Sunday, November 24, 2024
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Homeभारत गौरवहजारों हिंदुओं को इसाई बनने से बचाने वाले पंडित प्रकाश चन्द 'कविरत्न'

हजारों हिंदुओं को इसाई बनने से बचाने वाले पंडित प्रकाश चन्द ‘कविरत्न’

आर्य समाज के शिरोमणि कवि, व्यख्ग्याता और भजनोपदेशक पंडित प्रकाश चन्द जी कविरत्न के पिता पंडित बिहारीलाल जी, उत्तर प्रदेश में स्थित अलीगढ़ नगर के निवासी थे किन्तु किन्हीं कारणों से वह अजमेर आ गए, इन पंडित बिहारीलाल जी के यहाँ ही सनˎ १९०३ ईस्वी को राजस्थान के इस नगर अजमेर में ही आपका जन्म हुआ| पिताजी आरम्भ से ही घोर पौराणिक थे| आपकी आरम्भिक शिक्षा डी ए वी हाई स्कूल में हुई | अपनी शिक्षा पूर्ण कर आप ने नौकरी प्राप्त कर आर्थिक रूप से पिता जी का सहयोग करना आरम्भ कर दिया|

आर्य समाज में प्रवेश
आपका संपर्क किसी प्रकार आर्य समाज के प्रख्यातˎ उपदेशक पंडित राम सहाय जी (जिन्होंने बाद में संन्यास ले लिया और नया नाम स्वामी ओमभक्त हुआ) से संपर्क हुआ और उन्हीं के प्रभाव से आप की आस्था आर्य समाज के प्रति हुई| इस प्रकार आप आर्य समाज के अनन्य सेवक बन गए| आप में आर्य समाज के प्रति इस प्रकार की आस्था बनी कि फिर आपने आर्य समाज की सेवा से कभी अपना हाथ पीछे नहीं खींचा और आजीवन व्याख्यानों, लेखन और भजनों के अतिरिक्त अपने कवि रूप में भी आर्य समाज की सेवा करते रहे|

जो आर्य समाज के साथ जुड़ जाता है, उसमें राष्ट्र के प्रति प्रेम की भावना तो स्वयमेव ही आ जाती है किन्तु जीवन में अनेक बार कुछ इस प्रकार की घटनाएँ आती है, जिनके कारण जीवन में अत्यधिक परिवर्तन आ जाता है| आपके जीवन में भी एक ऐसी घटना ने ही क्रान्ति ला दी| आपने जब जलियांवाला बाग में अंग्रेज द्वारा निहत्थे भारतीयों की नृशंस हत्या का समाचार सुना तो आपका ह्रदय दहल उठा| अत्यंत आहत होकर आपने देश की स्वाधीनता के लिए चल रहे आन्दोलनों का भाग बनने का निर्णय लिया ओर यह निर्णय लेते ही आपने अपनी नौकरी से त्यागा पत्र दे दिया| अब आप स्वच्छंद होकर आर्य समाज के साथ ही साथ देश की स्वाधीनता के लिए भी कार्य करने लगे|

जब आपने देश सेवा का व्रत लिया ही था कि उन्हीं दिनों शुक्ल तीर्थ ( यह गुजरात में लगने वाला एक मेला होता था) के अवसर पर ईसाई लोग भोले भाले हिन्दू लोगों को ईसाई बनाने में लगे हुए थे| आप ने इस दृश्य को अपनी आँखों से देखा तो एक बार फिर से आपके अन्दर का धर्म तीव्र रूप से जाग उठा तथा इन हिन्दुओं की रक्षा के लिए आपके अन्दर आग जल उठी| अपने अन्दर की इस वेदना को दूर करने के लिए आपने आर्य समाज के कुछ कार्यकर्ताओं को अपने साठ लिया और ईसाई होने जा रहे हिदुओं को धर्म का मर्म समझा कर उन्हें ईसाई बनने से बचाया|

मालाबार में हिन्दुओं की रक्षा
इस मेले के कुछ ही समय बाद सनˎ १९२५ में केरल में एक भयानक घटना हुई| इस घटना के अंतर्गत केरल के मोपला नामक मुसलमानों ने हिन्दुओं पर आक्रमण कर दिया| बहुत से हिन्दुओं को मार डाला गया| बहुत से हिन्दू मुसलमान बना लिए गए तथा बहुत से बच्चे अनाथ हो गए| जब आर्य समाज ने इस सम्बन्ध में महात्मा गांधी जी से बात की तो गांधी जी का कहना था कि यह तो मुसलमानों का धर्म है| उन्हें यह सब कार्य करने से हम नहीं रोक सकते क्योंकि उनके धर्म ग्रन्थ में काफिरों को मारने की आज्ञा दी गई है| इस पर आर्य समाज ने स्वयं ही अपने बल पर मोपला आन्दोलन के अवसर पर हिन्दुओं की रक्षा का कार्य आरम्भ किया| उन्हें भोजन तथा वस्त्रादि से सहयोग दिया गया| अनाथ हुए लगभग ५००० बच्चों को लाहौर लाया गया| उनके लिए अनाथालय स्थापित किया गया और इस अनाथालय से उन बच्चों का पालन किया गया| इस परकर बहुत से नहीं बल्कि हजारों हिन्दुओं को मुसलमान होने से बचाया गया| इस सेवा कार्य में भी पंडित जी सबसे आग्रिम पंक्ति में खड़े होकर सेवा करते दिखाई दिए|

कोई व्यक्ति आर्य समाज में प्रवेश करे और वह देश सेवा तथा समाज सुधार के कार्यों में न लगे यह तो कभी स्वप्न में भी नहीं हो सकता| अत: आप में भी वैदिक संस्कृति की रक्षा की भावना भी जोर पकड़ने लगी| अत: आर्य समाज ने जो कुरीतियों के नाश, अंधविश्वासों के विरोध में, छूआछूत के ल्खंदन में, नारी शिक्षा, बाल विवाह, विधवा उद्धार, आभू विवाह, गो रक्षा, वेद प्रचार आदि के जो कार्य चला रखे थे, उन्हें देख कर आपका मन भी डोल गया और इन कार्यों को करने के लिए लालायित होने लगे| परिणाम स्वरूप आपने भी समाज सुधार के इन कार्यों में पूर्ण रूप से समर्पित होकर अपना सहयोग देना आरम्भ कर दिया| उस समय आर्य समाज के जो जो भी बड़े नेता, विद्वानˎ, साधू संन्यासी आदि थे, उन सब का आपको आशीर्वाद मिलने लगा| मुख्य रूप से स्वामी श्राद्धानंद सरस्वती जी तथा पंडित शंकर देव विद्यालंकार जी आपकी प्रेरणा का कारण बने|

यह आर्य समाज के उत्थान का काल था| अत; इस समय कोई आर्य समाज का सदस्य है या नहीं किन्तु सब लोग भली प्रकर से आर्य समाज के कार्यों से परीचित हो चुके थे और अनेक लोग आर्य समाज की इस नई दिशा को स्वीकार कर इसे अपनाने में लगे हुए थे| इस अवस्था में आर्य समाज को प्रचारकों की महती आवश्यका थी| अत: जब आप अजमेर वापिस लौट कर आये तो पंडित रामसहाय जी ने आपको आर्य समाज का प्रचारक बनने के लिए प्रेरित किया| उनकी प्रेरणा से आपने उनका यह सुझाव अपने लिए एक आदेश के रूप में स्वीकार किया और उसी समय से आर्य समाज के प्रचारक बन कर आर्य समाज का सार्वजनिक रूप में प्रचार करने लगे|

इन दिनों आर्य समाज के सुप्रसिद्ध नेता कुंवर चान्द्करण शारदा जी तथा श्री पंडित जियालाल जी अजमेर में ही निवास कर रहे थे| इनके सहयोग से तथा इनके ही साथ आप दयानंद जन्म शताब्दी समारोह में भाग लेने के लिए मथुरा गए| मथुरा जाने से पूर्व आपने इस शताब्दी में गाने के लिए एक उत्तम गीत की रचना की| जब आपने यह गीत वहां पर गाया तो जन जन ने इस गीत को एसा पकड़ा कि आज इस गीत को लिखे लगभग एक शताब्दी पूर्ण होने जा रही है किन्तु आज भी आर्यजनों में इस गीत के प्रती वैसी की वैसी ही श्रद्धा बनी हुई है और आर्य लोग इस गीत को आज भी झूम झूम कर गाते दिखाई देते है| इस गीत की प्रथम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:-

वेदों का डंका आलम में बजवा दिया ऋषि दयानंद ने |
हर जगह ओउम् का झंडा फिर फहरा दिया ऋषि दयानंद ने |

सनˎ १९७५ में विवाहोपरांत जब हम आपका आशीर्वाद लेने अजमेर गए तो आपने इस गीत का मुझे भी हरमोनियम के साथ गाने का अभ्यास करवाया था| यह गीत ही आपकी सर्वाधिक लोकप्रियता का मुख्य कारण बना| इस उत्सव के अवसर पर आपको हिंदी के प्रख्यातˎ कवि पंडित नाथू राम शंकर जी से भी मिलने का अवसर मिला|( जब मैं १९९२ में अलीगढ यूनिवर्सिटी में रिफ्रेशर कोर्स करने गया तो मुझे पता लगा कि कवि शंकर जी का गाँव यहाँ से पास ही है तो मैंने वहां जाने का विचार बनाया किन्तु तब मुझे बताया गया है कि उनका पूरा परिवार यहाँ से जा चुका है तो मुझे यह विचार छोड़ना पडा) पंडित नाथूराम शंकर जी के दर्शन मात्र का आप पर एसा प्रभाव पडा कि दर्शन करते ही आपने उन्हें अपना काव्य गुरु मान लिया| इस का ही परिणाम था कि आपमें उत्तम कवि होने के गुणों का विकास हुआ|

१९७५ में जब देश में आपातकाल लागू किया गया था, उस समय मैं अजमेर आपके निवास पर परिवार सहित रुका हुआ था| मेरे विवाह में आपका भी सहयोग था, इस कारण विवाहोपरांत हम आपका आशीर्वाद लेने गये थे| इस अवसर पर आपने बताया कि सिनेमा जगतˎ से मुझे गीत लिखने और गाने के लिए निमंत्रण आया था किन्तु मैंने उस निमंत्रण को इस कारण ठुकरा दिया क्योंकि मुझे अत्यधिक पैसे की कभी इच्छा ही न थी. बस आर्य समाज का प्रचार प्रसार चाहता था और इसके लिए ही भजन लिखता और गाता था| यह उनके त्याग और समर्पण का एक बहुत बड़ा उदाहरण है| कोई अन्य होता तो इस निमंत्रण को तत्काल स्वीकार कर के चला जाता| इस के साथ ही आपने मुझे एक बड़ी सुन्दर बात कही, जिसे प्रयोग में लाने से आर्य समाज को अच्छे उपदेशक मिल सकते हैं| उन्होंने कहा कि आज मैं देख रहा हूँ गुरुकुल से पढ़कर आर्य समाज में एक पुरोहित आते हैं| आर्य समाज में लगने के पश्चातˎ वह शास्त्री, एम ए और बी एड आदि पास कर लेते हैं| फिर आर्य समाज के प्रचार को छोड़ कर कोई और नोकरी ढूँढ़ लेते हैं| इससे आर्य समाज की बहुत हानि हो रही है| मैं चाहता हूँ कि आर्य समाज का कोई पुराहित लगने के पश्चातˎ एम ए या बी एड न करे| इस से आर्य समाज का हित होगा|

वैदिक सिद्धांतो पर भजन
आपने अपने भजनों कि रचना करते हुए वैदिक सिद्धांतो और आर्य समाज के नियमों और उपदेशों का पूरा पूरा ध्यान रखा और इन के आधार पर ही भजनों की रचना की गई| यह भजन आर्य समाज के प्रचार में मार्ग दर्शक सिद्ध हुए| उनके एक भजन की पंक्तियाँ देखते ही बनती हैं:-

नित्य स्वाध्याय सत्संग करते रहो
इक दिन प्राप्त सद्ज्ञान हो जाएगा |

एक अन्य भजन , जिस में अलंकारों की छटा देखते ही बनती है, तथा एक निराकार प्रभु कि उपासना के लिए आदेश दिया है,इस प्रकार है

सुख चाहे यदि नर जीवन में भज ले प्रभु नाम प्रमाद न कर
इक वही है सुमराने योग्य सखा और किसी को याद न कर ||

अपनी त्याग भावना का भी आपने एक भजन में बड़ा सुन्दर वर्णन किया है:-

न मैं धरा धाम धन चाहता हूँ
तेरी कृपा का एक कण चाहता हूँ|

तीन बार लगातार ध की पुनरावृति कर इस भजन में कवि प्रकाश जी ने हिंदी के अलंकारों की अति मनोरम छटा बिखेर दी है और साथ ही किसी भी प्रलोभन से दूर रहने की इच्छा भी व्यक्त कर दी है|

पंडित जी ने देशभक्ति के गीतों में भी कमाल ही कर दिखाया है| अमरसिंह राठोर, चितौड की प्रलयंकारी सतीत्व की कहानी, ह्गाल्दी घाटी का युद्ध और इस प्रकार के अनेक इतिहास की गाथाओं से भरे गीतों से भी अपनी कविताओं को संजोया है| आपने जन जन को आह्वान करते हुए लिखा है:-

यह मत कहो कि जग में कर सकता क्या अकेला
लाखों में काम करता इक शूरमा अकेला||

आपकी यह रचना इतनी प्रसिद्ध हुई कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गीतों में इसे प्रमुख स्थान दिया गया|

पंडित जी के भजनों को गाने के लिए यह नहीं सोचना पड़ता था कि यह भजन किस धुन में गाया जावे और इस धुन को ढूढने के लिए उस धुन के फिल्मी गाने की खोज की जावे| यह भजन तो स्वयं ही गेय होते थे| उन्होंने कभी किसी फिल्मी धुन का आश्रय नहीं लिया और जो व्यक्ति इसे गाने बैठता है, वह स्वयं ही इस की एक धुन भी तैयार कर लेता है| इस धुन को तैयार करने की उसे आवश्यकता ही नहीं पड़ती, जिस रूप में भी वह इसे गाने लगता है, उस रूप में इनकी धुन स्वयं ही बनती चली जाती थी| वह शास्त्रीय संगीत के अच्छे जानकर थे|

आर्य समाजी हो कर देश की स्वाधीनाता के लिये कुछ न करें यह तो कभी संभव ही नहीं हो सकता| आपने इस क्षेत्र में भी स्वयं को आगे बढाया| १९३० के राष्ट्रीय आन्दोलन में आपने बढचढ कर भाग लिया और जेल भी गए| जहाँ आपको विषम यातनाएं दीं गईं किन्तु आप ने हंसते हंसते इन यातनाओं का सामना किया|

आपमें देशभक्ति की भावना इस परकर कूट कूट कर भरी थी कि क्रान्ति के मार्ग पर चलकर देश को स्वाधीन कराने की कल्पणा करने वाले वीर क्रांतिकारी योद्धा समय समय पर आपका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आपके पास आते थे और जब पुलिस उनके पीछे लगी होती थी तो आपके घर आ कर छुप जाते थे| आप का घर पहाड़ के बिलकुल साथ सटा हुआ था और जिस स्थान पर स्वामी दयानंद सरस्वती जी का अंतिम संस्कार किया गया था, उस स्थान से भी बिलकुल पास में ही था( वास्तव में यह भवन उनकी बहिन का था, जिसकी मृत्यु के पश्चातˎ उसकी कोई संतान आदि न होने के कारण बहिन का यह घर उन्हें मिला था)| निवास के दरवाजे दो गलियों में खुलते थे, इस कारण विपत्ति के समय क्रांतिकारियों को दूसरे दरवाजे से निकल कर पहाड़ पर जाकर छुपने के लिए कह दिया जाता था| १९७५ में जब मैं उनके यहाँ रुका हुआ था तो उन्होंने मुझे बताया कि क्रांतिकारी यशपाल उनके निवास पर पुलिस से बचने के लिए छूपा हुआ था| इस मध्य ही उसके मेरे निवास पर होने की भनक लग पुलिस को लग गई तथा पुलिस का छापा मेरे निवास पर लगा| छान बीन हुई तो उन्हें कुछ भी नहीं मिला क्योंकि मैंने यशपाल जी को पहले ही पीछे के दरवाजे से निकाल कर तारा गढ़(इस पहाड़ का नाम तारा गढ़ है, जो पृथिवी राज चौहान कि पत्नि के नाम पर है) की और भगा दिया ताकि वह कुछ देर के लिए वहां जाकर छुप सके|
मुझे आशीर्वाद

पंडित जी का मेरे साथ अत्यधिक लगाव था| १९७५ में जब दिल्ली के रामलीला मैदान में सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने आर्य समाज का शताब्दी समारोह किया तो पंडित जी परिवार सहित आर्य समाज बाजार सीताराम में रुके थे और मैं परिवार तथा प्राध्यापक राजेन्द्र जिग्यासु जी सहित आर्य समाज नया बांस के पास एक मंदिर में रुका था| मैं प्रतिदिन उन्हें आर्य समाज सीताराम जाकर लेकर सम्मलेन स्थल पर जाता था(वह स्वयं नहीं चल सकते थे क्योंकि गठिया रोग ने उनका शरीर जकड रखा था और अंगुलिया भी मुड चुकी थीं) तथा सायंकाल उन्हें वापिस भी लेकर आता था| जब सम्मलेन में राष्ट्रपति का संबोधन था तो उस अवसर पर आपने भी एक रचना रखी थी, इस रचना को रखने के लिए मैं ही आपको मंच पर लेकर गया था|

मेरे विवाह के समय आपने एक तो मेरे विवाह के लिए सेहरा लिखा था और एक काव्य रूप में उपदेशात्मक आशीर्वाद लिखा था, जिन्हें मैंने एक कैलेण्डर पर छपवाया था, इन दोनों को विवाह के अवसर पर गाने के लिए आपने अपने प्रिय शिष्य पंडित पन्नालाल पीयूष जी को महाराष्ट्र के नगर भंडारा में भेजा था| आप समय समय पर विशेष रूप से उत्सवों के अवसर पर मुझे आशीर्वाद स्वरूप चार पंक्तियों कविता पोस्टकार्ड पर लिख कर भेजा करते थे| इसके पीछे एक छोटा सा पत्र भी लिखते थे| आपकी अंगुलियाँ गठिया के कारण मुड़ी हुईं थीं किन्तु तो भी अपने ही हाथों से पत्र लिखकर भेजा करते थे| इस परकर का स्नेह आपको मेरे साथ था|

आप की दृष्टि दूर की भावी घटनाओं को भी जानने की शक्ति रखतीं थीं| इस कारण लगभग २४ जून १९७५ रविवार को आप मुझे लेकर आर्य समाज केसर गंज अजमेर गए और फिर आर्य समाज परोपकारिणी सभा केसर गंज अजमेर गए| आप चल नहीं सकते थे, इस कारण मैं आप को पहिया कुर्सी पर लेकर गया था| आपने दोनों समाजों में मेरा व्यख्यान करवाया था| यहाँ से लौटते समय आप ने चर्चा करते हुए मार्ग में मुझे कहा कि चुनाव केस में इंदिरा गांधी हार तो गई है किन्तु यह बड़ी चालाक है| यह अपनी सत्ता को बचाने के लिए कोई न कोई मार्ग निकाल लेगी| हुआ भी वही अगले ही दिन देश भर में आपातकाल की घोषणा करके इंदिरा ने अपनी सता को बचा लिया चाहे इस के लिए पूरे देश को जेल बना दिया|

पंडित जी ने लमबे समय तक आर्य समाज की सेवा की| इस मध्य आपने सारगर्भित तथा वेद और आर्य समाज के सिद्धांतों के अनुरूप काव्य रचना की| इसके साथ ही साथ भारतीय इतिहास की शूरता और वीरता की गाथाओं को भी काव्यबद्ध किया| इन रचनाओं के कारण आर्य समाज की भरपूर सेवा की| इस सेवा के लिए आपको अनेक बार अभिनन्दन व सम्मानित भी किया गया और आपके जीवन में आपका एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित किया गया जो आपके अभिनंदन के अवसर पर २३ अक्टूबर १९७१ को आपको भेंट किया गया| आप अपने जीवन के अंतिम लगभग डेढ़ दशक से भी अधिक समय पूर्व गठिया रोग से इस प्रकार ग्रसित थे कि अपने जीवन के लिए दूसरों पर आश्रित हो गए किन्तु तो भी आपने हांर नहीं मानी और अपने जीवन के प्राय: सब कार्य जहाँ तक संभव होते थे, स्वयं ही करते थे और मदमस्त भी रहते थे| आपने बताया कि एक बार मुझे बहुत कष्ट था, अस्पताल में भरती था| मुझे बहुत अधिक पीड़ा हो रही थी, इस कारण मैंने डाक्टर को बुलवाया किन्तु जब तक डाक्टर आते तब तक मैंने स्वयं को अपने वश में कर लिया और दर्द भुलाकर गाने लगा| डाक्टर ने जब मुझे गाते हुए देखा तो वह बहुत हैरान हुआ|

आप में इतना आत्मबल था कि इतना रुग्ण और अशक्त होते हुए भी आपने अपने मस्तिष्क को अपने से दूर नहीं होने दिया और इसका प्रयोग करते हुए निरंतर काव्य रचना करते रहे और इसके साथ ही साथ आर्य समाज के प्रचार के लिए यात्राएं भी करते रहे| इस अवस्था में आप किस प्रकार हरमोनियम बजाते थे, यह सोच कर आज भी हैरान हुए बिना नहीं रह सकते|
रचनाएँ

आपकी काव्य कृतियों में प्रकाश भजनावली के पांच भाग, प्रकाश भजन सत्संग, प्रकाश गीत के चार भाग, प्रकाश तिरंगिनी के अंतर्गत साहित्यिक कवितायें, कहावत कवितावली, गो गीत प्रकाश, बाल हकीकत, विवाह सम्बन्धी काव्य पुस्तिका(जिसका नाम इस समय मुझे याद नहीं) तथा दयानंद प्रकाश महाकाव्य उल्लेखनीय हैं| दयानंद महाकाव्य का प्रथम भाग ही प्रकाशित हो पाया द्वीतीय भाग आपने अपने मस्तिष्क में तो तैयार कर रखा था किन्तु उसे कागज पर नहीं उतार सके|

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा ने एक पुस्तिका प्रकाशित की है, जिसका नाम “दिवंगत आर्य श्रेष्ठी है| इस पुस्तक का सम्पादन डा. धर्मपाल जी ने किया है| इस पुस्तक में आर्य समाज के दिवंगत नेताओं ,प्रचारकों, तथा उपदेशकों को स्मरण किया गया है| इस पुस्तक के पृष्ट ६०-६१ पर श्री पंडित प्रकाश चंद कविरत्न शीर्षक के अंतर्गत एक लेख दिया है| यह लेख श्री मूलचंद जी गुप्त ने आर्य सन्देश में १७.१२ १९८९ के अंक में प्रकाशित हुआ था| इस लेख को वहीं से उठा कर इस पुस्तक में दिया गया है| इस लेख के अनुसार पंडित प्रकाश चन्द कविरत्न जी का देहांत ११ दिसंबर १९७७ को हुआ| यह तिथि मुझे ठीक नहीं लगती| इसका प्रमाण यह है कि जुलाई १९८० से लेकर अप्रैल १९८१ तक मैं पजाब विश्वविद्यालय में पुस्तकालय विज्ञान में स्नातकोत्तर कोर्स कर रहा था| इस मध्य पंडित जी की धर्म पत्नी श्रीमती माया देवी का देहांत हुआ था और पंडित जी ने इसकी सूचना स्वयं पत्र लिख कर मुझे दी थी| इसके पश्चातˎ भी वह अनेक वर्ष तक जीवित रहे और जब उनका स्वयं का देहांत हुआ तो इसकी सूचना उनकी सुपुत्री ने मुझे पत्र लिख कर दी थी| यह पत्र तो मेरे पास नहीं रहा किन्तु मैं यह कह सकता हूँ कि पंडित जी मृत्यु की इस तिथि के बहुत समय बाद तक भी पंडित जी जीवित रहे| संभव है यहाँ प्रूफ देखने वाले से कुछ गलती रह गई हो| हो सकता है यह सनˎ १९७७ न होकर १९८७ हो| अत: इस की खोज की आवश्यकता है|

आज पंडित जी पार्थिव शरीर के रूप में तो हमारे मध्य नहीं है किन्तु उनके काव्य और भजन आज भी बडे जोश के साथ आर्य समाजों में गाये जाते हैं, जो हमें उनकी उपस्थिति का एहसास करवाते हैं|

डॉ. अशोक आर्य
पॉकेट १/ ६१ रामप्रस्थ ग्रीन से, ७ वैशाली
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