कराची में मांगा राम कर्मचंदानी सुबह के समय अपने घर की बालकनी में खड़े थे. जब उन्होंने देखा कि लोग गुरुद्वारे पर हमला कर रहे हैं और सिख सरदार तलवारों से अपना बचाव कर रहे हैं.
गुरुद्वारे में अचानक आग की लपटें उठने लगीं. कुछ सरदार ख़ुद को बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे, कुछ मरे हुए ज़मीन पर पड़े थे. घटना के बाद, आक्रोशित भीड़ शहर के विभिन्न हिस्सों में फैल गई और घेराबंदी करके आग लगानी शुरू कर दी. इससे शहर में रहने वाले हिंदू सबसे अधिक प्रभावित हुए.
मांगा राम उस समय 15 साल के थे और वह कराची के रतन तलाव क्षेत्र में अकाल बुंगा गुरुद्वारे के पास रहते थे. छह जनवरी, 1948 को होने वाले, इन हमलों और दंगों के बाद, वे हज़ारों अन्य परिवारों की तरह भारत चले गए.
मांगा राम ने एक इंटरव्यू में नंदिता भवानी को यह बात बताई थी. नंदिता ने भारत विभाजन और सिंधी हिंदुओं की समस्याओं पर एक पुस्तक लिखी है, जिसका नाम है ‘द मेकिंग ऑफ एग्ज़ाइल सिंधी हिंदू एंड पार्टिशन’.
पाकिस्तान की स्थापना के बाद छह से सात जनवरी, 1948 के बीच राजधानी कराची में हुए दंगों में दर्जनों लोग मारे गए थे. कराची से प्रकाशित अख़बारों में ये आँकड़े सुर्ख़ियों में नज़र नहीं आए.
मुस्लिम लीग से जुड़े सिंधी दैनिक ‘अल-वहीद’ ने एसोसिएटेड प्रेस के हवाले से प्रकाशित किया कि दो दिनों में 127 लोग मारे गए और 300 से अधिक घायल हुए.
लाहौर से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘इंक़लाब’ ने अपने दस जनवरी के अंक में प्रकाशित ख़बर में मरने वालों की संख्या 105 बताई और कहा इतने ही लोग घायल भी हुए.
नंदिता भवानी अपनी किताब में लिखती हैं कि छह जनवरी को सिख उत्तरी सिंध से ट्रेन के ज़रिये कराची पहुंचे ताकि वे यहां से भारत रवाना हो सकें. उन्हें यह उम्मीद थी कि रेलवे स्टेशन से पुलिस वैन में उन्हें रतन तलाव में अकाल बुंगा गुरुद्वारा स्थानांतरित किया जाएगा.
कांग्रेस के प्रांतीय असेम्ब्ली के सदस्य स्वामी कृष्ण नंद ने जब पुलिस वैन को नहीं देखा, तो उन्होंने एक तांगा किराए पर लिया और मेकलो रोड से रतन तलाव गुरुद्वारे के लिए निकल गए.
वह लिखती हैं कि रास्ते में, कुछ सिखों को तांगों से खींच कर उतारा गया और लोग “मारो मारो” चिल्लाने लगे, लेकिन वो गुरुद्वारे तक पहुंचने में कामयाब हो गए. फिर दो घंटे के भीतर बड़ी संख्या में आक्रोशित लोगों की एक भीड़ इकट्ठा हो गई और अंदर घुस कर आग लगा दी और सिखों का नरसंहार शुरू कर दिया.
वर्तमान समय में प्रीडी थाने के सामने स्थित इस गुरुद्वारे की ज़मीन पर अब नबी बाग़ कॉलेज बन चुका है. इसके पीछे कुछ दीवारें और जले हुए दरवाज़े, अभी भी इतिहास की इस त्रासदी के प्रमाण के रूप में मौजूद हैं. इस सड़क का नाम आज भी टेम्पल रोड है.
रतन तलाव गुरुद्वारे से शुरू होने वाला हंगामा शहर भर में फैल गया. सिंधी भाषा के कवि और लघु कथाकार ठाकुर चावला ने अपनी सिंध यात्रा की पुस्तक ‘तुम सिंध में रह जाओ’ में उस दिन को याद करते हुए लिखा कि दंगे जल्दी ही पूरे शहर में फैल गए. विशेष रूप से उन इलाकों में जहां हिंदू आबादी थी, गाड़ी खाता, फ्रेरे रोड, बिरिंस रोड, जमशेद क्वार्टर्ज़, आमिल कॉलोनी का घेराव किया गया और लूटपाट की गई.
हिन्दू बहुल क्षेत्र आर्य समाज राम बाग़, रतन तलाव में स्थित कांग्रेस के कार्यालय स्वराज भवन और लॉरेंस रोड पर स्थित राम कृष्णा मेंशन पर हमला किया गया.
ठाकुर चावला गाड़ी खाता (अब पाकिस्तान चौक) के पास स्थित ठाकुर निवास नामक एक पांच मंज़िला इमारत में रहते थे. वह लिखते हैं कि पहली मंज़िल पर कार्यालय और तीसरी मंज़िल पर निवास था, बाक़ी के अपार्टमेंट किराए पर दिए हुए थे.
“छह जनवरी, 1948 को सुबह दस बजे, गली में हंगामा शुरू हो गया और ‘अल्लाहु अकबर’ के नारे सुनाई देने लगे. जब मैं बालकनी में गया, तो मैंने देखा कि, डॉक्टर प्रेम चंद के घर के नीचे गली के कोने पर ट्रक खड़े थे, जिनमें हिंदुओं का सामान लादा जा रहा था. ये चालीस से पचास लोग थे जिनके हाथों में तलवारें, चाकू और लाठियां थीं. कुछ ही पलों में यह भीड़ हमारी बिल्डिंग में घुस गई. मैंने आवाज़ लगा कर चौकीदार को लोहे का दरवाज़ा बंद करके ताला लगाने को कहा.”
“हमारे रिश्तेदार अपना और लड़कियों के दहेज़ का सामान पहले ही हमारे पास रख कर गए थे, कि पानी के जहाज़ पर सवार होने से एक दिन पहले आ जायेंगे. हमने पहली मंज़िल पर दो फ्लैट, यानी छह कमरे उनके सामान के लिए खाली कर दिए थे. हर एक पैकेट या बक्से पर उनका नाम था, दुर्भाग्य से उस दिन हमारा सामान भी वहीं रखा था.
वह बताते हैं कि भीड़ लोहे के गेट को तोड़ने लगी. “हमने ऊपर से जो भी उपलब्ध था उसे फेंक कर उन्हें भगाने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे. आख़िरकार वे अंदर घुस गए और सामान लूट कर ट्रक में लोड करना शुरू कर दिया. मैं पुलिस को फोन करने की लगातार कोशिश करता रहा लेकिन उनका नंबर व्यस्त था.”
वे नारे लगाते हुए कमरे तक आ गए और दरवाज़ा तोड़कर चाकू से वार किया. मेरे चेहरे, नाक और पीठ पर ज़ख्म थे. हमने महिलाओं और बच्चों को ऊपर के कमरे में छिपा दिया और बाहर से कमरे को ताला लगा दिया था.
अंग्रेज़ी दैनिक ‘सिंध ऑब्ज़र्वर’ ने मारे गए लोगों की जो सूची प्रकाशित की थी, उसमें मेरा भी नाम था क्योंकि मैं गंभीर रूप से घायल हो गया था.
उन दिनों, कराची से बॉम्बे के लिए पानी के जहाज़ के टिकट मिलते थे और यात्रियों को प्रस्थान के लिए दस दिन इंतज़ार करना पड़ता था.
चीतोमल ने अपने इंटरव्यू में नंदिता भवानी को बताया कि सोभराज अस्पताल के पास एक आर्य समाज स्कूल था (उर्दू बाज़ार में स्थित इस स्कूल का नाम बाद में केंद्रीय गृह मंत्री फ़ज़लुर रहमान के नाम पर रखा गया), जहां सौ से अधिक परिवारों ने शरण ली हुई थी. ये परिवार उत्तरी सिंध के विभिन्न हिस्सों से आए थे.
भीड़ दरवाज़ा तोड़कर अंदर घुस गई और जो लोग विरोध कर रहे थे उनको मार दिया या घायल कर दिया गया. संपत्ति के अलावा, महिलाओं के गहने भी छीन लिए गए.
“इन लोगों ने तांगों, ट्रकों, कारों में सामान डाल लिया. जिन लोगों के पास कोई सवारी नहीं थी, वो सिरों पर उठा कर ले गए. वहां मौजूद महिलाएं, बच्चे और पुरुष चिल्ला रहे थे, और जो घायल थे वो कराह रहे थे. दंगाइयों ने जाने से पहले मिट्टी का तेल और टायर जला कर स्कूल में आग लगा दी.”
सिविल एंड मिलिट्री गजट कराची के संपादक एमएसएम शर्मा ने अपने संस्मरण ‘पीप्स इन टू पाकिस्तान’ में लिखा है कि, “वह अपने घर मद्रास गए हुए थे और छह जनवरी को कराची लौटे थे. हवाई अड्डे पर उन्हें लेने कार नहीं आ सकी थी. उन्होंने मिस्टर खूड़ो को फ़ोन किया, उन्होंने स्कॉट भेजा.”
दंगाइयों ने राम कृष्णा मेंशन को भी नहीं छोड़ा जो एक कल्याणकारी संस्था थी. एमएसएम शर्मा ने बिना किसी धार्मिक भेदभाव के बंगाल में अकाल के दिनों में बहुत अच्छा काम किया.
“मैं पहले उस जगह गया जहां रामा कृष्णा की मूर्ति टूटी हुई थी, किताबें बिखरी पड़ी थीं. मेरे लिए दूसरा आघात डॉक्टर हेमनदान वाधवानी का हमले में घायल होना था. वो मानवता पर भरोसा करते थे और उनके नर्सिंग होम में ग़रीबों का मुफ़्त इलाज किया जाता था.”
डॉक्टर हमीदा खूड़ो ने अपने पिता अय्यूब खूड़ो के संस्मरणों पर आधारित अपनी किताब ‘मोहम्मद अय्यूब खूड़ो: जुर्रतमंदाना सियासी ज़िन्दगी'(साहसिक राजनीतिक जीवन) में लिखा है कि, छह जनवरी को जब दंगे की ख़बर सामने आई तो मुख्यमंत्री अय्यूब खूड़ो अपने कार्यालय में थे. 11 बजे, शांति बोर्ड के सचिव, ठल रामानी, दौड़ते हुए आये और कहा कि, सिखों पर हथियारबंद लोगों ने खंजरों से हमला कर दिया है.
खूड़ो कहते हैं कि उन्होंने डीआईजी पुलिस काज़िम रज़ा से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन वह उपलब्ध नहीं थे. इसलिए उन्होंने आईएसपी शरीफ़ ख़ान को निर्देश दिया कि गुरुद्वारे का घेराव करके लोगों की जानें बचाएं. एक घंटे के बाद, रामानी दोबारा आये और कहा कि लोगों को अभी भी मारा जा रहा है, पुलिस कुछ भी नहीं कर रही है.
अय्यूब खूड़ो के अनुसार, दोपहर 12:30 बजे, वह अपने कार्यालय से निकल कर दंगा प्रभावित इलाकों की तरफ गए और अपनी आंखों से देखा कि चाकू और लाठी से लैस लोग मंदिरों पर हमला कर रहे थे. उनमें से कई गुरुद्वारे में घुस गए थे. एसपी और पुलिसकर्मी घटनास्थल पर मौजूद थे, उनका कहना था कि उनके पास लाठी से लैस केवल दस सिपाही हैं, जो दंगों को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.
संस्मरण के अनुसार, अय्यूब खूड़ो एक गार्ड, एक ड्राइवर और एक बंदूक के साथ उस क्षेत्र मे गए थे. उन्होंने अपने सुरक्षा गार्ड से कहा कि निशाना लगाओ, उन्होंने ख़ुद भी फ़ायरिंग की, जिसके बाद दंगाई इधर-उधर हो गए. लेकिन तब तक शहर में दंगे फैल गए थे, उन्होंने शहर के कई इलाकों का दौरा किया और अपनी निजी पिस्तौल का इस्तेमाल किया.
कराची में जनवरी 1948 के दंगों के कारण पाकिस्तान की राजधानी में पहला कर्फ्यू लगा था, यह कर्फ्यू चार दिनों तक चला था. अय्यूब खूड़ो के संस्मरणों के अनुसार, उन्होंने डेढ़ बजे जीओसी अकबर ख़ान से संपर्क किया, जिन्होंने उन्हें बताया कि तीन बजे सेना पहुंच रही है.
ब्रिगेडियर केएम शेख़ की कमांड में, सेना शहर में दाखिल हुई. अय्यूब खूड़ो ने उनसे मीटिंग की, उन्होंने ब्रिगेडियर केएम शेख से कहा कि अगर जरूरत पड़े तो देखते ही गोली मार दी जाये.
मुस्लिम लीग के क़रीबी सिंधी दैनिक ‘अल-वहीद’ में छह जनवरी के अंक में ख़बर प्रकाशित हुई कि पुलिस और सेना ने स्थिति को नियंत्रित कर लिया था और नौ उपद्रवियों को गोली मार दी गई थी.
पाकिस्तान सरकार और सिंध के मुख्यमंत्री अय्यूब खूड़ो ने सिखों पर हमले को मुसलमानों की प्रतिक्रिया बताया और उनके ये बयान अख़बारों में भी प्रकाशित हुए.
केंद्रीय गृह मंत्री फ़ज़लुर रहमान ने एक बयान में कहा कि 7 दिसंबर, 1947 को भारतीय शहर अजमेर में हुए घातक दंगों में लगभग 20 मुसलमानों की मौत हो गई थी और एक हज़ार से अधिक घायल हो गए थे. जब भारत सरकार ने मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान नहीं की, जो सदियों से वहां रह रहे थे, तो वो अपना सब कुछ छोड़ कर सिंध आ गए. उनकी संख्या हज़ारों में थी और उनमें सिखों के प्रति बहुत गुस्सा था.
उनके बयान के अनुसार, दुर्भाग्यवश दिल्ली में हाल ही में दंगे हुए थे. वहां कुछ सिखों ने मुसलमानों को उनके घरों से ज़बरदस्ती बाहर निकालने की कोशिश की थी और जब उन्होंने विरोध किया तो उन्हें मारा गया. इसी तरह, दिल्ली से मुसलमान कराची आए थे. उन्हें सिखों पर गुस्सा था.
मुख्यमंत्री अय्यूब खूड़ो ने भी इसी तरह का बयान दिया था कि, भारत में सिखों ने जो अत्याचार किये हैं, उसकी वजह से मुस्लिम शरणार्थी ख़ुद पर काबू नहीं रख सके.
उनके अनुसार, कांग्रेस के दबाव में, यह निर्णय लिया गया था कि सिखों को भारत पहुंचना चाहिए. यह भी तय किया गया कि उन्हें रात के अंधेरे में शहर लाया जाएगा और वहां से निर्वासित किया जाएगा. यह पहला जत्था नहीं था, इससे पहले भी जो जत्थे आए थे, उन्हें भी भेज दिया गया है. पुलिस को उनके आने की जानकारी नहीं थी.
दूसरी ओर, अय्यूब खूड़ो की मृत्यु के बाद उनके संस्मरणों पर आधारित पुस्तक में, वे कहते हैं कि, जिस दिन दंगे हुए थे. बाद में पता चला कि डीआईजी पोर्ट ट्रस्ट के अध्यक्ष के साथ थे. यह भी पता चला, कि पुलिसकर्मी सिखों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए रेलवे स्टेशन पर गए ही नहीं थे. पुलिस शहर में हो रही घटनाओं के प्रति उदासीन थी या फिर डरी हुई थी. ऐसा लग रहा था, कि जैसे पुलिस ने कोशिश ही नहीं की.
कराची में हुए इन दंगों के दौरान कई मुसलमानों ने अपने पड़ोसियों को शरण भी दी थी. अल-वहीद की एक रिपोर्ट के अनुसार, ओरिएंटल एयरवेज़ के एक मुस्लिम कर्मचारी ने 20 हिंदू महिलाओं को अपने घर में शरण दी. भीड़ उन महिलाओं से गहने छीनना चाहती थी. उस युवक ने उन्हें धमकी दी.
नंदीता भवानी ने अपनी पुस्तक ‘द मेकिंग ऑफ़ एक्साइल सिंधी हिंदू एंड पार्टीशन’ में लिखा है कि कला शाहनी, एक प्रमुख कांग्रेस नेता, जिनके पति शांति भी कांग्रेस से जुड़े हुए थे. उन्हें जब यह पता चला कि रतन तलाव में कांग्रेस कार्यालय पर हमला किया गया है, तो उन्होंने एक मुस्लिम पड़ोसी के पास शरण ली, जिसने उनकी रक्षा के लिए उन्हें बुर्क़ा पहना दिया था.
मोतीलाल जोतवानी के परिवार को मुस्लिम जमींदार अल्लाह दीनो ने आश्रय दिया था. जब दंगाई वहां पहुंचे, तो उन्हें बताया गया कि हिंदू परिवार यहां से पहले ही निकल चुका है.
चीतोमल ने नंदिता भवानी को बताया कि उनके भाई, जो उन दिनों जेल में काम कर रहे थे. उन्होंने लाल तुर्की टोपी पहनकर ख़ुद को दंगाइयों से बचाया और उनके परिवार ने एक मुस्लिम पड़ोसी के घर में शरण ली. जिन्होंने (पड़ोसी ने) दंगाइयों को बताया कि यहां कोई हिंदू परिवार नहीं है.
दंगों के दूसरे दिन, पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना, उनकी बहन फ़ातिमा जिन्ना और सिंध के मुख्यमंत्री अय्यूब खूड़ो ने प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया. दैनिक अल-वहीद की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने विक्टोरिया रोड (अब अब्दुल्लाह हारून रोड), बहार कॉलोनी और बन्दर रोड का दौरा किया और सेंट्रल बन्दर रोड पर लूटी गई दुकानों का निरीक्षण किया.
अल-वाहिद अख़बार ने उनके बयान को तीन शीर्षकों के साथ प्रकाशित किया “दंगों ने मुसलमानों पर बदनुमा दाग़ लगाया है, हिंदुओं को उनकी दुकानें, घर और अन्य संपत्तियां वापस कराई जाएंगी.”
हमीदा खूड़ो की किताब से पता चलता है कि उत्तरी सिंध में हालात बिगड़ गए थे. जिसमें नवाबशाह में सिखों का नरसंहार ख़तरे की घंटी बजा चुका था.
वह लिखती हैं कि 1 सितंबर, 1974 को, रेलवे अधिकारियों ने बताया कि एक 55-अप मिक्सड ट्रेन, जो 11 बजकर 40 मिनट पर नवाबशाह से रवाना हुई. वो 12 बज कर पांच मिनट पर नवाबशाह में शफीबाद के बीच 77 मील पोस्ट पर पटरी से उतर गई.
हथियारबंद भीड़ ने ट्रेन में सवार सिखों पर हमला किया, जिसमें 11 पुरुषों और चार महिलाओं की मौके पर ही मौत हो गई और 17 लोग घायल हो गए. 1 सितंबर की इस घटना ने लूटपाट की अन्य घटनाओं को जन्म दिया और सिंध सरकार को कुछ क्षेत्रों में कर्फ्यू लगाने के लिए मजबूर कर दिया.
कराची में हुए इन दंगों के प्रति पाकिस्तान की तत्कालीन केन्द्रीय और प्रांतीय सरकार का यही कहना था कि दंगा एक प्रतिक्रिया और संयोग था. लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि, यह एक संगठित और योजनाबद्ध ऑपरेशन का परिणाम था.
कम्युनिस्ट नेता और बुद्धिजीवी सूभो ज्ञानचंदानी ने दैनिक ‘आवामी आवाज़’ में एक कॉलम में लिखा था कि वह उन दिनों ट्रेड यूनियन में काम कर रहे थे. एक दर्ज़ी ने उन्हें बताया कि 5 जनवरी की रात लगभग 10 बजे, बंदर रोड (अब एमए जिन्ना रोड) पर मोलेडनो सराय में कट्टरपंथी इकट्ठा हुए थे. बैठक में फैसला किया गया कि, शहर में हंगामा होना चाहिए, ताकि हिंदू यहां से जाएं और उनके घर खाली हो जाएं.
सुभो ज्ञानचंदानी लिखते हैं कि अगले ही दिन, यानी छह जनवरी को इस पर अमल करने का निर्णय लिया गया और दंगे शुरू हुए.
हमीदा खूड़ो अपने पिता अय्यूब खूड़ो की किताब में लिखती हैं कि, प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को रिपोर्ट मिली कि पाकिस्तान में आने वाले मुसलमानों को दिल्ली और अन्य स्थानों पर रोक कर उनका सामान छीना जाता है.
उन्होंने जॉइंट सेक्रेटरी को खूड़ो के पास भेजा और संदेश दिया कि, इस संबंध में एक कानून पारित करें और प्रांतीय स्तर पर ऐसे कदम उठाए जाएं कि सिंध से पलायन करने वाले हिंदू अपने साथ बड़ी रकम न ले जाएं. उन्होंने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए हथियारों, गोला-बारूद, सोना आदि की तस्करी को रोकने के लिए एक अध्यादेश जारी कर दिया.
द डॉन ने 21 अक्टूबर, 1974 को लिखा कि मुख्यमंत्री ने व्यक्तिगत रूप से हैदराबाद स्टेशन पर हिंदुओं के सामान की तलाशी लेने का निरीक्षण किया, जो सिंध से जोधपुर, बंबई और अन्य शहरों की तरफ जा रहे थे. उन्होंने अधिकारियों को नरमी बरतने और व्यक्तिगत सामान ले जाने की अनुमति देने का निर्देश दिया और रेशम और ऊनी कपड़ों की वापसी का आदेश दिया.
कराची के दंगों ने हिंदुओं के लिए और अधिक समस्याएं पैदा कर दीं और उनके लिए अपनी संपत्तियों को बेचना मुश्किल हो गया. सिंधी लघु कथा लेखक ठाकुर चावला लिखते हैं कि, डीजे सिंध कॉलेज के पीछे स्थित उनकी बीस फ्लैट की इमारत का सौदा लूटपाट से पहले छह लाख रुपये में तय हुआ था. लेकिन सरकार ने एक बयान जारी किया कि, छह जनवरी के दंगों के बाद हिंदुओं से कोई भी संपत्ति नहीं ली जा सकती. यदि इस तिथि से पहले कोई सौदा हुआ था, तो कराची के कलेक्टर से एनओसी प्राप्त करना अनिवार्य था.
ठाकुर चावला के अनुसार, सरकार के आदेश के बाद, ख़रीदार ने लेने से मना कर दिया. कलेक्टर कार्यालय में दस हज़ार रुपये की रिश्वत देकर एनओसी प्राप्त करने के बावजूद, ख़रीदार बिल्डिंग लेने के लिए तैयार नहीं था. आख़िरकार उस बिल्डिंग का सौदा छह लाख की बजाये 68 हज़ार में तय किया गया.
कराची में कम्युनिस्ट पार्टी के एक प्रमुख नेता गोबिंद माल्ही, उस टीम का हिस्सा थे, जिसने संगठन की पत्रिका ‘नई दुनिया’ का विमोचन किया था. पाकिस्तान के गठन की घोषणा के बाद उन्होंने शेरवानी और जिन्ना कैप पहन कर 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान का राष्ट्रीय ध्वज हाथ में लेकर रैली निकली थी.
गोबिंद माल्ही अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि वह अपनी प्रिंटिंग प्रेस में बैठे हुए थे, जब एक लंबा आदमी आया और कहा, “पचास हज़ार रुपये लो और ये प्रेस मेरे हवाले करो. यहां से चले जाओ, यह अब हमारा देश है.”
गोबिंद माल्ही लिखते हैं कि, उन्होंने(गोबिंद माल्ही ने) कहा कि, यह उनका भी देश है. जिस पर उस व्यक्ति ने पेपरवेट उठाया और धमकी देते हुए कहा कि, तीन दिन के बाद अपने लोगों के साथ आऊंगा, क़ब्ज़ा ले लूंगा. अगर तुम नहीं दोगे तो सबक़ सिखाऊंगा, जिसके बाद वह चला गया. उन्होंने उसी दिन टाटा कंपनी की फ़्लाइट ली और अहमदाबाद चले गए.
गोबिंद माल्ही लिखते हैं कि, कुछ दिनों के बाद वह माता-पिता के मना करने के बावजूद कराची लौट आए. लेकिन अब यह शहर बदल गया था. लड़ाई, झगड़े और दंगों ने इसका नक़्शा बदल दिया था. कुछ दिनों में ही वो अपना देश छोड़ कर हमेशा के लिए चले गए.
सिंध के मुख्यमंत्री अय्यूब खूड़ो ने घोषणा की कि हिंदुओं के घरों पर जबरन कब्ज़ा करने और लूटने वाले मुसलमानों को कड़ी सज़ा देने का फैसला किया गया है. अल-वहीद में प्रकाशित होने वाले उनके बयान के अनुसार, सरकार हिंदुओं को उनके घर और दुकानें वापिस दिलाएगी. जिन बदमाशों ने दंगों में शामिल हो कर सिंध और पाकिस्तान को बदनाम किया है, उन्हें सिंध से निकाल कर, जेलों में बंद किया जाएगा.
कराची के मजिस्ट्रेट की तरफ से बताया गया था कि, एक हज़ार से अधिक संदिग्धों को गिरफ़्तार किया गया और डेढ़ हज़ार को कर्फ्यू का उल्लंघन करने के लिए हिरासत में लिया गया.
सिविल एंड मिलिट्री गजट कराची के संपादक एमएसएम शर्मा ने अपने संस्मरण, ‘पीप्स इन टू पाकिस्तान’ में लिखा है कि, कुछ दिनों बाद, 12 रबी-उल-अव्वल,(अरबी महीना) पाकिस्तानी मंत्रियों ने खूड़ो पर दबाव डाला कि, केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों को रिहा किया जाये. जिन पर दंगों में शामिल होने लूटपाट करने और महिलाओं के बलात्कार करने के आरोप थे. खूड़ो ने उन्हें रिहा कर दिया, हालांकि लूट का माल सचिवालय के कर्मचारियों के घरों से भी बरामद किया गया था.
हमीदा खूड़ो लिखती हैं कि, दंगे ख़त्म होने के बाद नौ या दस जनवरी को अय्यूब खूड़ो किसी काम के लिए प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान के पास गए, तो उन्होंने कटाक्ष किया कि तुम कैसे मुसलमान हो. जब भारत में मुसलमानों का नरसंहार हो रहा है, तो आप यहां हिंदुओं को सुरक्षा उपलब्ध करा रहे हैं. क्या आपको शर्म नहीं आती? खूड़ो ने जवाब दिया कि बिना किसी भेदभाव के नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना उनकी ज़िम्मेदारी है.
(लेखक बीबीसी उर्दू, के कराची स्थित संवाददाता हैं)
साभार- https://www.bbc.com/hindi/ से