Saturday, November 23, 2024
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सत्तर अस्सी के दशक की गाँव-कस्बे वाली होली

कहाँ गईं वे मस्तियाँ, कहाँ गई वह मौज ।
वे केशर की क्यारियाँ, गोबर वाले हौज ॥
गोबर वाले हौज बीच डुबकी लगवाना ।
कुर्ते पर ‘पागल’ वाली तख्ती लटकाना ।
याद आ रहा है हम जो करते थे अक्सर ।
बीच सड़क पर एक रुपैया कील ठोंक कर ॥
आओ दिखलाएँ तुम्हें, सीन और इक यार ।
लल्ला जी के जिस्म पर, कुरती औ शलवार ॥
कुरती औ शलवार पहन जब निकलें बाबू ।
साँड़ और कुछ बछड़े हो जाएँ बेकाबू ।
इस डर से हाथों को पीछे बाँधे डोलें ।
गिर सकती हैं गेंद अगर हाथों को खोलें ॥
होता ही है हर बरस अपना तो ये हाल ।
जैसे ही फागुन लगे, दिल की बदले चाल ॥
दिल की बदले चाल, हाल कुछ यूँ होता है ।
लगता है दुनिया मैना औ दिल तोता है ।
फागुन में तौ भैया ऐसौ रंग चढै है ।
भंग पिए बिन हू दुनिया खुस-रंग लगै है ॥
होली के त्यौहार की, बड़ी अनोखी रीत ।
मुँह काला करते हुये जतलाते हैं प्रीत ॥
जतलाते हैं प्रीत, रंगदारी करते हैं ।
सात पुश्त की ऐसी की तैसी करते हैं ।
करते हैं सत्कार गालियों को गा-गा कर ।
लेकिन सुनने वाले को भी हँसा-हँसा कर ॥
जीजा-साली संग या, देवर-भाभी संग ।
होली के त्यौहार में, खिलते ही हैं रंग ॥
खिलते ही हैं रंग, अंग-प्रत्यंग भिगो कर ।
ताई जी हँसती हैं फूफाजी को धो कर ।
लेकिन तब से अब में इतना अन्तर आया ।
मन को रँगने वाले अब रँगते हैं काया ॥
सब के ह्रदय उदास हैं, बेकल सब सन्सार ।
सम्भव हो तो इस बरस, कुछ ऐसा हो यार ॥
कुछ ऐसा हो यार, प्यार की बगिया महकें ।
जिन की डाली-डाली पर दिलवाले चहकें ।
खुशियों को दुलराएँ, दुखों को पीछे ठेलें ।
ऐसी अब के साल, साल भर होली खेलें ॥
(लेखक बृज भाषा के जाने माने गज़लकार हैं और कई विधाओं में लिखते हैं) 

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