निराशा के तिमिर को भेद करके,
समंदर आग का भी पार करके,
संजोकर धैर्य डर को बाँध करके,
हिमालय शिखर भी फाँद करके,
“जयहिंद” घोष जिसने किया था,
“खून दो आजादी लो” नारा दिया था
निराभिमानी सदय
निरमल ह्रदय का ।
धन्य था वरेण्य “सुभाष”
जीवन्त नर था ।। (1)
जनम का रस जी भर पिया जो
रंजोगम भी हँस कर जिया जो
वतन परस्त था अंततक जो
देश हित लड़ा मृत्यु पर्यन्त तक जो
आजादी का पुजारी
हमराही विजय का ।
धन्य था वरेण्य “सुभाष”
जीवंत नर था ।। (2)
जीत ले जंग को उसे
नहीं विजेता कहूँगा मैं।
दिलों को जीत लेता जो
उसे “नेताजी” कहूँगा मैं ।।
जनम का अंत “विनोदम्”
निश्चित ही मरण है।
अमर है “सुभाष” मित्रो
व्यर्थ मृत्यु प्रकरण है।।
न जनमा था न जन्मेगा
विरल सुत भारती का ।
धन्य था वरेण्य “सुभाष”
जीवंत नर था ।।(3)