मूल रूप में अंग्रेजी भाषा में और अंग्रेजों के प्रति गहरे आदर और श्रद्धा भाव रखने वाले लोगों द्वारा स्वीकार करने और उसे अंगीकृत करने के कारण शेष भारतीयजन सामान्यतः आधारभूत समकालीन राजनैतिक मान्यताओं और विधिक आधारों से अपरिचित ही हैं। शिक्षा पर शासकीय नियंत्रण के कारण संविधान तथा कानूनों के अनुवाद में भी भारतीय भाषाओं में अधिक परिश्रम नहीं किया गया है अपितु पादरियों द्वारा सुझाये गये (हिन्दी आदि भाषाओं में) पदों को जस का तस स्वीकार कर लिया गया है। इससे व्यापक अज्ञान है। सर्वप्रथम तो ‘संविधान’ शब्द ही असम्यक है। सम्यक शब्द होता – ‘शासन विधान’। उससे हिन्दी वालों को समझने में आसानी होती। संविधान केवल शासन संबंधी आधारभूत विधान है।
उसमें राष्ट्र के विषय में एक शब्द नहीं है और हिन्दू समाज और भारतीय समाज के विषय में भी कुछ भी नहीं स्पष्ट किया गया है। केवल लोग हैं, नागरिक हैं और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अल्पसंख्यक लोग हैं एवं अब उसमें ओबीसी भी जोड़ दिये गये हैं। परन्तु शेष भारतीय मनुष्यों के लिये कोई श्रेणी निर्धारित नहीं है। उन्हें सामान्य कहकर छुट्टी पा ली गई है। परन्तु सामान्य के लिये कोई विशेष अधिकार या व्यवस्था अलग से नहीं दी गई है, जैसी कि उक्त श्रेणियों के लिये दी गई है। भारतीय समाज से भारत के शासन का क्या संबंध है, यह भी कहीं स्पष्ट नहीं है और भारत की अपनी कोई संस्कृति है, जिसका विशेष संरक्षण भारत शासन का कर्तव्य है, यह कहीं भी नहीं लिखा है। इसके स्थान पर भारत की अपनी संस्कृति और इस्लाम तथा ईसाइयत आदि को समान रूप से उल्लिखित किया गया है। जिससे स्पष्ट है कि प्राचीन संस्कृति भारत शासन के लिये केवल उतना ही अर्थ रखती है, जितना उसके हजारों वर्षों बाद शासक बने समूहों की संस्कृति। यह विश्व में अपवाद स्थिति है। (क्रमशः)
संविधान सभा का गठन वाइसराय द्वारा किया गया। इस गठन का आधार विभिन्न प्रांतीय विधानसभाओं द्वारा संविधान सभा के लिये चुने गये लोग थे और साथ ही इनमें वाइसराय के द्वारा अपनी ओर से नामजद लोग भी थे। इंग्लैंड में आज तक संविधान नहीं है। अतः विधिक और नैतिक रूप से उसे यह कहने का कोई अधिकार ही नहीं था कि संविधान बनने के बाद ही हम यहाँ से जायेंगे। परन्तु विश्व भर में राजनीति केवल नीति अथवा विधि के अनुसार नहीं चलती। मुख्यतः वह शासक समूह की शक्ति और आंकाक्षा के अनुसार चलती है। उसे ही नीति कह दिया जाता है और उसे ही विधि का स्वरूप भी दे दिया जाता है। अतः शासक समूह की बुद्धि, शक्ति और आकांक्षा ही मुख्य है। शेष सब बातें उसका अनुसरण करती हैं। यह बातें विश्व के सभी प्रबुद्ध जन जानते हैं। परन्तु भारत में गैर अंग्रेजीभाषी शिक्षित समूह नहीं जानते। नहीं जानते तो इसका अर्थ है कि भारत के प्रशासक और शासक तथा सभी राजनैतिक दलों के मुख्य लोग यह नहीं चाहते कि लोग यह सब जानें और इस विषय में वे स्पष्ट दुराव रखते हैं।
द्वितीय महायुद्ध के बाद तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के भय से और भारत की सेनाओं में अपने प्रति निष्ठा शिथिल देखकर तथा स्वयं इंग्लैंड में लेबर पार्टी द्वारा उपनिवेशों की समाप्ति की घोषणा के कारण और संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट द्वारा द्वितीय महायुद्ध में इंग्लैंड और फ्रांस के पक्ष में युद्ध में उतरने की शर्त ही यह रखने के कारण कि इंग्लैंड और फ्रांस आदि को विश्व भर से अपने साम्राज्य हटाने होंगे, यह वचन लेकर ही उसने सहयोग किया था और तब इंग्लैंड आदि विजयी हुये थे इन कारणों से अंग्रेजों का जाना सुनिश्चित हो गया और उन्हें लगा कि यद्यपि हम अपने भरोसेमंद अनुयायियों (जिन्हें वह मित्र कहते थे) को पावर का ट्रांसफर करते तजाये तो भी कहीं बाद में भारत के लोग उनको हटा न दे और हमारे विरूद्ध न हो जायें इसलिये अपने कृपापात्र लोगों को पावर ट्रांसफर करने के पहले एक लिखित करार आवश्यक है। इसलिये उन्होंने लिखित संविधान पर जोर दिया। (क्रमशः)
(लेखक चिंतक एवँ स्तंभकार हैं और प्राचीन भारतीय विषयों से लेकिर राजनीतिक विषयों पर इनकी गहरी पकड़ है)