मुगल शासक औरंगजेब मूर्ति पूजा का विरोधी था। इसलिए उसने अपने शासनकाल में मंदिरों को तोड़ने के आदेश दिए। अनेक मंदिरों की तोडफ़ोड़ के साथ मथुरा जिले में स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर को तोड़ने का काम भी शुरू हो गया। इससे पहले कि श्रीनाथ जी की मूर्ति को कोई क्षति पहुंचे, मंदिर के पुजारी दामोदर दास बैरागी मूर्ति को मंदिर से बाहर निकाल लाए. दामोदर दास वल्लभ संप्रदाय के थे और वल्लभाचार्य के वंशज थे। उन्होंने बैलगाड़ी में श्रीनाथजी की मूर्ति को रखा और उसके बाद कई राजाओं से आग्रह किया कि श्रीनाथ जी का मंदिर बनाकर उसमें मूर्ति स्थापित करा दें, लेकिन औरंगजेब के डर से किसी ने उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया. अंत में दामोदर दास बैरागी ने मेवाड़ के राजा राणा राजसिंह के पास संदेश भिजवाया, क्योंकि राणा राजसिंह पहले भी औरंगजेब को चुनौती दे चुके थे।
यह बात 1660 की है। जब किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमती से विवाह करने का प्रस्ताव औरंगजेब ने भेजा तो चारुमती ने साफ इनकार कर दिया, तब रातों-रात राणा राजसिंह को संदेश भिजवाया गया, राणा राजसिंह ने बिना कोई देरी किए चारुमती से किशनगढ़ में विवाह किया, औरंगजेब इससे राणा राजसिंह को अपना शत्रु मानने लगा। यह दूसरा मौका था जब राणा राजसिंह ने खुलकर औरंगजेब को चुनौती दी और कहा कि उनके रहते हुए बैलगाड़ी में रखी श्रीनाथजी की मूर्ति को कोई छू तक नहीं पाएगा। मंदिर तक पहुंचने से पहले औरंगजेब को एक लाख राजपूतों से निपटना होगा।
उस समय श्रीनाथजी की मूर्ति बैलगाड़ी में जोधपुर के पास चौपासनी गांव में थी और चौपासनी गांव में कई महीने तक बैलगाड़ी में ही श्रीनाथजी की मूर्ति की उपासना होती रही। यह चौपासनी गांव अब जोधपुर का हिस्सा बन चुका है और जिस स्थान पर यह बैलगाड़ी खड़ी थी, वहां आज श्रीनाथजी का एक मंदिर बनाया गया है। बताते हैं कि कोटा से 10 किमी दूर श्रीनाथजी की चरण पादुकाएं उसी समय से आज तक रखी हुई हैं, उस स्थान को चरण चौकी के नाम से जाना जाता है।
बाद में चौपासनी से मूर्ति को सिहाड़ लाया गया। दिसंबर 1671 को सिहाड़ गांव में श्रीनाथ जी की मूर्तियों का स्वागत करने के लिए राणा राजसिंह स्वयं गांव गए। यह सिहाड़ गांव उदयपुर से 30 मील एवं जोधपुर से लगभग 140 मील की दूरी पर स्थित है जिसे आज हम नाथद्वारा के नाम से जानते हैं। फरवरी 1672 को मंदिर का निर्माण संपूर्ण हुआ और श्री नाथ जी की मूर्ति मंदिर में स्थापित कर दी गई।
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