90 के दशक में बिहार जंगल राज, अपहरण ,चोरी ,डकैती वेगारी (बिना मजदूरी के काम कराना ),बलात्कार( बलपूर्वक चरित्र हनन करना) का पर्याय था।इसको कानून एवं व्यवस्था वाले इकाई के रूप में वापस लाना ,बिहार की सड़कों की दशा में बेहतर एवं तुलनात्मक रूप से भयमुक्त वातावरण बनाने में सुशासन बाबू यानी नीतीश कुमार का महत्वपूर्ण उपादेयता है। लोकतंत्र में स्थिर व्यक्तित्व को बनाए रखना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है ,इससे नेता जी में गुरुत्व बना रहता है और कार्यकर्ताओं की इज्जत बढ़ जाती है। क्षेत्रीय दलों के कार्यकर्ताओं में नेताजी के गुरुत्व का शुभ पक्ष यह होता है कि इसे टूटी साइकिल से बड़ी चक्का वाली गाड़ी (महंगी गाड़ियां) तक मिल जाती है। लोकतंत्र में लोकतांत्रिक गुरुत्व का गला ‘ पलटू राम ‘ जैसे नेताजी घोट देते हैं; क्योंकि बार-बार राजनीतिक दल बदलने के कारण नेताजी का आकर्षण एवं गुरुत्व जनता में शून्य हो जाता है और कान में मंत्रणा देने वाले कार्यकर्ता ‘ घसीटाराम’ में बदल जाता है क्योंकि कार्यकर्ता में रौब ,रहन – सहन पुराने संस्कृति में चलती है, लेकिन नेताजी की पकड़ प्रॉक्सी फोन (झूठी फोन) में ही रह जाता है।
बिहार की राजनीति में एक नया राजनीतिक स्टंट व राजनीतिक खेल प्रारंभ हुआ है वह है जाति आधारित जनगणना; संवैधानिक विषय वस्तु के दृष्टिकोण से देखें तो जनगणना का विषय संघ सूची का विषय है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 246 के अनुसार जनगणना का कार्य संघीय/ केंद्रीय सरकार द्वारा किया जाता है ।अभी तक के नीतीश जी के कार्यों एवं लोकप्रियता का राष्ट्रीय राजनीति एवं क्षेत्रीय राजनीति में केस स्टडी करने से पता चला है कि नीतीश जी विचारधारा से ज्यादा कुर्सी(सत्ता) से प्यार करते हैं ,राजनीति में इसी मौलिक उपादेयता के कारण उनको ” मौसम चुनाव वैज्ञानिक” भी कहा जाता है।
बिहार जातीय गणना कराने वाला राष्ट्रीय फलक एवं इकाई फलक पर पहला राज्य है;इसके पीछे प्रबल कारण कुर्सी ही है। केंद्र सरकार पुरानी परंपरा का पालन कर रही है क्योंकि सरकार को अंदेशा है कि इससे जातिवाद अलगाववाद एवं आरक्षण वाद की मांग जोर पकड़ सकता है ।जाति आधारित जनगणना सामाजिक संरचना के लिए चुनौती बन सकता है, क्योंकि इससे जातिगत समीकरण का मांग जोर पकड़ सकता है।बिहार सरकार तर्क है कि इससे आर्थिक उत्थान की कारगर योजनाएं शुरू की जा सकती है ,आर्थिक स्थिति का आकलन एवं गरीबी निवारण की योजनाओं में कारगर होता है। बिहार सरकार को इस तथ्य पर भी ध्यान देना चाहिए कि 22.8 करोड लोग अब भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे है अर्थात ये वे बदनसीब व्यक्ति हैं जो दो जून की रोटी जुटाने में सक्षम नहीं है, इस रैंक में बिहार का प्रदर्शन बहुत ही खराब है ।संपूर्ण भारत में अभी भी 9. 7 करोड़ बच्चे गरीबी के दुष्चक्र में फंसे हैं ।किसी भी देश (राज्य) का भविष्य बच्चे होते हैं ,उन्हीं के कंधों पर भारत का नव निर्माण का भार होता है। गरीबी के कारण बच्चे अपने मौलिक आवश्यकताएं पूरा नहीं कर पाते हैं जिससे उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है और जाति व्यवस्था क्षेत्रीय दलों का वोट बैंक है ;जातियों का सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से भी महत्व है, लेकिन जातीय गणना का खतरा हैं। विभिन्न राज्यों में जातीय गणना के आधार पर जातिवाद की राजनीति को धार दे सकते हैं ;क्योंकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत की राजनीति के समक्ष रचनात्मक एवं एकजुट विपक्ष का अभाव है। अपने भारत में जातियों की गोलबंदी से वोट बैंक की राजनीति की जाती है ।सरकार के निर्माण व कैबिनेट के निर्धारण में जातीय समीकरण को तवज्जो दिया जाता है। भारत में बहुत राजनीतिक दल ऐसे हैं जो जाति विशेष की राजनीति करते है। इन दलों ने विभिन्न जातीय समीकरण बनाकर के राजनीति में दबाव समूह का कार्य किया है ।बिहार व उत्तर प्रदेश जातिवादी राजनीति के लिए कुख्यात रहा है।
(लेखक प्रोफेसर हैं व विभिन्न विषयों पर लिखते हैं)