आज जिस प्रकार हम देखते हैं कि समग्र विश्व अनेक भागों में , अनेक विचारों में तथा अनेक सस्कारो में बटा हुआ है | प्राचीन काल में एसा नहीं था | पूरे के पूरे अर्थात समग्र विश्व की एक ही सस्कृति थी , एक ही विचार था , एक ही सोच थी , एक ही धर्म था तथा एक ही पंथ था | इस सब के साथ ही साथ समग्र विश्व में एक ही विचारधारा थी तथा एक ही अभिवादन था | इस अभिवादन को नमस्ते के द्वारा किया जाता था | प्रत्येक व्यक्ति स्त्री हो या पुरुष , बालक हो या वृद्ध , पति हो या पत्नी , साधु हो या गृहस्थ , सब लोग जहाँ भी मिलते थे , एक ही अभिवादन करते थे और इस अभिवादन को हम नमस्ते के नाम से जानते हैं |
हमारे इस अभिवादन में कहीं कोई इतिहास नहीं आता क्योंकि वेद में भी अभिवादन के लिए नमस्ते का ही उल्लेख मिलता है | प्राचीन इतिहास साक्षी है कि जब भी और जहाँ भी कहीं अभिवादन की आवश्यकता पड़ी , सदैव नमस्ते शब्द का ही उल्लेख हुआ | नमस्ते में बड़े छोटे का भेद न था | सब एक दूसरे को नमस्ते से ही सम्मानित करते थे |
नमस्ते से अभिप्राय
जब हम जान गये हैं कि अभिवादन के लिए मुख्य शब्द केवल और केवल नमस्ते ही एक मात्र शब्द है , अन्य कोई शब्द आज भी समग्र विश्व में नहीं मिलता | यह अलग बात है कि अभिवादन के नाम पर आज विश्व में अनेक शब्द प्रचलित हो गये हैं | कोई राम राम कहता है तो कोई सत श्री अकाल , कोई जय गुरुदेव कहता है तो कोई जय श्री कृष्ण, कोई धन धन सतगुरु कहता है तो कोई राधा स्वामी , कोई गुड मार्निंग बोलता है तो कोई इस्लामा लकुम | इस प्रकार के अन्य भी भारी सख्या में शब्द प्रचलित हैं , जिनका प्रयोग आज अभिवादन के लिए किया जाता है किन्तु इन में से कोई भी शब्द एसा नहीं जिस से अभिवादन प्रकट होता हो | जैसे राम राम कहा गया तो इस का भाव हुआ कि राम भारतीय इतिहास में एक उतम पुरुष हुए हैं , उनका नाम हमें सदा स्मरण करना चाहिए , सत श्री अकाल का भाव है कि सत्य सदा अमर होता है | गुड मार्निंग से भाव है कि प्रात:काल आप के लिए शुभ हो आदि |
इन सब शब्दों में से किसी का भी अर्थ अभिवादन के रूप में नहीं आता | कोई शब्द उपदेश के लिए है तो कोई आशीर्वाद के लिए है | जब हम इन शब्दों को अभिवादन के लिए प्रयोग करते हैं तो एसा लगता है कि हम शिक्षित नहीं है जो इस के अर्थ को ही समझ नहीं पाए | फिर अभिवादन का एक मात्र शब्द जो वेद में दिया है , इससे उतम कोई अन्य कैसे हो सकता है ? वेद प्रभु की वाणी है , पभु का आदेश है , संदेश है, जो परमात्मा ने बनाया है , उसे छोड़ कर हम अपने ही बनाए
हुए इन शब्दों का प्रयोग क्यों करें ? वास्तव में नमस्ते से क्या अभिप्राय: है इसे जानें , तब ही इस सब का अंतर हमें समझ में आवेगा |
नमस्ते वेदोक्त शब्द है | इस शब्द का प्रयोग वेद में तो मिलता ही है , यह शब्द हमें सस्कृत साहित्य में भी सर्वत्र मिलता है | इतिहास में भी हम देखते हैं कि जब भी कहीं अभिवादन का प्रश्न आता है तो सब एक दूसरे को नमस्ते ही करते व कहते हुए मिलते हैं | छोटे – बड़े व बराबर की आयु वाले सब एक दूसरे को अभिवादन के रूप में नमस्ते ही किया करते थे | अन्य किसी शब्द का प्रयोग नहीं करते थे |
स्वामी दयानंद जी के सब ग्रंथों में जहाँ भी अभिवादन की आवश्यकता हुई है , नमस्ते का प्रयोग ही मिलता है तथा नमस्ते करने का ही उपदेश मिलता है | स्वामी जी वेद के सच्चे अर्थों में मानने वाले थे तथा वेद के प्रचारक थे | इस कारण ही उन्होंने सदा नमस्ते पर ही बल दिया है | जब हम गहनता से विचार करते हैं तो नमस्ते के अभिप्राय को जानकर नत हो जाते हैं |
नमस्ते केवल बोलकर ही नहीं की जाती अपितु एक विशेष विधि से , विशेष मुद्रा से की जाती है | यह मुद्रा ही इस के भाव को स्पष्ट करती है | जब हम अपने दोनों हाथ जोड़कर अपनी छाती पर रखते हुए अपने सिर को झुका लेते हैं तथा मुख से उच्चारण करते है नमस्ते जी , तो मन आगंतुक के सम्मुख नम्रता से भर जाता है | उसके प्रति अपार आदर का प्रकट करता है | मन में इसका भाव आता है मैं आप का मान्या करता हूँ | अर्थात मैं अपने बाहू बल से , अपने हृदय से, अपनी बुद्धि से तथा अपने सब अंगों से आप के सम्मुख नत करते हुए आप का आदर करता हूँ, आप कॅया अभिवादन करता हूँ |
जब इस प्रकार से आगंतुक का अभिवादन किया जाता है तो अभिवादन करने वाले को तो अपार आनंद की अनुभूति होती ही है | इसके साथ ही साथ आगंतुक को भी अत्यधिक आनंद अनुभव होता है तथा वह भी प्रसन्न हो कर इस प्रकार से ही आप कॅया भी अभिनन्दन करता है , आप को भी नमस्ते करता है | जब इस प्रकार नमस्ते से अभिवादन करते हैं तो प्रत्येक अभिवादन करने वाले व्यक्ति में नम्रता का भाव पैदा होता है | जब हम सब एक दूसरे के प्रति नम्र हैं , नत हैं तो किसी प्रकार के लड़ाई – झगड़े , कलह – क्लेश का तो प्रश्न ही नहीं होता | जहाँ झगड़ा नहीं, कलह नहीं, वहाँ प्रसन्नता ही प्रसन्नता होती है तथा प्रसन्न व्यक्ति में अधिक पुरुषार्थ की क्षमता आ जाती है , जिस से उसके पास धन एश्वर्य बढ़ता है , उसमें दान की भावना पैदा होती है तथा उसका यश और कीर्ति दूर दूर तक जाती है |
डॅा. अशोक आर्य
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