Sunday, November 24, 2024
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स्वस्तिक चिह्न ( ओम् का प्राचीनतम रूप )

भारत की धार्मिक परम्परा में स्वस्तिक चिह्न का अङ्कन अत्यन्त प्राचीनकाल से चला आ रहा है । भारत के प्राचीन सिक्कों , मोहरों , बर्तनों और भवनों पर यह चिह्न बहुशः और बहुधा पाया जाता है। भारत के प्राचीनतम ऐतिहासिक स्थल मोहनजोदड़ो , हड़प्पा और लोथल की खुदाइयों में वामावर्त्त स्वस्तिक चिह्न से युक्त अनेक मोहरें मिली हैं ।

इनसे अतिरिक्त भारत की प्राचीन कार्षापण मुद्राएं , ढली हुई ताम्र मुद्रा , अयोध्या , अर्जुनायनगण , एरण , काड , यौधेय , कुणिन्दगण , कौशाम्बी , तक्षशिला , मथुरा , उज्जयिनी , अहिच्छत्रा तथा अगरोहा की मुद्रा , प्राचीनमूर्ति , बर्त्तन , मणके , पूजापात्र ( यज्ञकुण्ड ) , चम्मच , आभूषण और शस्त्रास्त्र पर भी स्वस्तिक चिह्न बने हुए पाये जाते हैं । मौर्य एवं शुंगकालीन प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री पर स्वस्तिक चिह्न बहुलता से देखे गये हैं । जापान से प्राप्त एक बुद्धमूर्ति के वक्षःस्थल पर स्वस्तिक चिह्न चित्रित है । वर्तमान में भी भारतीय जनजीवन में इस चिह्न का प्रचलन सर्वत्र दिखाई देता है । घर , मन्दिर , मोटरगाड़ी आदि अनेक प्रकार के वाहनों पर इस चिह्न को आप प्रतिदिन देखते हैं । जर्मनी देश के शासक हिटलर ने भी इसी चिह्न को अपनाया था ।

भारत से बाहर भी चीन , जापान , कोरिया , तिब्बत , बेबिलोनिया , आस्ट्रिया , चाल्डिया , पर्सिया , फिनीसिया , आर्मीनिया , लिकोनिया , यूनान , मिश्र , साइप्रस , इटली , आयरलैण्ड , जर्मनी , बेल्जियम , अमेरिका , ब्राजील , मैक्सिको , अफ्रीका , वेनेजुएला , असीरिया , मैसोपोटामिया , रूस , स्विटजरलैण्ड , फ्रांस , पेरू , कोलम्बिया आदि देशों के प्राचीन अवशेषों पर स्वस्तिक चिह्न अनेक रूपों में बना मिला है ।

अब विचारणीय प्रश्न यह है कि इतने विस्तृत भूभाग में और बहुत अधिक मात्रा में पाये जाने वाले इस स्वस्तिक चिह्न का वास्तविक स्वरूप क्या है ?

इस विषय में पर्याप्त ऊहापोह , विचारविमर्श , तर्कवितर्क तथा गहन अन्वेषण के पश्चात् मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूं कि यह स्वस्तिक चिह्न भारत की ज्ञात और प्राचीन लिपि ब्राह्मीलिपि में लिखे दो ‘ ओम् ‘ पदों का समूह है , जिसे कलात्मक ढंग से लिखा गया है । इस चिह्न का वैशिष्ट्य यह है कि इसे चारों दिशाओं से ‘ ओम् ‘ पढ़ा जा सकता है । प्राचीन भारत की चौंसठ लिपियों में से एक ब्राह्मी लिपि भी है । इस लिपि में ‘ ओम् ‘ अथवा ‘ ओं ‘ को लिखने का रूप इस प्रकार था |

ओ । ४ = म् । ( • ) अनुस्वार । इनको जोड़कर यह रूप बनता है । इसमें 2 = ओ और ४ = म् तथा ( + ) अनुस्वार को मिलाकर दिखाया गया है । इसी ओम् पद को द्वित्व = दोबार करके कलात्मक ढंग से लिखा जाये तो इसका रूप निम्नलिखित प्रकार से होगा चित्र नम्बर – 1 देखें

संख्या १ के प्रकार वाला ओम् आर्जुनायनगण और उज्जियनी की मुद्राओं पर पाया जाता है । संख्या २ का प्रकारवाला ओं ( स्वस्तिक ) तथा फु यह परिवर्तित दक्षिणावर्तीरूप आजकल सारे भारतवर्ष में देखने को मिलता है । सहस्रों वर्षों के कालान्तर में लिपि की अज्ञानतावश लेखकों ने इसे वामावर्त्त से दक्षिणावर्त्त में परिवर्तित कर दिया । इसे कलाकार की सौन्दर्ययुक्त ऊहा भी कहा जा सकता है । पुराकाल के ९ ५ % स्वस्तिक चिह्न वामावर्त्ती ही मिलते हैं । दक्षिणावर्त्ती स्वस्तिक के उदाहरण स्वल्प ही उपलब्ध हुये हैं ।

जैसे – जैसे सामान्य लिपि के लिखने में परिवर्तन होता गया , वैसे – वैसे अन्य प्रचलित सर्वसाधारण लेखन के रूप बदलते गये , परन्तु जनमानस में गहरे पैठे हुए ओम् जैसे पद ज्यों के त्यों बने रहे । इन्हें धार्मिकता की पुट दे दी गई और ये सहस्रों वर्षों से उसी प्राचीन रूप के अनुसार चलते आ रहे हैं । जैसे आजकल भी हजार वर्ष पहले का यह ऊँ ( ओम् ) प्रचलित है । विभिन्न कालों में ओम् का रुप देखें चित्र नम्बर दो में, सभी राजाओं के समय में ओम् का स्वरूप दर्शाया गया है।

आजकल का यह ऊँ ( ओम् ) भी इन्हीं का परिवर्तित रूप है । इसे कुछ अज्ञानी लोग पौराणिक ओम् कहते हैं तथा ‘ ओ ३ म् ‘ इस ओम् को आर्यसामाजिक ओम् मानते हैं । यह लिपि का भेद है । सामान्य लोग अभी तक हजार वर्ष पुराने ऊँ ( ओम् ) को ही लिखते आ रहे हैं , जबकि ओ ३ म् अथवा ओम् लिखने वालों ने इसी ऊँ को वर्तमानकालीन प्रचलित देवनागरी लिपि में लिख दिया है । जैसे अब विभिन्न लिपियों में ओम् इस प्रकार लिखते हैं। देखें चित्र नम्बर :-3

इस प्रकार ऊँ और ओम् में कालक्रमवशात् लिपिमात्र का भेद है , मतमतान्तर जनित भेद नहीं है । जैसे इस वामावर्ती ओम् या स्वस्तिक के रूप को अज्ञानतावश बदलकर यह दक्षिणवत्त रूप दे दिया गया तथा कहीं कहीं इसके अनुस्वार को भी हटा दिया गया , उसी प्रकार आजकल कहीं – कहीं गाड़ी , घर – द्वार पर दोनों ओर लिखते समय ॐ इस रूप में भी लिख देते हैं । यही रूप स्वस्तिक चिह्नरूपी ओम् को भी दोनों प्रकार से लिखने में अपना लिया ।

कुछ लोगों की यह भ्रान्तधारणा है कि स्वस्तिक चिह्न को इस प्रकार दक्षिणावर्त्ती रूप में ही लिखना चाहिए , क्योंकि यह धार्मिक चिह्न है , इसे दाहिने हाथ की ओर मुख किये हुए होना चाहिए , वामावर्त्ती अशुभ होता है इत्यादि । इस प्रकार के विचारवाले लोगों की सेवा में निवेदन है कि यह वाम – दक्षिण का भेद कोरी कल्पना है , इसका सम्बन्ध शुभाशुभ रूप से नहीं है । लिखावट में भी वामावर्त रूप ही आर्यशैली की लिपियों में अपनाया जाता है । दाहिने हाथ की ओर से आरम्भ करके बायें हाथ की ओर तो असुरदेशों की लिपि लिखी जाती है , जैसे खरोष्ठी उर्दू , अरबी , फारसी तथा सिन्धी आदि । आर्य लोगों की लिपि पुराकाल से ही बायें से आरम्भ करके दाईं ओर को ही लिखी जाती रही है ।

इस स्वस्तिक ओम् का इतना व्यापक प्रचार हुआ कि शेरशाह सूरी , इसलामशाहसूरी , इबराहिमशाह सूरी तथा एक अन्य मुगल शासक ने भी अपनी मुद्राओं पर इस चिह्न को चिह्नित किया था । जोधपुर के महाराज जसवन्तसिंह के समकालीन पाली के शासक हेमराज की मुद्राओं में भी यह चिह्न पाया जाता है । प्राचीन भारत के अनेक शिलालेख , ताम्रपत्र तथा पाण्डुलिपियों के आरम्भ में भी ‘ ओम् स्वस्ति ‘ पद लिखा रहता है , तथा भारतीय संस्कारों में यज्ञ के पश्चात् यजमान को तीन बार ‘ ओम् स्वस्ति , ओम् स्वस्ति , ओम् स्वस्ति ‘ कहकर आशीर्वाद देने की परम्परा प्रचलित है । ऐसे स्थलों में ओम् को कल्याणकर्त्ता के रूप में मानकर उससे कल्याण की कामना की जाती है । इसमें ओम् और स्वस्ति परस्पर इतने घुलमिल गये हैं कि एकत्व – द्वित्व के भेद का आभास ही नहीं मिल पाता । इसलिए धार्मिक कृत्यों में ‘ ओं स्वस्ति ‘ का अभिप्राय कल्याणकारक ओम् परमात्मा का स्मरण करना है अथवा ओम् परमात्मा हमारा कल्याण ( स्वस्ति ) करे , यही भाव लिया जाता है ।

महर्षि यास्काचार्य निरुक्त में लिखते हैं —-
स्वस्ति – इत्यविनाशिनाम् । अस्तिरभिपूजितः स्वस्तीति । – निरुक्त ३.२०

स्वस्ति यह अविनाशी का नाम है । जगत् में तीन पदार्थ अविनाशी होते हैं – प्रकृति , जीव , ईश्वर । प्रकृति जड़ होने से जीव का कल्याण स्वयं नहीं कर सकती । जीव स्वयं अपने लिये कल्याण की कामना करने वाला है , वह कल्याण स्वरूप नहीं है । अप्राप्यपदार्थ अन्य से ही लिया जाता है , अतः पारिशेष्य न्याय से साक्षात् कल्याण करनेवाला और स्वयं कल्याणस्वरूप ईश्वर ही सिद्ध होता है , अतः एव स्वस्ति नाम ईश्वर का = ओम् का ही है । इसलिए प्राचीनकाल में प्रत्येक शुभकार्य के आरम्भ में स्वस्तिद स्वस्ति – कल्याण के देने वाले परमेश्वर का स्मरण मौखिक तथा लिखित रूप में किया करते थे । वही लिखित ओम् स्वस्ति शनैः शनैः धार्मिक चिह्न के रूप में स्मरण रह गया और प्रचलित लिपि के रूप में विस्मृत होता चला गया । ईश्वर हमारा कल्याण करता है , हमें सुखी करता है , स्वस्थ रखता है , इसी प्रकार के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए यह ओम् पद स्वस्तिक चिह्न के रूप में परिवर्तित हो गया । यह ईश्वर के नाम का प्रतीक है । भारतवर्ष में आजकल स्वस्तिक के प्रायः पाँच रूप प्रचलित हैं । देखे चित्र नम्बर :-4

यथा भारत के प्राचीन मुद्रांक ( द्वितीय भाग ) भारतीय संस्कृति और सभ्यता ५००० वर्ष पूर्व तक सारे विश्व में फैली हुई थी , इसलिए अनेक अन्य पुरावशेषों के साथ स्वस्तिक चिह्न भी सारे संसार में अनेक रूपों में पाया गया है तथा अनेक स्थानों पर अद्यावधि भी इसका प्रचलन दृष्टिगोचर होता है । विश्व में स्वस्तिक चिह्न के विभिन्न रूप इस प्रकार से मिले हैं। देखें चित्र नम्बर :- 5

इन चिह्नों में ० वृत्त ओम् के अनुस्वार ( ) अथवा मकार ( म् ) का प्रतीक है ।
इस स्वस्तिक चिह्न का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह है कि इसे चारों ओर से देखने पर भी यह प्राचीन ब्राह्मी लिपि में लिखा ‘ ओम् ‘ ही दिखाई देता है । यह ईश्वर की सर्वव्यापकता को सिद्ध करने का सुन्दर और अनुपम प्रतीक है ।

गान्धार शैली के एक प्रस्तर बने बुद्ध के चरणतल की प्रत्येक अंगुली के अग्रभाग पर यह स्वस्तिक बना हुआ है तथा ऐड़ी की ओर के तल पर भाग में यह चिह्न बना है । यह पुरावशेष सिक्रेइ ( कन्धार ) से प्राप्त हुआ है ।

उपर्युक्त संक्षिप्त वर्णन से यह सुतरां सिद्ध है कि स्वस्तिकरूपी ओम् का चिह्न विश्व के विस्तृत क्षेत्र में प्रचलित रहा है , और भारत में तो आज भी सर्वत्र इसका प्रयोग हो रहा है , परन्तु आजकल इसके लिखने और प्रयोग करनेवाले इस रहस्य से सर्वथा ही अनभिज्ञ हैं कि यह चिह्न कभी ओम् का प्राचीनतम रूप रहा है ।

इसी प्रकार प्राचीन मुद्राओं और मुद्रांकों ( मोहरों ) पर अन्य भी चिह्न पाये जाते हैं जो किसी न किसी के प्रतीक रहे हैं । इस ग्रंथ में प्रकाशित अनेक मुद्रांकों पर इसी प्रकार के चिह्न बने हुए हैं । यदि पुरावशेषों में रुचि रखने वाले विद्वान् ऐसे चिह्नों के विषय में भी अन्वेषण करेंगे तो प्राचीन मुद्रा और मोहरों पर बने हुए सभी चिह्नों का रहस्योद्घाटन हो सकता है ।

लेखक :- आचार्य विरजानन्द दैवकरणि
पुस्तक :- भारत के प्राचीन मुद्रांक

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