देवी सीता का चरित्र हर वैदिक धर्मी ही नहीं, समस्त विश्व की स्त्रियों के लिये आवश्यक है।सीता जी में असाधारण पातिव्रत, त्याग,शील,निर्भयता,शांति,क्षमा,सौहार्द,सहनशीलता,धर्मपरायणता,नम्रता,संयम,सेवा, सदाचार,व्यवहार-पटुता,साहस,शौर्य आदि गुण एक साथ संसार में किसी दूसरी स्त्री में एक साथ मिलना दुष्कर है।
१:- सेवा के लिये प्रेमाग्रह:-
वनगमन के समय रामजी सीता से मिलने गये और उनसे अुने वनगमन की बात कही तो सीताजी ने पति के मार्ग का अनुसरण करने का ढृढ निश्चय कर लिया।
वे कहती हैं;-
न पिता नात्मजो वा ss त्मा न माता न सखीजनः।
इह प्रेत्य च नारीणां पतिरेको गतिः सदा।।
यदि त्वं प्रस्थितो दुर्गं वनमद्यैव राघव।
अग्रतस्ते गमिष्यामि मृद्नन्ती कुशकण्टकान्।।
‘स्त्रियों के लिये परलोक में न पिता,न पुत्र,न भाई-बंधु,न माता और न सखी-सहेलियां ही साथी होती हैं। स्त्रियों के लिये तो एक पति ही सर्वदा उनका सर्वस्व होता है।’
‘हे राम! यदि आप दुर्गम वन में प्रस्थान करेंगे तो मैं कुश-कंटकों को रौंदती हुई आपके आगे चलूंगी।
(गीताप्रेस अयो. २७/६-७)(जग.टीका २३/४-५)
शुश्रूषामाणा ते नित्यं नियता ब्रह्मचारिणी।
सह रंस्ये त्वया वीर वनेषु मधुगंधिषु।।(जग.टीका १३/७)
हे वीर! मैं नित्य आपकी सेवा करती हुई तथा नियमपूर्वक ब्रह्नचर्य धारण करती हुई,मैं मधु तथा सौरभ युक्त वनों में ईप के साथ विहार करूंगी।’
स्वर्गेsपि च विना वासो भविता यदि राघव।
त्वया मम नरव्याघ्र नाहं तमपि रोचये।।
हे नरकेसरी राम!आपके बिना मुझे स्वर्ग में भी रहना पसंद नहीं।(जग.टीका २३/१३)
श्रीराम ने जब वन के कष्ट गिनाये तो वे भी सीताजी के लिसे धूल समान प्रतीत हुये एवं अंत में उनके प्रेम की जीत हुई; रामजी उनको वन में ले जाने के लिये मान गये ।
सीता जी के वचन उल्लेखनीय हैं:-
यदि मां दुःखितामेवं वनं नेतृं न चेच्छसि।
विषमग्निं जलं वाहमास्थास्ये मृत्युकारणात्।।१।।
पत्रं मूलं फलं यत्त्वलपं वा यदि वा बहु।
दास्यसि स्वयाहृत्य तन्मेsमृतरसोपमम्।।२।।
न मातुर्न पितुस्त्र स्मरिष्यामि न वेश्मनः।
आर्तवान्युपभुंजाना पुष्णाणि च फलानि च।।३।।
यस्त्वया सह स स्वर्गो निरयो यस्त्वया विना।
इति जानन्परां प्रीति गच्छ राम मया सह।।४।।
‘यदि मुझ दुखिया को आप वन में न ले गये तो मैं विष खाकर,अग्नि में जलकर अथवा पानी में डूबकर अपने प्राण दे दूंगी।’
‘जो भी थोड़े या अधिक पत्र,मूल,फल आप स्वयं मुझे लाकर दिया करेंगे वे मेरे लिये अमृत के समान होंगे।’
‘वन में ऋतु-फलों और ऋतु-पुष्णों का उपभोग करती हुई मैं माता-पिता तथा राजभवन का स्मरण नहीं करूंगी।’
‘आपके साथ रहने में मुझे सर्वत्र स्वर्ग है और आपके बिना सर्वत्र नरक है।यही सोचकर आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे अपने साथ वन में लें चलें।’
(जग.टीका अयोध्याकांड २५/६,१६,१७,१८)
अधिक जानकारी के लिये जगदीश्वरानंदजी की टाका सर्ग २३,२५ देखें।
देवी सीता ने पतिप्रेम और पति सेवा के लिये राजभवन कीे सुखों को भी तिलांजलि दे दी। जबकि विश्वामित्र जी ने उनको रानी बनकर राज करने तक की छूट दी थी।
२:-सहिष्णुता:-
सीताजी ने वन में रहकर अनेक कष्टों को सहन किया।यह उनकी सहनशीलता का बहुत बड़ा उदाहरण है।इसके सिवा एक उदाहरण और है।जब वनगमन का समय था तब कैकेयी ने सीता को वन योग्य कपड़े पहने को दिये तो सब दुखी हो उठे। रनिवास की स्त्रियां एवं राजा दशरथ के दुःख का कहना ही क्या। वसिष्ठ जी जैसे तपोनिष्ठ महर्षि का मन भी क्षुब्ध हो उठा और उन्होंने कठोर शब्दों में कैकेयी की भर्त्सना की।उन्होंने सीता को वल्कल वस्त्र पहनने से मना किया परंतु इस घटना से भी उनके मन में कोई विकार उत्पन्न न हुआ।जब वसिष्ठ जी तक ने इतनी कड़ी आलोचना की तब देवी सीता ने अपने और अपने प्रति किये व्यवहार का बुरा न माना।
सीताजी ने वसिष्ठ के कहने पर भी अपना विचार न बदला। ऋषि ने उनको सुंदर वस्त्राभूषण धारण करने को कहा पर उन्होंने वो चीर न उतारा-
महर्षि वाल्मीकि ने इस अवसर पर कहा-
तस्मिंस्तथा जल्पति विप्रमुख्ये गुरौ नृपस्याप्रतिमप्रभावे।
नैव स्म सीता विनिवृत्तभावा प्रियस्य भर्तुः प्रतिकारकामा।।
( गीताप्रेस ३७/३७)( जग.टीका. अयोध्याकांड ३१/२४)
‘राजसभा में राजगुरु ऋषिशिरोमणि वसिष्ठ जी ने इस प्रकार कहते रहने पर भी पति का अनुकरण करने की इच्छा रखनेवाली अनुपम प्रभावशाली सीताजी ने अपना विचार नहीं बदला और वो चीर न उतारा’
सीता ने मिसाल पेश की कि यदि सास या कोई बड़ी-बूढी औरत उनके प्रतिकूल व्यवहार करे तो खुशी से सहन करना चाहिये एवं पति के अन्यत्र जाने पर श्रृंगारादि का मोह त्याग करना चाहिये।
३:- वन में सीताजी की पति सेवा
वन में पति की सेवा करने में सीता जी के बाग-बगीचे,महल,राजपाट ,माता पिता और दास-दासियों की कुछ भी स्मृति नहीं होती।वे निरंतर रामजी की सेवा में तत्पर रहतीं तथा उनके आज्ञानुसार अर्घ्य,पाद्य आदि से वनवासी ऋषियों का यथायोग्य सत्कार करतीं।
चित्रकूट से पंचवटी जाते समय जब रामजी अत्रि मुनि के आश्रम में ठहरे तब देवी अनसू़या ने उनके सुंदर पातिव्रत धर्म का उपदेश दिया। तब उनका दिया यह उत्तर उल्लेखनीय है:-
यद्यप्येष भवेद्भर्ता अनार्यो वृत्तिवर्जितः।
अद्वैधमत्र वर्तव्यं तथाप्येष मया भवेत्।।
किं पुनर्यो गुणश्लाघ्यः सानुमक्रोशो जितेंद्रियः।
स्थिरानुरागो धर्मात्मा माृतवत्पितृवत्प्रियः।।
( अयोध्याकांड ११८/३-४)( जग.टीका ८२/१५,१६)
‘यदि मेरे पतिदेव अनार्य और जीविकारहित होते,तब भी मैं बिना किसी दुविधा के इनकी सेवा करती।फिर जब ये अपने गुणों से सबके प्रशंसा पात्र बने हुये हैं तथा दयालु,जितेंद्रिय, धर्मात्मा,स्थायी प्रेम करने वाले और माता पिता की भांति हितैषी हैं,तब इनकी सेवा के विषय में कहना ही क्या है?’
इससे सिद्ध है कि सीताजी का पातिव्रत धर्म कितना महान था।
४:- ऋषिपत्नी अनसू़या द्वारा प्रशंसा एवं अंगराग,आभूषण आदि दान करना-
अनसू़या जी ने सीता जी से पूछा कि-“मैं तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूं? तब सीता जी ने कहा-
कृतमित्यब्रवीत् सीता तपोबलसमन्विताम्।।
( गीता प्रेस अयोध्याकांड ११८/१६)
‘आपने अपने वचनों द्वारा ही मेरा सारा प्रिय कार्य कर दिया,अब और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।’
सा त्वमेवमुक्ता धर्मज्ञा तया प्रीततराभवत्।
सफलं च प्रहर्षं ते हंत सीते करोम्यहम्।।
( वही सर्ग श्लोक १८)
सीताजी के ऐसा कहने पर धर्मज्ञ अनसू़या बड़ी प्रसन्न होकर बोली- सीते!तुम्हारी निर्लोभता से जो विशेष हर्षि हुआ है(अथवा तुममें जो लोभहीनता के कारण सदा आनंदोतेसव भरा रहता है),उसे मैं अवश्य सफल करूंगी।
फिर उन्होंने सीता जी को सुंदर दिव्य हार,वस्त्र,आभूषण, अंगराग और बहुमूल्य अनुलेपन भी दिया।
५:- सीताजी के पारिवारिक संस्कार:-संस्कारशीलता:-
सीता जी को अनसूया ने पातिव्रत धर्म का उपदेश दिया तब सीताजी ने उत्तर में कहा-
आगच्छन्त्याश्च विजनं वनमेवं भयावहम्।
समाहितं हि मे श्वश्र्वा हृदये यत् स्थिरं मम।।
पाणिप्रदानकाले च यत् पुरा त्वग्निसंनिधौ।
अनुशिष्टं जनन्या मे वाक्यं तदपि मे धृतम्।।
( गीता प्रेस अयोध्याकांड ११८/७-८)
‘जब मैं पति के साथ निर्दन वन में आने लगी,उस समय मेरी सास ने कौसल्या ने मुझे जो कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश दिया था,वह मेरे हृदय में ज्यों-का-त्यों स्थिरःभाव से अंकित है ।
पहले मेरे विवाह काल में अग्नि के समीप माता ने मुझे जो शिक्षा दी थी,वह भी मुझे अच्छी तरह याद है।’
इससे पता चलता है कि सीताजी के पारिवारिक संस्कार बहुत उत्तम थे। वे अपने माता-पिता एवं सास के उपदेशों का कितना गंभीरता से पालन करती थीं।
६:- निर्भयता:-
भगवती सीता अत्यंत तेजस्विनी थीं। जिस पराक्रमी रावण के सामने देवती लोग भी घबरा जाते हैं,उसे सीताजी ने कितनी वीरता और निर्भयता से तीखा और करारा उत्तर दिया,उसे सुनकर रावण की भी रूह कांप गई।देवी सीता ने अबला होकर भी रावण को दहाड़ते हुये तिरस्कारपूर्वक उत्तर दिया:-
त्वं पुनर्जंबुकः सिंहीं मामिहेच्छसि दुर्लभाम्।
नाहं शक्या त्वया स्प्रटुमादित्यस्य प्रभा यथा।।१।।
सूर्याचंद्रमसौ चोभौ पाणिभ्यां हर्तुमिच्छसि।।
यो रामस्य प्रियां भार्यां प्रधर्षयितुमिच्छसि।
अग्निं प्रज्वलितं दृष्ट्वा वस्त्रेणाहर्तुमिच्छसि।।इत्यादि।
‘तू सियार है और मैं सिंहनी हूं,मैं तेरे लिये सर्वथा दुर्लभ हूं।फिर भी क्या तू मुझे पाने का हौंसला रखता है?जैसे कोई सूर्य की प्रभा को नहीं छू सकता,उसी प्रकार तू मुझे नहीं छू सकता।तेरी इतनी कि तू श्रीराम की प्यारी पत्नी का अपहरण करना चाहता है! अवश्य ही तू सूर्य और चंद्रमा को हाथ से पकड़ने की अभिलाषा करता है।यदि तू श्रीरामजी की पत्नी का बलात्कार करना चाहता हा तो निश्चय ही जलती आग को देखकर भी उसको कपड़े में बांधकर ले जाने की इच्छा करता है और लोहे की तीखी सलाखों की नोंक पर विचरना चाहता है।’
( गीता प्रेस संस्करण अरण्यकांड ४७/३७,४२-४४ )
( जग.टीका २८/३३,३८,३९)
साथ ही सीता ने रावण को कुछ समय ठहरने के लिये भी कहा :-
मुहूर्तमपि तिष्ठ त्वं न जीवन् प्रतियास्यसि।।
नहि चक्षुःपथं प्राप्य तयोः पार्थिवपुत्रयोः।
ससैन्योs पि समर्थस्त्वं मुहूर्तमपि जीवितुम्।।
( अयोध्याकांड ५३/१०,११)(जग.टीका में अनुपलब्ध)
अरे!दो घड़ी भी ठहर जा,फिर यहां से जीवित नहीं लौट सकेगा।।उन दोनों राजकुमारों के दृष्टिपथ में आजाने पर तू सेना के साथ हो तो भी दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता।।
यह सीताजी की रावण को ललकार थी!
साथ ही उन्होंने कहा-‘तुझमें और श्रीराम में उतना ही अंतर है जितना सिंह और सियार में समुद्र और नाले में,अमृत और कांजी में,सोने और लोहे में,चंदन और कीचड़ में,हाथी और बिलाव में,गरूड और कौवे में-‘ इत्यादि।
सीताजी ने सिद्ध कर दिया कि पातिव्रत धर्म और परमेश्वर के बलपर किसीभी अवस्था में स्त्री को डरना या गिड़गिड़ाना नहीं चाहिये अपितु उसका प्रतिवाद निर्भयता से करना चाहिये।
साभार- https://www.facebook.com/AryaSamajMandirSitamaniKorba/ से