फॉरेस्ट-प्लस यूएसएड और भारत सरकार की मिलीजुली पहल है जिसका मकसद वनों के प्रबंधन के अलावा जलवायु में बदलाव को रोकना, जैव विविधता का संरक्षण और आजीविका लाभ में बढ़ोतरी करना है।
ऐसा अनुमान है कि भारत में करीब 30 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए प्रत्यक्ष तौर पर वनों पर आश्रित हैं। अब जबकि, बहुत भारी तादाद में भारत के वनों का क्षरण हुआ है तो इसके चलते वनों से मिलने वाले सामान और आर्थिक विकास के लिए आवश्यक सेवाओं पर भी असर पड़ा है। इन चुनैतियों से निपटने के लिए यूनाइटेड स्टेट्स एजंसी फॉर इंटरनेशनल डवलपमेंट (यूएसएड) ने भारत सरकार के साथ एक द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किया और साल 2012 में फॉरेस्ट-प्लस कार्यक्रम शुरू किया।
साल 2012 से 2017 तक, फॉरेस्ट-प्लस ने कर्नाटक, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम में वनों से कार्बन उत्सर्जन को घटाने के उपायों से संबंधित पहलों पर ध्यान केंद्रित किया। यूएसएड और भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने मिलकर फॉरेस्ट-प्लस का इस तरह से खाका तैयार किया कि उसमें दोनों देशों की तकनीकी विशेषज्ञता का फायदा उठाया जा सके और जलवायु में बदलाव के मसले को ध्यान में रखते हुए भारतीय वनों का प्रबंधन, जैव विविधता का संरक्षण, पर्यावरण सेवाओँ को बेहतर बनाने और वन आधारित आजीविका को बढ़ाने की दिशा में काम किया जा सके।
इस कार्यक्रम की सफलता की बहुत से मिसालें हैं जिन्हें यूएसएड और भारतीय पर्यावरण, वन एवं वातावरण परिवर्तन मंत्रालय के सहभागी प्रयासों का प्रत्यक्ष प्रमाण माना जा सकता है।
उदाहरण के लिए सिक्किम में, एक ऐसे जैव ईंधन बायो ब्रिकेट्स को तैयार करके उसे प्रचारित किया गया ताकि वृक्षों से ईंधन निकालने के काम को कम किया जा सके। इसके अलावा, रुमटेक और दूसरे बौद्ध मठों में बौद्ध भिक्षुओं को वातावरण में बदलाव से जुड़े जागरूकता अभियान के बारे में जानकारी बौद्ध मिक्षुओँ से ही दिलाई गई। इंसान और वन्य जीव के बीच संघर्ष को कम करने के लिए राज्य के दो अभ्यारणों में स्थानीय समुदायों और वन अधिकारियों के साथ मिलकर समस्या के अभिनव समाधान खोजे गए।
हिमाचल प्रदेश के रामपुर में सोलर हीटिंग सिस्टम शुरू होने से लकड़ी जलाने के काम में 32 फीसदी की कमी आई और महिलाओं पर काम का भार भी कम हुआ। इसके चलते एक और बड़ा काम हुआ कि इससे चारा प्रबंधन तकनीक में सुधार हुआ और पेडों को संरक्षण के साथ घास की उपज सात गुना तक बढ़ गई। कर्नाटक के शिवमोगा में हुआ काम भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। यहां 21453 हेक्टेयर वन क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन को घटाने के लिए यहां के 6 गांवों में स्थित वन संस्थाओँ को कार्बन उत्सर्जन पर निगरानी रखने क बारे में जानकारी और उपकरणों से सुसज्जित किया गया। यहां रेडियो और नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से जनता को वातावरण में बदलाव और सदाजीवी वन क्षेत्र प्रबंधन के बारे में जागरूक बनाया गया। होशंगाबाद मध्य प्रदेश में जहां सीजन के हिसाब से वन क्षेत्र सूख जाते हैं, वहां कॉरपोरेट जगत की मदद से प्राकृतिक वनों को बचाने के लिए, उन वन क्षेत्रों के बाहर नए वृक्षों को लगाने की रणनीति काफी सफल रही।
फॉरेस्ट-प्लस की बड़ी सफलता की बुनियाद पर जिसकी कुछ पहलें अपने किस्म की पहली थीं, फॉरेस्ट-प्लस -2.0 की शुरुआत दिसंबर 2018 में की गई। इसमें लक्षित वनों के परिदृश्य के बेहतर प्रबंधन के लिए बिहार के गया, तिरुअनंतपुरम, केरल और मेंडक, तेलंगाना के वन क्षेत्र लैंडस्केप संरक्षण की बड़ी चुनौती से निपटने के लिए पांच साल की योजना बनाई गई। यूएसएड इंडिया के वरिष्ठ वन सलाहकार वर्गीज पॉल इसे “जल और समृद्धि के लिए वन” की संज्ञा देते हैं।
पॉल के अनुसार, “पानी हमारे इकोसिस्टम की सेवाओं में सबसे महत्वपूर्ण सेवाओं में से एक है जो हमें वनीकृत क्षेत्रों से हासिल होता हैं। उनका कहना है कि “ऐसे समय में जबकि भारत में विश्व का कुल 4 फीसदी पानी मौजूद हो और उसे दुनिया की कुल 16 फीसदी आबादी और 18 फीसदी पशुधन का बोझ उठाना हो तो यह सवाल और बड़ा और महत्वपूर्ण हो जाता है। वर्ष 2016 में हुए एक विश्लेषण के अनुसार भारत की करीब 400 नदियों में से 290 के अध्ययन में यह बात सामने आई है कि इनमें से 70 फीसदी नदियों की हालत बहुत खराब है। इनमें पानी का बहाव कम से कमतर होता जा रहा है और इसमें जो पानी बचा भी है, वह काफी प्रदूषित हो चुका है।
यूएसएड इंडिया के साथ काम कर रही वन विशेषज्ञ सौमित्री दास के अनुसार, “साफ पानी की किल्लत ने इन वनों के महत्व को काफी बढ़ा दिया है क्योंकि इन्हीं क्षेत्रों मे बहुत सी नदियों का उद्गम होता है और वे इन्हीं वन क्षेत्रों में संरक्षित भी रहती हैं।” वनों की समृद्धि के बिना लाखों लोग, जानवर और पूरी पारस्थितिकी न सिर्फ अपने अर्थतंत्र को खो देगी बल्कि साफ पानी और हवा के लिए जरूरी वातावरण की स्थिरता पर भी खतरा पैदा हो जाएगा। लोगों के लिए मनोरंजन और आध्यात्मिक दृष्टि से भी वनों का इस्तेमाल मुश्किल हो जाएगा।
फॉरेस्ट-प्लस 2.0 के चीफ ऑफ पार्टी उज्ज्वल प्रधान के अनुसार, “फॉरेस्ट-प्लस 2.0 के सामने यह लक्ष्य है कि भारत में वन प्रबंधन के तौरतरीकों में बदलाव लाए। एक ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र को विकसित किया जा सके जिससे वनों से मिलने वाली सेवाओं या सुविधाओं को और बेहतर बनाया जा सके। वह बताते हैं कि ” इसके साथ ही चुनौती यह भी है कि इन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर सभी लोगों की आजीविका में कैसे सुधार आए, सिर्फ जिंदा रहने से कहीं आगे बढ़कर।”
पॉल का कहना है कि “किस्मत से हमारे पास उन्नत उपकरणों और तकनीक के अलावा भारत और अमेरिका के सर्वाधिक प्रतिबद्ध और शिक्षित दिमागों के साथ-साथ काम करने और इन समुदायों में रहने वाले लोगों के महत्वपूर्ण समर्थन से ऐसा बहुत कुछ है जिसको लेकर हम उत्साहित हो सकते हैं, ऐसे वक्त जब हम जलवायु संकट का सामना सिर्फ खतरे के लिहाज से नहीं, बल्कि वनों के साथ सामंजस्य के साथ रहने के अवसरों के तौर पर भी कर रहे हैं।”
मेगन मैक्ड्रू मोंटेरे, कैलिफ़ोर्निया में रहती हैं और वह कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी सांताक्रूज में समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं।
साभार-https://spanmag.com/ से