लोक में कबीर और तुलसीदास के सत्संग (एनकाउंटर) की अनेक कथाएँ व्याप्त हैं वामदृष्टि मसिजीवी चाहे जो भी कहें। मसलन, एक कथा सबने सुनी है कि भूजा भूजने वाली भरभूज से कबीर भूजा मांगते हैं कि ‘ऐ मेरे बाप की मेहर’ भूजा दे और स्त्री उनको चइला ले के दौड़ा लेती है दूसरी तरफ तुलसीदास कहते हैं कि ‘माताजी’ भूजा देने की कृपा करें तुम्हारे इस ब्राह्मण पुत्र को भूख लगी है तिस पर उन्हें सतन्जा भूजा चटनी गुड़ के साथ मिलता है। निश्चित ही यह रूपक भाषा की मारकता और संस्कार को प्रदर्शित करने के लिए प्रयोग हुआ
ऐसा ही एक मजेदार दृष्टान्त हमें आदरणीय रवींद्र उपाध्याय जी की वाल पर मिला। इतना सुंदर लिखा है कि साझा करने से न रोक पाया। प्रस्तुत कथ्य एक बहुत पुराने संशय को भी इंगित करता है। दाशरथि राम और परब्रह्म राम के बीच के संशय को। खैर, संशय-विहग उड़ावन हारी कथा पढ़िए तुलसीदास द्वारा कबीर की फ़ज़ीहत
दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम को मरम है आना। -कबीरदास (तीनों लोकों में दशरथ के पुत्र को राम कहा जाता है लेकिन राम नाम का असली मर्म ‘आना’ अर्थात् अन्य या अलग या भिन्न है।)
श्री होसिला प्रसाद मिश्र जी ने कबीर के इस उद्धरण के साथ गोस्वामी जी की चौपाई ‘बन्दउँ नाम राम रघुबर को/हेतु कृसानु भानु हिमकर को।’ के अर्थों का सामंजस्य बैठाते हुए यह लिखा कि वास्तविक राम वह हैं जो सबके हृदय में बसते हैं अर्थात् जो निर्गुण ब्रह्म स्वरूप हैं, दशरथ पुत्र राम नहीं। मैंने मिश्रा जी की पोस्ट पर लिखा कि गोस्वामी जी को कबीरदास की यह उक्ति बुरी लगी थी और उन्होंने श्री रामचरितमानस में इसी बात पर कबीर को खूब गरियाया था। मैंने सोचा क्यों न यह मनोरंजक प्रसंग अलग से पोस्ट कर दूँ? निवेदन है कि कबीरदास जी द्वारा प्रयोग में लाए गए ‘आना’ और ‘दसरथ सुत’ को याद रखिएगा। बालकाण्ड में शिव जी पार्वती से कहते हैं-
“एक बात नहिं मोहि सुहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी। तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना। कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच। पाखण्डी हरिपद विमुख जानहिं झूठ न साँच।(११४)”
(शिवजी ने कहा-भवानी! आपकी एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि आप ने मोह के वशीभूत होकर कहा।आपने कैसे राम को ‘आना’ अर्थात् कोई अन्य कह दिया जिसे केवल श्रुतियाँ गाती हैं और जिसका मुनिगण ध्यान करते हैं? ऐसा तो अधम मनुष्य कहते हैं जिन्हें मोह रूपी पिशाच ने ग्रस रखा है।ऐसा कहने वाले पाखण्डी हैं, भगवान के चरणों से विमुख हैं और झूठ सच कुछ नहीं जानते।)इसके बाद तो राम को ‘आना’ कहने वालों के लिए तुलसीदास इस प्रकार निन्दित करते हैं-
अग्य अकोबिद अंध अभागी।काई विषय मुकुर मन लागी। लंपट कपटी कुटिल विसेषी।सपनेहुँ संत सभा नहिं देखी। कहहिं ते बेद असंमत बानी।जिन्हके सूझ लाभ नहिं हानी। मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना।राम रूप देखहिं किमि दीना। जिन्हके अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका। आदि आदि।
इसके बाद गोस्वामी जी स्पष्ट कर देते हैं कि-
“जिमि गावहिं बिधि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान। सोई दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान।(११८)”
[जिन्हें वेद, ब्रह्मा और ज्ञानीजन जपते हैं और मुनिगण ध्यान करते हैं वे भगवान् ही भक्तों के लिए दशरथ-पुत्र हैं, (अन्य कोई नहीं)।] तुलसी ने कबीर का नाम तो नहीं लिया लेकिन उनके द्वारा प्रयुक्त शब्दों ‘आना’ और ‘दसरथ सुत’ को पकड़ कर उन्हें जी भर कर कोसा है।कबीर तो पूर्ववर्ती थे, वे कैसे जवाब दे पाते और चेलों में वह ताक़त थी नहीं जो तुलसी को जवाब दे पाते।
(डॉ. मधुसूदन उपाध्याय, लेखक भारतीय संस्कृति, इतिहास, कला, धर्म एवं आध्यात्म के गहन जानकार हैं। )
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