Thursday, November 28, 2024
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Homeधर्म-दर्शनअग्निहोत्र से मस्तिष्क शुद्ध कर ज्ञान की ज्योति जलाएं

अग्निहोत्र से मस्तिष्क शुद्ध कर ज्ञान की ज्योति जलाएं

विगत मन्त्र की व्याख्या करते हुए बताया गया था कि अग्निहोत्र जल तथा वायु कोशुद्ध करता है, इससे हमारे खेतों में स्वास्थय वर्धक अन्न पैदा होते हैं| इसकी विशेष व्याख्या करते हुए बताया था कि अग्निहोत्र से सीधे रूप में वायु शुद्ध होता है और जल कण वाष्प द्वारा बादलों के पास जाते हैं| ऊपर उठते हुए यह जल कण शुद्ध वायु के संपर्क में आकर शुद्ध होकर बादलों के पास जाते हैं और फिर बादल इन शुद्ध जलों को पृथिवी पर बरसा देते हैं| इस धरती पर ही जब बीज बोया जाता है तो शुद्ध जलवायु के सेवन से यह पौधा खिलता-बढ़ता और हमें शुद्द्ध अन्न प्रदान करता है| अब इस अग्निहोत्र का और क्या लाभ होता है उस सब का वर्णन इस नवम मन्त्र में इस प्रकार किया गया है:-

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अग्ने वेर्होत्रं वेर्दूत्यमवतां त्वां द्यावापृथिवीऽअव त्वं द्यावापृथिवी स्विष्टकृद्देवेभ्यऽइन्द्रऽआज्ज्येन हविषा भूत्स्वाहा सं ज्योतिषा ज्योति:॥9॥
भावार्थ
इस मन्त्र का स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इस प्रकार भावार्थ किया है:-
ईश्वर ने मनुष्यों के लिए वेदों में उपदेश किया है कि जो-जो अग्नि, पृथिवी, सूर्य और वायु आदि पदार्थों के निमित्तों को जान के होम और दूतसंबंधी कर्म का अनुष्ठान करना योग्य है सो-सो उनके लिए वांछित सुख के देने वाले होते हैं| अष्टम मन्त्र से कहे हुए यह साधन का फ़ल नवमे मन्त्र से प्रकाशित किया गया है|

व्याख्यान
स्वामी जी द्वारा किये गए इस भाष्य के आलोक में जो तथ्य उभर कर सामने आते हैं, वह इस प्रकार हैं:-
१. हम स्वस्थ शरीर वाले बनें:-
मानव कुछ भी उत्तम अथवा निकृष्ट कर्म अथवा किसी भी प्रकार का कर्म तब ही कर पाने में सक्षम होता है, जब तक वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो| स्वस्थ शरीर में ही कर्म करने की क्षमता निवास करती है| हमने क्षमताशील बनना है| इसके लिए हमारे स्वास्थय का उत्तम होना आवश्यक है| स्वस्थ शरीर के लिए हमें नियमित रूप से कुछ बातों का ध्यान रखना होता है और फिर सावधानी पूर्वक कर्म करना होता है| यह कर्म इस परकर हैं:-
अ) हम अपने शरीर को किसी नियम से बांधें:-
हम अपने शरीर को अपने नितय के क्रियाक्रम के नियम से बांध लें| इसका भाव यह है कि हम अपनी दिनचर्या को समय बध करें, जो काम जिस समय करना है, उसे,उसी समय ही करने के आदि बनें| इस प्रकार करने से हमारे शरीर को एक नियम से कार्य करने की आदत हो जावेगी और फिर वह इन कार्यों में कभी बाधक नहीं होगा|
आ) शरीर को कर्मशील बनाए रखें:-
हम अपने शरीर से सदा कुछ न कुछ काम लेते रहें, इसे कभी खाली न रखें| कर्मशील शरीर सदा स्वस्थ रहता है और इससे होने वाले कार्यों से हमारे जीवन उन्नति के मार्ग प्रशस्त होते हैं| जो व्यक्ति उन्नति की और जा रहा होता है, उसमे स्वयं में तो प्रसन्नता का भाव दिखाई देता ही है, दूसरे लोग भी उसे कर्म प्रधान पाकर उसका आदर करते हैं| इस प्रकार उसे अत्यधिक धन धान्य या एश्वर्य मिलता है, इस कारण उसका यश और कीर्ति भी दूर दूर तक जाती है| इस प्रकार वह अपार धनों का स्वामी होकर यशस्वी हो जाता है तो उसका स्वास्थय स्वयमेव ही उन्नत हो जाता है तथा सब प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं|
इ) स्वास्थयप्रद पौष्टिक भोजन का सेवन:-
आज के युग में हमारा खाणा बिगड़ गया है| एक समय था प्रात: सूर्य निकल्रने से पूर्व ही घर को झाड-बुहार तथा धोकर साफ़ सुथरा कर लिया जाता था और फिर चक्की लगाकर दिन भर के लिए आटा आदि पीस लिया जाता था| इसके अतिरिक्त अन्य सब काम भी हाथ से ही किये जाते थे| इन कार्यों से शरीर को अत्यधिक व्यायाम करने का अवसर स्वयं ही मिल जाता था और अपने हाथ से तैयार व्यंजन खाने को मिलते थे, जिनमें शुद्धता होती थी और जब इन व्यंजनों को हम घी- मक्खन, दूध- दहीं आदि के साथ मिला कर खाते थे तो इस से न केवल हमारे पेट की आवश्यताएँ ही पूर्ण होती थीं अपितु अत्यधिक पौष्टिकता भी मिलती थी|
आज पौष्टिकता और शुद्धता का स्थान जीभ के स्वाद ने ले लिया है| आज बाजार से जाकर पीजा, कुलचा, हाटडाग और न जाने क्या क्या खाया जाता है| इन सब को खाने के पश्चातˎ घर में कोई व्यायाम आदि नहीं होता, इस कारण एक और तो हम अशुद्ध खाना खा रहे हैं और दूसरी ओर इस खाने मे पौष्टिकता का अभाव हो रहा है| इस कारण आज घर घर के अन्दर पड़े हुए रोगी मिलते हैं| उत्तम स्वास्थय तथा प्रसन्नता तथा क्रियाशीलता के लिए हमारे खाने का शुद्ध, पवित्र और पौष्टिक होना आवश्यक होता है| इसलिए हम प्रयास करें कि हम अपने शरीर को बाजारू भोजन से बचावें और शुद्ध पवित्र तथा पौष्टिक भोजन, जहाँ तक हो सके घर का बना ही खाएँ।

ई) नियमित व्यायाम:-
उत्तम स्वास्थय के लिए इस शरीर को व्यायाम की भी आवश्यकता होती है| अत: हमारे लिए यह भी आवश्यक है कि हम नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम भी करें| फिर यह व्यायाम चाहे दण्ड बैठक हो, योगिक क्रियाएं हो, आसन हो, योग प्राणायाम हो या फिर दौड़ आदि लगाना ही हो| यह भी उत्तम स्वास्थय की एक अन्य कुंजी होते हैं|

२. यज्ञ आदि कर्मों में व्यस्त रहें:-
प्रथम लक्ष्ण हमने अपने शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए विभिन्न क्रियाएं बताईं थीं और अब इसका दूसरा लक्षण है हम अपने वायु मंडल, अपने अन्दर और बाहर तथा अपने जलादि को शुद्ध तथा पवित्र रखने के लिए नियमित रूप से यज्ञ अथवा अग्निहोत्र करें| जब हम अग्निहोत्र कर रहे होते हैं तो इस अवसर पर हमारी साँसे भी चल रही होती है| इन श्वासों में हम कंभी बाहर की वायु को अन्दर की और खींचते हैं और कभी इसे बाहर छोड़ते हैं| हमारी इन क्रियाओं से अग्निहोत्र के कारण जो वायु शुद्ध हो जाती है, वह हम अन्दर लेते हैं| इस से स्वास्थयप्रद ओर पौष्टिक वायु का हम सेवन कर पाने में समर्थ होते हैं| यज्ञ के मन्त्रों का वाचन करने से जो संगीत ध्वनी उत्पन्न होती है, उससे हमारे अंदर अनेक प्रकार की उपयोगी गैस प्रवेश करती है, जिनसे हमारे मस्तिष्क को स्वास्थय लाभ मिलता है और शरीर के प्रत्येक अंग से रोगाणुओं का नाश होता है| इससे निकलने वाली उत्तम वायु से हमारा वायु मंडल शुद्ध होता है और इससे बनने वाली वाष्प उड़ कर बादलों के पास जा कर उत्तम तथा शुद्ध जलों की वर्षा का कारण बनते हैं| इस जल के सेवन से हमारी धरती आनंदित हो उठती और इस धरती मे डाले गए अन्नों के बीज उगकर हमारे लिए शुद्ध, पवित्र तथा पौष्टिक अन्न भी पैदा करते हैं| इस प्रकार हमें यज्ञ आदि कर्म करने से भी सब प्रकार के सुखों के साथ प्रसन्नता भी मिलती है|

३. हम स्वस्थ मस्तिष्क वाले बनें:-
यज्ञ से निकलने वाली पवित्र तथा शुद्ध हवाएं हमारे मस्तिष्क को भी प्रफुल्लित कर देती हैं| हमारे रक्त के अन्दर प्रतिक्षण लहरें उठती रहती हैं| चिकत्सकों ने इन लहरों को दो नाम दिये हैं|
क) अल्त्ट्रासानिक वेव्स और
(ख) दूसरे सुपरासानिक वेव्स

जब तक यह दोनों प्रकार की लहरें संतुलित रहती हैं, तब तक हमारा मस्तिष्क ठीक रूप से कार्य करता है और ज्यों ही इन लहरों का संतुलन अथवा अनुपात बिगड़ जाता है, त्यों ही हमारे मस्तिष्क में विकार आ जाता है| इस प्रकार के व्यक्ति के लिए हम प्राय: पागल शब्द का प्रयोग करते हैं अर्थातˎ वह पागल हो जाता है|
जब हम नित्य यज्ञ करते हैं, जहाँ इससे निकालने वाली उत्तम वायु का हम सेवन करके स्वस्थ होते हैं, वहां हम इस के साथ वेद मन्त्रों का भी उच्च्चारण करते हैं| वेद के मन्त्रों के उच्चारण से निकलने वाले संगीत की ध्वनियाँ हमारे अन्दर ठाठें मार रहे रक्त की लहरों को संतुलित कर देती है, जिससे हमें कभी पागलपन का दौरा नहीं पड़ता और हम सदा प्रसन्न रहते हैं| इस प्रसन्नता को पाने के लिए भी प्रतिदिन नियमित रूप से वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ को करना भी हितकर होता है|

४. प्रभु के ज्ञान ज्योति को प्राप्त करें:-
हम नियमित रूप से प्रभू के ज्ञान की ज्योति को प्राप्त करें| यह एक चिंतनीय प्रश्न है| हम ज्ञान को तो जानते हैं किन्तु यहाँ तो कहा गया है कि हम प्रभु के ज्ञान की ज्योति को प्राप्त करें| इसके लिए हमें प्रभु के ज्ञान को समझना होगा| जब हम प्रभु के दिए हुए ज्ञान को जान जावेंगे तो ही हम उसकी ज्योती को अपने अन्दर जगा पावेंगे| अत: आओ हम जानने का प्रयास करें की प्रभु का ज्ञान क्या होता है?:-

जिस प्रकार आज हम बाजार से कोई ओजार या कोई मशीन आदि खरीदते हैं तो इस के कवर के अन्दर से हमें एक छोटी सी पुस्तक मिलती है| इस पुस्तक में इस वस्तु को किन किन वस्तुओं से बनाया गया है, उनकी कितनी कितनी मात्रा मिलाई गई है, इसका कैसे प्रयोग करना है और यदि वह खराब हो जावे तो उसके लिए इस पुस्तिका में एक वारंटी कार्ड लगा होता है, जिस पर कम्पनी के उस केंद्र का नंबर लिखा होता है, जिससे उस वस्तु को ठीक करवाया जा सकता है| यह सब तो साधारण अवस्था में होता है|

जहां प्रभु ने यह विशाल सृष्टि बनाई है तो निश्चय ही परमपिता परमात्मा ने हमें इस बात का ज्ञान भी दिया होगा कि इस जीव को कैसे बनाया गया है, इस जीव का प्रयोग अथवा व्यवहार कैसा होगा, इसका परिचालन कैसे होगा, यदि यह बिगड़ (बीमार) जावे तो इसे कैसे ठीक किया जावे तथा इस जीव के शरीर का नित्य व्यवहार और व्यवसाय क्या होगा? इस सब प्रकार के ज्ञान का नाम है वेद| वेद इन सब ज्ञानों की पुस्तक है| यह वेद चार हैं| सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने इन चार वेदों का ज्ञान एक एक कर चार ऋषियों को दिया था| इन चार ऋषियों के नाम थे, अग्नि, आदित्य, वायु और अंगीरा| इन चार ऋषियों को यह सब ज्ञान परमात्मा ने एक साथ ही दिया था| इस कारण वेद को ही ज्ञान कहा गया है|

हमारे प्राचीन ऋषियों ने इस ज्ञान की ज्योति निरंतर अपने अन्दर जगाये रखी और फिर इसे मौखिक रूप से आगे देते चले गए| जब जनसंख्या बढ़ने से विविध प्रकार के कार्य भी बढ़ गए तो मनुष्य की स्मरण शक्ति कुछ कम हो गई| अब कुछ लोग इस प्रकार के हुए जिन्हें एक वेद स्मरण था तो उन्हें वेदी कहा गया, जिन्हें दो वेद स्मरण थे, उन्हें द्विवेदी खा गया, जिन्हें तीन वेद याद थे, उन्हें त्रिवेदी कहा गया और जिन्हें चारों वेद ही स्मरण थे, उन्हें चतुर्वेदी कहा गया|

इससे भी आगे चलकर जब स्मरण शक्ति और भी कम हो गई तो इन वेदों को पुस्तक के रूप में लिख दिया गया ताकि प्रभु का दिया हुआ ज्ञान लुप्त न हो| आज यह ज्ञान चार पुस्तकों के रूप में प्राप्त होता है, जिनके नाम हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद| यह लिख तो दिए गए किन्तु आज भी बहुत से लोग और गुरुकुलों के विद्यार्थी मिलते हैं, जिन्होंने एक, दो तीन अथवा चारों के चारों वेद मौखिक रूप से स्मरण हैं और वह इनमे आये मन्त्रों को बहुत ही उत्तम ढंग से संगीतमयी रूप में गाकर सुनाते हैं|

यह ही प्रभु का दिया हुआ ज्ञान है| इस ज्ञान के आधार पर ही हमने स्वयं को चलाना होता है| जो इसमें दिए नियमों की ज्वाला को अपने अन्दर जलाए रखता है, वह सुखी रहता है और जो प्रभु के इन उपदेशों को धारण नहीं करता ,वह दु:खी रहता है| अत: सुखी रहने के लिए भी आवश्यक है कि हम प्रभु के दिए इस वेद के ज्ञान की ज्वालाओं को अपने अन्दर जलाए रखें| यह ही सुख का साधन है और यह ही प्रसन्नता का साधन है, इससे ही शरीर स्वस्थ रहता है|

इस लिए स्वस्थ शरीर के लिए, दीर्घायु के लिए, प्रसन्नता के लिए, ज्ञानवान बनाने के लिए हम अपने जीवन को नियमित बनाते हुए नित्य अग्निहोत्र करें और उस प्रभु के दिए वेद ज्ञान की ज्वाला को अपने अन्दर जलाए रखें|

डॉ. अशोक आर्य
पॉकेट १/ ६१ रामप्रस्थ ग्रीन से, ७ वैशाली
२०१०१२ गाजियाबाद उ. प्र. भारत
चलभाष ९३५४८४५४२६
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