भारतीय इतिहास के अनेक ऐसे पहलुओं को जान-बूझ कर अनदेखा किया गया है, जो कि हमारे साम्राज्यों की निर्मितियों और स्थायित्व के सबसे बड़े कारण रहे हैं। यह विमर्श विजयनगरम् साम्राज्य के संस्थापक हरिहर और बुक्का जैसे महान, मेधावी और महत्वाकांक्षी शासकों पर नहीं अपितु उन्हें कुंदन बनाने वाले उनके सहयोगी, गुरु और कालांतर में महामंत्री माधवाचार्य विद्यारण्य पर केंद्रित है। विद्यायरण्य को दक्षिण भारत का चाणक्य कहा जाता है; अपने अपने समय के दो महति विद्वानों की ऐसी तुलना सार्थक प्रतीत होती है।
ये केवल कुछ प्रचलित उदाहरण हैं। आज जब हम पूर्व-मध्यकालीन भारत के गौरवशाली विजयनगर साम्राज्य की बात करने जा रहे हैं और चर्चा माधवाचार्य विद्यारण्य पर की जा रही है तब यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि जो स्थान चंद्रगुप्त के उत्थान में चाणक्य का, अशोक के उत्थान में राधागुप्त का, पुष्यमित्र शुंग के उत्थान में पतंजलि का रहा है वही स्थान विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों हरिहर और बुक्का के जीवन में माधवाचार्य विद्यारण्य का रहा है। संक्षेप में यही कि भारतीय भूभाग पर मुसलमान आक्रान्ताओं की कुदृष्टि हमेशा से रही है लेकिन समय समय पर ऐसे महानायक हुए हैं जिन्होनें उनका सामना किया, उनकी जड़ों में मट्ठा डालने का कार्य किया है। मुहम्मद बिन कासिम से आरंभ कर मुगलों तक को खदेडऩे में राजा दाहिर की पुत्रियों के बलिदान से ले कर छत्रपति महाराज शिवाजी तक के योगदानों को भले ही एनसीईआरटी की पुस्तकें समुचित स्थान न दें लेकिन यह निस्संदेह है कि हमारे इतिहास का वास्तविक गौरव यहीं निहित है।
कौन थे विद्यारण्य? स्थापित इतिहास की पुस्तकें इस तरह मौन हैं कि अनेक द्वितीयक तथा साहित्यिक साधनों से उनके विषय में जानकारी समगरीकृत हो पाती है। उल्लेख मिलता है कि विद्यारण्य के पिता नाम नाम था मायण। मायण के तीन पुत्र थे माधव, सायण और भोगनाथ। माधव अर्थात विद्यारण्य का जन्म वर्ष 1296 को तुंगभद्रा नदी के तटवर्ती पम्पाक्षेत्र अर्थात वर्तमान हम्पी के निकट के किसी गांव में हुआ था। उनका वास्तविक नाम तो माधव ही था, विद्यारण्य नामकरण उन्हें वर्ष 1331 ई. में संन्यास ग्रहण करने के पश्चात प्राप्त हुआ। माधव ने आरम्भिक शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। उनकी माता श्रीमती देवी भी विदुषी थी। तत्पश्चात उनके तीन गुरु कहे जाते हैं जिनमें प्रमुख है श्रृंगेरी मठ के तत्कालीन प्रमुख विद्यातीर्थ, वेदान्त के परम विद्वान भारती तीर्थ और साहित्य तथा संस्कृति के ज्ञाता श्रीकंठ। आप, विद्वानों की विविधता और विषय की विविधता को देखें और अनुभव करें कि तत्कालीन शिक्षा पद्यति बड़े बड़े अन्वेषकों, विचारकों और विद्वानों की जननी क्यों थी। शिक्षा में उनकी मेधा ने ही उन्हें कालांतर में माधवाचार्य के रूप में पहचान प्रदान की। शिक्षा पूरी हुई तो आचार्यों से उन्होंने पूछा कि वे गुरुदक्षिणा में क्या प्रदान करें, उत्तर मिला अपना जीवन। गुरु भी योग्यता पहचानते थे, उन्हें ज्ञात था कि अप्प दीपों भव वाली मन:स्थिति उनके इसी विद्यार्थी में अंतर्निहित है, यही है जो दिल्ली के सुलतानों के फैलाये अंधकार से लड़ सकता है, उजियारा फैला सकता है।
आचार्य विद्यारण्य ने जब वास्तविकता के धरातल पर पैर रखा तो वह उन्हे जलता हुआ प्रतीत हुआ। उनके समकालीन का एक संदर्भ कहता है कि ”उस समय लोग चिदम्बरम् के पवित्र तीर्थ को छोड़कर भाग गए थे। मंदिरों के गर्भगृह और मंडलों में घास उग आयी थी। अग्रहारों से यज्ञ धूप की सुगंध के स्थान पर पकते मांस की गंध आने लगी थी। ताम्रपर्णी नदी का जल चंदन से मिश्रित होने के स्थान पर गोरक्त से मिश्रित होने लगा था। देवालयों और मंदिरों पर कर लग गए थे। अनेक मंदिर देखभाल न होने के कारण या तो स्वयं गिर गए थे अथवा गिरा दिए गए थे। हिन्दू राज्य छल-बल से समाप्त होते जा रहे थे।” व्यथित आचार्य इस अवस्था को बदल देना चाहते थे, इसके लिए उन्हें दो सहयोगी भाई भी मिल गए हरिहर और बुक्का जो स्वयं तत्कालीन राजनीति की चपेट में अपनी राजनैतिक पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। माधवाचार्य विद्यारण्य जानते थे कि प्रजा में अपने धर्म के छिन जाने का असंतोष है, राजाओं-सामंतों में अपनी गरिमा के नष्ट होने की ग्लानि है। यही सही समय है जबकि गरम लोहे पर हथौड़ा मार दिया जाना चाहिए।
अनेक संदर्भ इस बात की पुष्टि करते हैं कि विद्यारण्य ने विजयनगर के प्रथम शासक हरिहर के समय से उनकी आगे की तीन पीढिय़ों तक को अपना मार्गदर्शन प्रदान किया था। हरिहर प्रथम ने उन्हें अपने से भी ऊंचा आसन और सम्मान दिया था तथा वैदिक मार्ग प्रतिष्ठाता के सम्मानित सम्बोधन से सम्बोधित किया। जब वे छिहत्तर वर्ष की आयु के थे, उन्होंने राजनैतिक जीवन से भी संन्यास ले लिया। इसके पश्चात वे परम तत्व की साधना में लगा गए, वे शाृंगेरी चले आए और कुछ समय के पश्चात यहाँ के पीठाधीश्वर का पद उन्होंने सुशोभित किया।
कुछ विद्वान शृंगेरी के पीठाधीश्वर और विजयनगर के संस्थापक विद्यारण्य को दो अलग व्यक्ति मानते हैं लेकिन अधिकतम साक्ष्य और संदर्भ उनके एक ही होने का इशारा हैं। माधवाचार्य विद्यायरण्य ने ‘पराशरमाधवीय’ ‘जीवन मुक्ति विवेकपंचदशी’ ‘प्रायश्चित सुधानिधि’ और ‘जैमिनीय न्यायमाला’ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी की है। वर्ष 1386 में उन्होंने यह लोक त्याग दिया था। ऐसे महान मनीषी इस भारत भूमि को प्राप्त हुए हैं यही कारण है कि हमने सैंकड़ों आक्रमण झेले, असंख्य आतताईयों का सामना किया लेकिन अब भी हमारा अपनी सांस्कृतिक पहचान के साथ अस्तित्व बना हुआ है। विजयनगर साम्राज्य का लंबे समय तक बना रहना और मुसलमान आक्रान्ताओं को चुनौती देना निश्चय ही गौरवशाली शासकों के साहस का प्रतिफल था तथापि माधवाचार्य विद्यारण्य जैसे दूरदृष्टा विद्वानों के योगदान को कमतर नहीं आका जा सकता।