वेदवेत्ता स्वामी दयानंद सरस्वती जी यजुर्वेद का भाष्य करते हुए द्वीतीय अध्याय के भाष्य के आरम्भ में लिखते हैं कि दुसरे अध्याय ने उन विद्याओं की सिद्धि करने के लिए विशेष विद्याओं का प्रकाश किया है कि जो जो प्रथम अध्याय में प्राणियों के सुख के लिए प्रकाशित की हैं| उनमें से वेद ने अनेक प्रकार के पदार्थों के बनाने को हस्तक्रियाओं के सहित विद्याओं के प्रकार प्रकाशित किये हैं| उनमें से प्रथम मन्त्र में यज्ञ सिद्ध करने के लिए साधन अर्थात् उनकी सिद्धि के निमित्त कहे हैं|
दूसरे अध्याय के परिचय स्वरूप स्वामी जी ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है कि जब भी कभी कोई नया कार्य आरम्भ किया जाता है तो उस कार्य पर कुछ प्रकाश डालना आवश्यक होता है| इस प्रकाश डालने की क्रिया स्वरूप यजुर्वेद के द्वीतीय अध्याय का यह प्रथम मन्त्र हमारे सामने आता है, जो इस प्रकार है:-
कृष्णोऽस्याखरेष्ठोऽग्नये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि वेदिरसि बर्हिषे
त्वा जुष्टां प्रोक्षामि बर्हिरसि स्रुग्भ्यस्त्वा जुष्टं प्रोक्षामि॥1॥यजुर्वेद २.१
भावार्थ
इस मन्त्र का भावार्थ स्वामी दयानद सरस्वती जी ने इस प्रकार किया है:-
ईश्वर उपदेश करता है कि सब मनुष्यों को वेदि बनाकर और पात्र आदि होम की सामग्री ले के उस हवि को अच्छी प्रकार शुद्ध कर तथा अग्नि में होम कर के किया हुआ यज्ञ वर्षा के शुद्ध जल से सब ओषधियों को पुष्ट करता है| उस यज्ञ के अनुष्ठान से सब प्राणियों को नित्य सुख देना मनुष्यों का परम धर्म है|
स्वामी जी द्वारा दी गई मन्त्र की इस व्याख्या के आलोक में यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारा जीवन तीन बातों पर आधारित होता है| यह तीन बातें ही मानव का मुख्य ध्येय भी होती हैं| अत: इस मन्त्र में जो तीन बातें उभर कर सामने आती हैं, उन पर आगे की पंक्तियों में हम विचार करते हैं| यथा:-
१ अग्नये – प्रकाश से युक्त अग्निरूप प्रभु की उपासना करना:-
मन्त्र के इस खंड के प्रथम भाग में स्पष्ट किया गया है कि परमपिता प्रकाश से युक्त है| वह प्रभु प्रकाश से युक्त क्यों है?, इसे स्पष्ट करने के लिए हम कह सकते हैं कि इस संसार को प्रकाशित करने वाले जितने भी सूर्य, चाँद, तारागण आदि जितने भी पदार्थ हैं, उन सब को प्रकाशित करने वाला वह ईश्वर ही है| ईश्वर के अतिरिक्त कोई अन्य शक्ति ऐसी नहीं है, जो जगत् के किसी एक खंड को भी प्रकाशित कर सके| फिर समग्र सृष्टि तो बहुत दूर की बात है| स्पष्ट है कि पूरी सृष्टि तो क्या इसके किसी खंड को प्रकाशित करने के लिए भी ईश्वर की प्रेरणा, उसके मार्ग दर्शन की आश्यकता है| उस से प्राप्त प्रकाश के बिना विश्व का कोई अन्य पदार्थ, चाहे वह सूर्य ही क्यों न हो, कभी प्रकाश नहीं दे सकता| इन साधनों को प्रकाश देने वाला और फिर उस प्रकाश को आगे फैलाने का मार्ग दर्शाने वाला वह परमपिता परमात्मा ही है|
परमपिता परमात्मा हमारे अन्दर भी ज्ञान का प्रकाश करे, हमारी सदा ही यह इच्छा रहती है| हमारे अन्दर प्रकाश के लिए भी दो प्रकार हैं| एक तो हमें देखने की शक्ति दे और दूसरे प्रकाश का अर्थ ज्ञान से भी होता है| अत: परमपिता परमात्मा हमारे अन्दर सब प्रकार के ज्ञानों का प्रकाश कर दे| हमारी कामना तो बहुत बड़ी है किन्तु इस कामना को पूर्ण करने के लिए जिस साधना की आवश्यकता होती है, जिन सिद्धियों को प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, राग, रंग में व्यस्त होकर उन सब को पाने की और हमारा ध्यान कभी जाता ही नहीं| यदि हमारा ध्यान इन सब को पाने के लिए नहीं जाता तो यह सब हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं? इसलिए मन्त्र अपने इस प्रथम भाग में उपदेश कर रहा है कि हम उस ज्ञान स्वरूप, अग्निमय प्रभु की उपासना करें अर्थात् उस के निकट बैठने के अधिकारी बनें अर्थात् इसके लिए हम सदा उस प्रभु की स्तुति रूप प्रार्थना करें|
बहिर्षी–ह्रदय में से वासनाओं को उखाड़ फैंकना:-
मन्त्र अपने इस उपदेश के दूसरे भाग में यह उद्घोषणा कर रहा है कि उस प्रभु की उपासना के लिए, उसकी निकटता को पाने के लिए हमें अपनी शुद्धि करनी आवश्यक है| हमारा अन्दर अनेक प्रकार की बुराइयों से निरंतर दूषित हो रहा होता है| किसी भी दूषित स्थान पर उत्तम पदार्थ को रखने वाले को मूर्ख कहा जाता है| एक उत्तम गृहणी मानो शोच स्थान पर बड़े अच्छे अच्छे पकवान् अर्थात् उत्तम घी से बने झुए हलवा, पूरी, सब्जी तथा उत्तम दूध से बने हुए स्वादिष्ट खीर को रखकर किसी अभ्यागत् को कहे कि आइये मुनिवर बैठिये भोजन करिए| बताओ यह सब देखकर मुनिवर यदि कुछ न भी बोले तो वह क्या सोचेगा और क्या करेगा?
यदि उस मुनि के स्थान पर आप ही हों तो आप क्या सोचोगे, क्या करोगे?, यह स्वादिष्ट भोजन आपको कैसा लगेगा और आप उस ग्रहिणी को कैसा आशीर्वाद देंगे? इस सब पर विचार करें तो हम कह सकते हैं कि भोजन में सब प्रकार की उत्तमता होते हुए भी हम इसके पास तक भी जावेंगे| यदि पास चले भी जावें तो एक ग्रास भी हमारे मुंह में लेने की इच्छा नहीं होगी और यदि मान लें कि किसी ने एक ग्रास उठा भी लिया तो उस ग्रास को मुंह में डालने पर पता चलेगा कि उस में कोई स्वाद ही नहीं है और फिर अनायास ही मुंह से आशीर्वाद के रूप में यह शब्द निकलेगा कि यह महिला तो महामूर्ख है, जो भोजन कराने का कोई अच्छा स्थान ही नहीं चुन सकी| हां! किसी साफ़ सुथरे स्थान पर यदि वह इससे निम्न भोजन भी परोस देती तो वह निम्न भोजन भी अत्यधिक स्वाद देने वाला बनकर आशीर्वादों की वर्षा करता|
इस से यह बात निकल कर सामने आती है कि जिस ह्रदय में हम उस परमपिता परमात्मा को बैठाना चाहते हैं, उस ह्रदय का शुद्ध और पवित्र होना आवश्यक है| मलयुक्त हृदय में परमपिता परमात्मा कभी नहीं आया करता| हमारे अन्दर के मलों में से सब से दुष्ट मल होता है हमारे अन्दर की वासनाएं| यह वासनाएं ही होती है, जो हमें प्रभु के पास तक नहीं जाने देतीं और प्रभु के स्थान पर राग, द्वेष, लोभ, अहंकार आदि दुष्ट प्रवृतियों का केंद्र बना डालती है| यह सब प्रवृतियां हमें सदा ही ईश्वर से दूर ले जाने वाली होती हैं| अत; सब से पूर्व हमें इन दुष्ट प्रवृतियों अर्थात् वासनाओं को निकाल बाहर फैंकना होता है| इन दुष्ट वासनाओं के निकल जाने से हमारा अंतर पटल धुल कर पूरी प्रकार से इस प्रकार साफ़ और पवित्र हो जाता है, जिस प्रकार अच्छी वर्षा होने से हमारा वायुमंडल धुलकर साफ़ और पवित्र हो जाता है| अत: इस प्रकार खाली तथा पवित्र हुए स्थान पर प्रभु बिन पुकारे ही आकर बैठ जाता है| अत: परमपिता को प्राप्त करने का यह दूसरा उपदेश इस मंत्र ने किया है कि हम वासनाओं को निकालकर अपने अन्दर को पवित्र करें|
ज्ञान का प्रसार करना अथवा प्रजारूप अग्नि में ज्ञान स्वरूप घृत का प्रस्रवण करने वाले चम्मच बनना:
परमपिता परमात्मा अपने पैदा किये गए सब प्राणियों का पालक होता है| जिस प्रकार एक मां साधनहीन होते हुए भी अपने बालक के पालन पौषण में कोई कसर नहीं उठा रखती, उस प्रकार ही परमपिता परमात्मा भी अपनी प्रजा के पालन के लिए ठीक इस प्रकार का चम्मच बनकर कार्य करता है, जिस प्रकार अग्निहोत्र का घी से भरा हुआ चम्मच अग्नि को तीव्र करने का कारण होता है किन्तु अग्नि की गर्मी से स्वयं भी तपता रहता है|
अत: मन्त्र अपने इस तृतीय और अंतिम भाग में उपदेश करते हुए प्रकाश डाल रहा है कि प्रजारूप अग्नि को प्रकाशित करने के लिए अर्थात् संसार के सब प्राणियों में उत्तम ज्ञान का प्रकाश करने के लिए हम ज्ञानरूप घृत का वह चम्मच बने, जो चम्मच इस यज्ञ की अग्नि को विस्तृत करने के लिए यज्ञ में घी की आहुति डालने से स्वयं भी तप जाता है और अन्य सब प्राणियों को भी तप्त कर उन में ज्ञान का प्रकाश करता है| अत: हे यज्ञ करने के, ज्ञान प्राप्त करने के अभिलाषी प्राणी! तु स्वयं ही इस संसार के सब प्राणियों को प्रकाशित करने के लिए अपने अन्दर ज्ञान का भण्डार भर ले| जब तु स्वयं ज्ञानी बन जावेगा तो इस जगत् के अन्य प्राणियों को प्रकाशित करने के लिए योग्य व्यक्ति होने के नाते उन सब प्राणियों को भी ईश्वरीय ज्ञान से प्रकाशित कर सकेगा|
इस प्रकार मन्त्र स्पष्ट करता है कि हे मानव! स्वयं को उत्तम बनाने के लिए अपने को इस योग्य बना कि तु उस प्रभु के निकट बैठने का अधिकारी बन सके, अपने अन्दर की वासनाओं को प्रभु की निकटता पाने के लिए अपने अन्दर से निकाल बाहर कर तथा स्वयं ज्ञान का चम्मच बनकर स्वयं भी ज्ञानी बन और फिर अन्य लोगों में भी इस ज्ञान का प्रचार कर|
डॉ. अशोक आर्य
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