“वस्तुतो ध्वान्ताच्छन्नविज्ञानकालिकाना
अर्थात्- “अन्धकार से आच्छन्न समय में होने के कारण परम विद्वान् होते हुए भी सायण, महीधरादि वैदिक विज्ञान न जान सके यह शोक है।”
वेदभाष्यकारों के विषय में वैदिक गवेषक श्री पं० भगवद्दत्तजी देहली ने भी विस्तृत विवेचन किया है। आर्यसमाज के संस्थापक योगिराज महर्षि दयानन्दजी महाराज ने भी अपनी लेखनी उठाकर वेदार्थ में क्रान्ति उत्पन्न कर दी। आपने वेदों को प्रभु की वाणी, नित्य और स्वतःप्रमाण कहा है और अपने ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’, ‘सत्यार्थप्रकाश’ आदि ग्रन्थों में भी लिखा है। आपका अर्थ त्रिविध प्रक्रिया के अनुसार है जिस प्रक्रिया को श्री स्कन्दस्वामी ने भी अपने निरुक्त भाष्य में स्पष्ट स्वीकार किया है। इनके भाष्य की प्रशंसा बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से की है। इसका पूर्ण विवेचन हमने अपने ग्रन्थ ‘महर्षि दयानन्दजी कृत वेदभाष्यानुशीलन’ में किया है जो पाठकों को अवश्य देखना चाहिए।
“There is nothing fantastic in Dayanand’s idea that Veda contains other truths of science as well as Religion. I will add my own conviction that Veda contains other truths of science which the modern world does not possess at all. Immediately the character of the Veda is fixed in the sense Dayanand gave to it, the merely ritual mythological and polytheistic interpretation of Sayanacharya collapses, and the merely Naturalistic and mateorological interpretation of Europeans also collapses. We have instead, one of the world’s Sacred Books and the Divine worth of lofty and noble religion.”
अर्थात्- “ऋषि दयानन्द की इस धारणा में कि वेद धर्म और पदार्थ विद्या के भंडार हैं कोई अयुक्त वा अनहोनी बात नहीं है। मैं उनकी उत्तम धारण में अपना विश्वास और जोड़ना चाहता हूं कि वेदों में पदार्थ विद्या की अन्य ऐसी सच्चाइयां भी हैं जिनको आजकल का संसार यत्किंचित् भी नहीं जान पाया है। एक बार वेदों की स्थिति स्वामी दयानन्द के अभिमतानुसार समासीन हो जाने दो तो फिर देखोगे कि सायणाचार्य का केवल रूढ़िपरक और कपोल-कल्पित अनेक ईश्वरवाद पर आश्रित वेदों के भाष्य का भवन अपने आप गिर जाएगा और उसी के साथ-साथ पाश्चात्य विद्वानों का केवल भौतिक पदार्थ और प्राकृतिक पूजनपरक भाष्य भी धराशायी हो जाएगा और वेद एक उच्च तथा गौरवास्पद ईश्वरीय ज्ञान पुस्तक के रूप में हमारे पास शोभनीय होगा।”
अध्वरो वै यज्ञ: (शतपथ ब्रा० १/२/४/५, १/४/१/३८), यज्ञो वै नम: (शतपथ ब्रा० ७/४/१/३०), यज्ञो वै भुज्यु: (यजुर्वेद अ० १८ मं० ४२), यज्ञो हि सर्वाणि भूतानि भुनक्ति (शतपथ ब्रा० ९/४/१/११), यज्ञो भग: (शतपथ ब्रा० ६/३/१/१९), यज्ञो ह वै मधु सारघम् (शतपथ ब्रा० ३/४/३/१४), यज्ञो वै स्व: (यजु० १/११), यज्ञो वै सुम्नम् (शतपथ ब्रा० ७/२/२/४), यज्ञो वै विशो यज्ञे हि सर्वाणि भूतानि विष्टानि (शतपथ ब्रा० ८/७/३/२१), ब्रह्म हि यज्ञ: (शतपथ ब्रा० ५/३/२/४), यज्ञो वै भुवनज्येष्ठ: (कौ० ब्रा० २५/११), यज्ञो वै भुवनस्य नाभि: (तैत्तिरीय ब्रा० ३/९/५/५), रेतो वाऽ अत्र यज्ञ: (शतपथ ब्रा० ७/३/२/९), यज्ञो वा अवति (ताण्ड्य० ब्रा० ६/४/५), ऋतुसंधिषु वै व्याधिर्जायते (गोपथ ब्रा० उ० १/१९, कौ० ब्रा० ५/१), आत्मा वै यज्ञ: (शतपथ ब्रा० ६/२/१/७), स्वर्गो वै लोको यज्ञ: (कौ० १४/१), यज्ञो विकंकत: (शतपथ ब्रा० १४/१/२/५), यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म (शतपथ ब्रा० १/७/१/५), यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म (तैत्तिरीय० ब्रा० ३/२/१/४), यज्ञो वै महिमा (शतपथ ब्रा० ६/३/१/१८), पुरुषो वै यज्ञ: (कौषीतकी ब्रा० १७/७), यज्ञो वै भुवनम् (तै० ३/३/७/५), यज्ञो वा ऽऋतस्य योनि: (शतपथ ब्रा० १/३/४/१६)।
इन वचनों से महर्षि के अर्थों की पुष्टि होती है। इन वाक्यों में लोकोपकारक सब श्रेष्ठ कर्मों को यज्ञ नाम से कहा गया है।
(१) यजुर्वेद अ० १ मन्त्र २१ के भावार्थ में ‘विद्वत्सङ्ग विद्योन्नितिर्होमशिल्पाख्यैर्
(२) यजु० अ० ५ मन्त्र २ में ‘उर्वशी’ शब्द का यौगिक अर्थ करते हैं- ‘ययोरूणि बहूनि सुखान्यश्नुवते सा यज्ञक्रिया’ – बहुत सुखों को प्राप्त करानेवाली यज्ञ क्रिया है।
पौराणिक भाष्यकार यहां ‘उर्वशी’ से ‘अप्सरा’ का ग्रहण करते हैं जो भ्रममात्र है।
निरुक्तसमुच्चय (४/१४) में ‘उर्वशी’ को ‘विद्युत’ बतलाया है। ‘विद्युत उर्वशी’ इति दुर्गाचार्य: (निरुक्तभाष्य ५/१४)
महीधर ने यजु० ५/२ का अश्लील अर्थ करते हुए लिखा है- ‘यथोर्वशी पुरूरवोनृपस्य भोगायाधस्ताच्छेते…’ अर्थात् ‘जैसे उर्वशी, पुरुरवा राजा के भोग के लिए नीचे सोती है।
इनका अर्थ सर्वथा ही त्याज्य है क्योंकि महीधर वाममार्गी थे।
राजर्षि मनु जी ने भी लिखा है- ‘अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ:’ (मनुस्मृति ३/७०)। इसकी व्याख्या करते हुए श्री कुल्लूक भट्ट लिखते हैं- ‘अध्यापनशब्देनाध्य्यनमपि गृह्यते जपोऽहुत: इति वक्ष्यमाणत्वात्। अतोऽध्यापनमध्ययनं च ब्रह्मयज्ञ:।’
इससे महर्षि दयानन्द जी कृत – ‘अध्ययनाध्यापनरूप’ अर्थ का स्पष्ट समर्थन होता है।
इसी प्रकार इसी मन्त्र में ‘सुयज्ञा:’ शब्द का अर्थ- ‘शोभनोऽध्य्यनाध्यापनाख्यो यज्ञो येषां त इव’ – ‘अच्छे पढ़ने-पढ़ाने वाले विद्वानों के समान।’
(५) यजु० ११/७ में तथा ९/१ में ‘यज्ञं’- ‘सर्वेषां सुखजनकं राजधर्मम्’ – ‘सब को सुख देने वाले राजधर्म का’ (यजु० ९/१ में)। और ‘यज्ञम्’- ‘सुखानां सङ्गमकं व्यवहारम्’ – ‘सुखों के प्राप्त कराने हारे व्यवहार वह सब यज्ञ है’ (यजु० ११/७ में)।
(८) यजु० अ० १८ मन्त्र ९ में ‘यज्ञेन’- ‘सर्वरसपदार्थवर्द्धकेन कर्मणा’ – ‘यज्ञ उस कर्म को कहते हैं जो सर्व रसों और पदार्थों को बढ़ावे।’
(९) यजु० अ० १८ मन्त्र २६ में ‘यज्ञेन’- ‘पशुपालनविधिना’ – ‘जिस विधि से पशुपालन हो उस विधि का नाम यज्ञ है।’
(१०) यजु० अ० १८ मन्त्र २७ ‘यज्ञेन’- ‘पशुशिक्षाख्येन’ – ‘पशु शिक्षा भी यज्ञ है।’
(११) यजु० अ० १८ मन्त्र ६२ में ‘यज्ञम्’- ‘अध्ययनाध्यापनाख्यम्’ – अध्ययनाध्यापन कर्म का नाम यज्ञ है।
व्यापक परमात्मा और जीवात्मा दोनों यज्ञ हैं।
(१३) यजु० अ० २३ मन्त्र ५७ में ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ ‘जगत् वा संसार’ किया है।
(१४) यजु० अ० २३ मन्त्र ६२ में ‘यज्ञ’ शब्द से ‘जगदीश्वर’ अर्थ किया है।
(१५) यजु० अ० २५ मन्त्र २७ में ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ ‘सत्कार’ किया है।
(१६) यजु० अ० २५ मन्त्र २८ में ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ ‘संगत’ किया है।
(१७) यजु० अ० २५ मन्त्र ४६ में ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ ‘विद्वानों के सत्कार आदि उत्तम काम’ किया है।
(१८) यजु० अ० २६ मन्त्र १९ में ‘यज्ञम्’ का अर्थ ‘धर्म्ये व्यवहारम्’ – ‘धर्मयुक्त व्यवहार’ ऐसा किया है।
(१९) यजु० अ० २६ मन्त्र २१ में ‘यज्ञम्’ का अर्थ ‘प्रशस्तव्यवहारम्’ – ‘उत्तम व्यवहार’ किया है।
(२०) यजु० अ० २७ मन्त्र १३ में ‘यज्ञ’ का अर्थ ‘सङ्गत व्यवहार’ किया है।
(२१) यजु० अ० २७ मन्त्र २६ में ‘यज्ञ’ का अर्थ ‘सङ्गत संसार’ किया है।
(२२) यजु० अ० २९ मन्त्र ३६ में ‘यज्ञ’ का अर्थ ‘अनेकविधव्यवहारम्’ ऐसा किया है।
(२३) यजु० अ० ३० मन्त्र १ में ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ- ‘राजधर्माख्यम्’ – अर्थात् ‘राजधर्मरूप यज्ञ को’ ऐसा किया है।
(२४) यजुर्वेद अध्याय ३७ मन्त्र ८ में ‘मखस्य’ शब्द का अर्थ ‘ब्रह्मचर्य्य आश्रम रूप यज्ञ के’ किया है। इस अर्थ में ‘ब्रह्मचर्य आश्रम’ को यज्ञ कहा है।
(२५) यजु० अ० ३१ मन्त्र ७ में ‘यज्ञ’ का अर्थ – ‘पूजनीयतम’ किया है।
(२६) यजु० अ० ३१ मन्त्र १४ में ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ ‘मानसज्ञान यज्ञ’ किया है।
(२७) यजु० अ० ३१ मन्त्र १६ में ‘यज्ञ’ का अर्थ ‘ज्ञानयज्ञ से पूजनीय सर्वरक्षक अग्निवत् तेजस्वि ईश्वर’ किया है।
(२८) यजु० अ० ३३ मन्त्र ३३ में ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ ‘यात्रा संग्राम वा हवनरूप यज्ञ’ लिखा है।
(२९) यजु० अ० ३४ मन्त्र २ में ‘यज्ञ’ का अर्थ ‘अग्निहोत्रादि वा धर्मसंयुक्त व्यवहार वा योग यज्ञ’ ऐसा किया है।
(३०) यजु० अ० ३४ मन्त्र ४ में ‘यज्ञ’ का अर्थ ‘अग्निष्टोमादि वा विज्ञानरूप व्यवहार’ ऐसा किया है।
(३१) यजु० अ० ३८ मन्त्र ११ में ‘यज्ञ’ का अर्थ ‘विद्वानों के सङ्ग’ किया है।
(३२) ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त ३ मन्त्र १० में ‘यज्ञम्’ का अर्थ- ‘शिल्पिविद्यामहिमानं कर्म च’ – ‘शिल्प विद्या की महिमा और कर्मरूप यज्ञ को।’
(३४) ऋग्वेद १/१०/४ में ‘यज्ञ’ का अर्थ ‘क्रियाकौशलम्’ अर्थात् ‘होम ज्ञान और शिल्पविद्यारूप क्रिया’ किया है।
(३५) ऋग्वेद १/१२/१ में ‘यज्ञ’ का अर्थ ‘शिल्पविद्या’ किया है।
(३६) ऋ० १/१५/७ में ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ ‘अग्निहोत्र आदि अश्वमेधपर्य्यन्त यज्ञ वा शिल्पविद्यालय यज्ञ’ किया है।
(३७) ऋ० १/२०/२ में ‘यज्ञम्’ का अर्थ ‘पुरुषार्थसाध्यम्’ किया है। इस प्रकार “जो पुरुषार्थ साध्य है उस सबको महर्षि दयानन्दजी यज्ञ कहते हैं।”
(३८) ऋ० १/२१/२ में ‘यज्ञेषु’ का अर्थ- ‘पठनपाठनेषु शिल्पमयादिषु यज्ञेषु’ किया है। इससे स्पष्ट है, पठन-पाठन कार्य और शिल्पमयादि कार्य भी यज्ञ हैं।
(३९) ऋ० १/२२/३ में ‘यज्ञम्’ का अर्थ- ‘सुशिक्षोपदेशाख्यम्’ ऐसा कहा है। इससे स्पष्ट है कि श्रेष्ठ शिक्षा का नाम भी यज्ञ है।
(४०) ऋ० १/२७/१० में ‘यज्ञियाय’ का अर्थ- ‘यज्ञ कर्मार्हतीति यज्ञियो योद्धा तस्मै’ – ‘यज्ञकर्म के योग्य जो हो उसे यज्ञिय कहते हैं।’ ‘यज्ञिय’ शब्द से ‘योद्धा’ का ग्रहण करने से ‘यज्ञ’ का अर्थ ‘युद्ध’ है ऐसा स्पष्ट होता है।
(४१) ऋ० १/४१/५ में ‘यज्ञम्’ का अर्थ- ‘शत्रुनाशकं श्रेष्ठपालनाख्यं राजव्यवहारम्’ किया है। शत्रु का नाश और श्रेष्ठ का पालन जिससे हो ऐसे राजव्यवहार को ‘यज्ञ’ कहा है।
(४२) ऋ० १/४४/३ में ‘यज्ञानाम्’- ‘अग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तानां योगज्ञानशिल्पोपासनाज्ञानानां’ लिखा है।
परन्तु यह धारणा भ्रमपूर्ण है क्योंकि उनके भाष्य को पढ़ने से अन्यान्य अर्थ भी होते हैं जैसा कि ऊपर थोड़े स्स प्रदर्शित किए गए हैं। जितने श्रेष्ठ कर्म हैं सब आपकी दृष्टि में ‘यज्ञ’ है। अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त कर्म भी श्रेष्ठ कर्म है अतः ये कर्म भी यज्ञ हैं न कि ये कर्म यज्ञ हैं।
पाद टिप्पणियां-
१. “ऐतरेयालोचनम्” पृष्ठ १८९ (द्वितीयसंस्करण, संवत् १९३३ वि० कलकत्ता)।
२. “वैदिक वाङ्मय का इतिहास” भाग प्रथम, खण्ड द्वितीय, प्रथम संस्करण।
३. मेसर्स जयदेव ब्रदर्स, आत्माराम पथ, बड़ोदा से प्रकाशित।
४. अर्द्धमासिक पत्रिका “सुधा” लखनऊ का “दयानन्द अंक” वर्ष ७, खण्ड १, अक्टूबर १६, सन् १९३३ ई०, संख्या ६, पृष्ठ ४६५।