी होती है| इस प्रकार ही हमारे शरीर के प्रत्येक अंग का कुछ न कुछ महत्व होता है| इन में से कोई भी अंग ढीला हो जाता है तो शरीर बेकार हो जाता है, यह ठीक से कुछ भी नहीं कर सकता| राजा कहता है कि मेरी प्रजा ही मेरे शरीर के विभिन्न अंग हैं| जिस प्रकार शरीर के एक अंग के नष्ट होने से हमारा शरीर सुखी नहीं रहता, उस प्रकार ही समग्र प्रजा मेरे शरीर के समान होने के कारण, मेरे विभिन्न अंग होने के कारण, मेरे इन अंग स्वरूप प्रजा का भी स्वस्थ रहना आवश्यक होता है| यदि मेरी इस प्रजा का एक सदस्य भी सुखी नैन है, समृद्ध नहीं है, खुश नहीं है तो मुझे कष्ट होना निश्चित है| इसलिए मैं सदा प्रजा से प्रेम बनाए रखूंगा| जिस प्रकार अन्गोंको स्वस्थ रखने के लिए मैं सदा पुरुषार्थ करता हूँ, उस प्रकासर ही मैं प्रजा को सुखी रखने के लिए सदा प्रयास करूंगा, सदा प्रयत्न करूंगा क्योंकि यह ही मेरा कर्तव्य है, यह ही मेरा कार्य है और यह ही मेरा व्यवसाय है|
डॉ.अशोक आर्य
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